।। प्रमोद भार्गव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
सोशल नेटवर्किग साइट्स को सूचना के संप्रेषण और किसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर सार्वजनिक बहस का खुला और आसान मंच माना गया था, लेकिन अब यह मंच दलों और राजनेताओं की छवि बनाने अथवा बिगाड़ने का धंधा बन गया है. यह इंटरनेट पर अफवाह फैला कर समाज में सद्भाव बिगाड़ने का काम भी कर रहा है. हाल ही में दो मामले ऐसे आये हैं, जिनसे सोशल साइट्स की विश्वसनीयता भंग हुई है. ‘स्पीक एशिया’ नाम की कंपनी के सरगना को दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिया है. यह व्यक्ति निवेश के नाम पर झांसा देने के अलावा इंटरनेट के माध्यम से अफवाह फैलाने का काम करता था. इसी तरह मुजफ्फरनगर में भी सांप्रदायिकता की आग भड़काने का काम फेसबुक और एसएमएस के जरिये हुआ था.
एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिये ऑनलाइन गोरखधंधे का जो ताजा खुलासा हुआ है, उसमें आइटी कंपनियां, स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दलों का गठजोड़ भी सामने आया है. खोजी पोर्टल ‘कोबरापोस्ट’ ने ‘ऑपरेशन ब्ल्यू वायरस’ नाम से जो स्टिंग ऑपरेशन किया है, उसमें छवि चमकाने और विरोधी की छवि बिगाड़ने का पर्दाफाश हुआ है. कोबरापोस्ट के संपादक के मुताबिक इस धंधे में एक प्रमुख विपक्षी पार्टी सबसे अव्वल है. इस ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए पोर्टल के पत्रकार काल्पनिक नेता के प्रतिनिधि बन कर 20 आइटी कंपनियों के दफ्तरों में गये और उनके व्यापारिक प्रबंधकों से छवि निर्माण के बाबत संवाद बनाये. इस संवाद संयोजन में आश्चर्य में डालनेवाली बात यह रही कि किसी भी कंपनी ने अनैतिक व गैर कानूनी कृत्य करने से मना नहीं किया. कोबरापोस्ट का दावा है कि सोशल मीडिया अभियान में एक विपक्षी पार्टी और उसके पीएम पद के उम्मीदवार सबसे आगे हैं.
थोक में एसएमएस और रिकॉर्डेड आवाज में मोबाइलों पर संदेश भेजनेवाले धंधे के नवीनतम संस्करण में अब इंटरनेट के ठिकाने शामिल हो गये हैं. इस काम के लिए सूचना तकनीक में माहिर इंजीनियरों की जरूरत नहीं है. महज कंप्यूटर संचालन में दक्षता जरूरी है. इस काम के लिए ‘बॉट’ नामक एक सॉफ्टवेयर भी विकसित कर लिया गया है, जो इंटरनेट पर स्वाचालित ढंग से गतिशील रहता है. जाहिर है, इन तकनीकी उपायों के माध्यम से लाइक और फालोअर की संख्या किसी व्यक्ति की लोकप्रियता बढ़ाने का काम आसानी से कर सकती है.
ऐसी घटनाओं के बावजूद यदि सोशल साइट्स पर निगरानी व कानूनी प्रक्रिया की बात उठती है, तो इसे अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता पर अकुंश, लोगों की निजता में हस्तक्षेप या सेंसरशिप जैसे तोहमत लगा कर नकार दिया जाता है. हालांकि निर्वाचन आयोग ने इसे आदर्श चुनाव आचार संहिता के दायरे में लिया है, लेकिन इसके आयामों की विविधता इतनी ज्यादा है कि इसकी व्यापक उपस्थिति पर आंखें गड़ाये रखना मुश्किल काम लगता है. आयोग ने ऑनलाइन मीडिया पर नियंत्रण के लिए इसे वर्गो में विभाजित किया है, जिससे निगरानी आसान हो. ये वर्ग हैं- विकीपीडिया और उसके सहयोग से चलनेवाली साइट्स, ब्लॉग और टिव्टर, यू-ट्यूब, फेसबुक और सोशल नेटवर्किंग तथा गेम्स और एप्स. आयोग ने अवैध आपत्तिजनक सामग्री को वेबसाइट से तुरंत हटाने के सॉफ्टवेयर विकसित करने के भी निर्देश दिये हैं.
हालांकि, फेसबुक की तो यह नीति में शामिल है कि थोक में की गयी कृत्रिम लाइक्स और फालोअर की संख्या कुछ समय के बाद विलोपित कर दी जाती है. लेकिन सूचना तकनीक के विशेषज्ञ और व्यापारिक खिलाड़ी गोपनीयता के बहाने खातों को फेसबुक के संचालकों की पहुंच से ओझल कर देते हैं और कुछ अंतराल पर इनका अवतरन साइट पर फिर हो जाता है. इस तरह निगरानी तो मुश्किल है. लिहाजा साइट्स के साधारण उपयोगकर्ता मुगालते में बने रहते हैं. मसलन आंखों में धूल झोंकने का सिलसिला जारी रहता है. चूंकि धंधा गोपनीय व अलिखित है, इसलिए काला है. लिहाजा यह आयकर कानून और सूचना तकनीक कानून-2000 के उल्लंघन के दायरे में भी आता है.
कानून के पालन और आभासी मीडिया पर निगरानी की दिक्कतें जरूर हैं, लेकिन यहां सबसे ज्यादा अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत उन राजनीतिक दलों और नेताओं को है, जो परस्पर कीचड़ उछालने के गंदे खेल के खिलाड़ी बने हुए हैं. आभासी जुगाड़ें, स्थायी महत्व की नहीं होतीं. नेता की छवि तो उसके काम से जनता गढ़ती है. वास्तविक दुनिया के जीते-जागते, विवेकवान इनसान को फर्जी खातों से दर्ज प्रशंसकों की हिट्स से बरगलाया नहीं जा सकता है. धन देकर प्रसिद्घि हासिल करने का यह भ्रम धन के माध्यम से ही चरित्रहनन का विध्वंस भी रच सकता है. इसलिए छवि निर्माण के इस आभासी-उद्योग से दलों और नेताओं को दूर रहने की जरूरत है.