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सभापति की सलाह

बहुत पहले बड़े हताशा के स्वर में इस देश के एक राष्ट्रपति ने कहा था कि संविधान ने हमें निराश नहीं किया, बल्कि हम ही लोगों ने संविधान को निराश कर दिया. संसद का शीतकालीन सत्र पूर्व राष्ट्रपति के कथन की याद फिर से दिला गया है. अगर दायित्व निर्वाह को कसौटी बनायें, तो कहना […]

बहुत पहले बड़े हताशा के स्वर में इस देश के एक राष्ट्रपति ने कहा था कि संविधान ने हमें निराश नहीं किया, बल्कि हम ही लोगों ने संविधान को निराश कर दिया. संसद का शीतकालीन सत्र पूर्व राष्ट्रपति के कथन की याद फिर से दिला गया है.
अगर दायित्व निर्वाह को कसौटी बनायें, तो कहना होगा कि हमारे जन-प्रतिनिधियों ने लोकतंत्र में लोकमत को अभिव्यक्त करनेवाली सर्वोच्च संस्था को सामूहिक रूप से निराश किया. इसी कारण राज्यसभा के सभापति के आसन से उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को कहना पड़ा कि सदस्य अपने दिल के भीतर झांकें और इस सभा की बेअदबी करनेवाले व्यवहार-बर्ताव से बाज आयें.
जाहिर तौर पर यह सख्त बयान है, पर यह भारी हताशा का नतीजा है. आखिर राज्यसभा अपने नियत समय का तकरीबन पचास फीसद हिस्सा ही कामकाज में लगा पायी. राज्यसभा के कामकाज के लिए निर्धारित अवधि 112 घंटों की थी, परंतु कुल 55 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ गये. सदन की कार्यवाही में प्रति मिनट तकरीबन 29 हजार रुपये का खर्च आता है.
इस हिसाब से राजकोष का 10 करोड़ रुपये सिर्फ हंगामे के नाम पर जाया हुआ. कोई कह सकता है कि इस हंगामे के लिए सत्ता पक्ष अधिक जिम्मेवार है, तो कोई विपक्ष के मत्थे यह जवाबदेही मढ़ सकता है. दूसरे तर्क की तरफदारी में लोकसभा के कामकाज की नजीर दी जा सकती है. लोकसभा, जहां सत्ता पक्ष भारी बहुमत में है, में निर्धारित अवधि से दो घंटे ज्यादा यानी 114 घंटे कामकाज हुआ. और इस कारण लोकसभा की कार्यवाही राज्यसभा से कहीं ज्यादा फलदायी साबित हुई. लोकसभा में कुल 14 बिल पास हुए और लोकसभा की उत्पादकता सौ फीसदी से अधिक रही. वहीं, राज्यसभा में मात्र नौ विधेयक ही पारित हो सके और उत्पादकता 50 फीसदी की रेखा भी न पार कर सकी.
इस तुलना के आधार पर कोई कह सकता है कि सत्ताधारी दल की बहुसंख्या सदन के कामकाज को ज्यादा उत्पादक बनाती है, लेकिन बात सिर्फ उत्पादकता की नहीं है. बात सिर्फ काम की मात्रा की नहीं, बल्कि गुणवत्ता की भी है. क्या सौ प्रतिशत से ज्यादा काम का दावा करनेवाली लोकसभा यह भी कह सकती है कि सदन में किसी विधेयक को बहसतलब मान कर उस पर अलग-अलग राय रखनेवाले सांसदों को चर्चा के लिए पर्याप्त अवसर दिया?
ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि शीतकालीन सत्र में लोकसभा ने गैर-विधायी काम पर 50 घंटे खर्च किये, जबकि विधायी कार्य पर मात्र 33 घंटे. लोकसभा के कामकाज की मात्रा भले सौ फीसदी से ज्यादा रही हो, पर उसकी गुणवत्ता पर विचार करते हुए देखना होगा कि प्रश्नकाल का कैसा और कितना उपयोग हो सका.
कामकाज के दौरान हर दिन एक घंटा प्रश्नकाल का होता है. सांसद विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज को लेकर प्रश्न उठाते और जवाब मांगते हैं.
लोकसभा में प्रश्नकाल उत्पादकता के लिहाज से 87 फीसदी का ही आंकड़ा छू सका, यानी जब लोकसभा में सौ फीसदी से ज्यादा काम हुआ, तब हो रहे काम की समीक्षा के नाम पर केवल 15 घंटे खर्च किये जा सके. बहस की इसी कमी की तरफ ध्यान दिलाते हुए चलते हुए सत्र के बीच कोलकाता में राष्ट्रपति ने कहा था कि संसद बहस के लिए होती है, व्यवधान के लिए नहीं. राष्ट्रपति के शब्दों को गौर से सुना जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने तीन ‘डी’- डिबेट (बहस), डिसेंट (मतभेद) और डिसीजन (निर्णय)- की चर्चा की थी. शत-प्रतिशत से ज्यादा काम करनेवाली लोकसभा के बारे में यह तो कहा जा सकता है कि वह बहुमत के जोर से ‘निर्णय’ पर पहुंची, लेकिन क्या यह भी कहा जा सकता है कि निर्णय पर पहुंचना ‘मतभेद’ और ‘बहस’ की जरूरी प्रक्रिया के रास्ते हो सका. अगर लोकसभा में सत्ता पक्ष ‘मतभेद’ और ‘बहस’ का सम्मान करता, तो फिर मॉनसून सत्र और उससे पहले बजट वाले सत्र में अध्यादेश की सरकार क्यों कहा जाता! हंगामे के बीच बाधित होती संसद की कार्यवाही स्वयं में समस्या नहीं, बल्कि एक गहरी समस्या का लक्षण भर है.
दसवीं लोकसभा (1991-96) में कामकाज का मात्र 10 फीसदी हिस्सा जाया हुआ था. लगातार बढ़ कर पंद्रहवीं लोकसभा (2009-2014) में यह आंकड़ा 40 फीसदी तक पहुंच गया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमें विचार करना होगा कि क्या हम अब भी सचमुच चर्चा और बहस को जनहित तय करने का सही रास्ता मानते हैं या फिर मनमानेपन, जिद्द और राजनीतिक स्वार्थ को हमने लोकतंत्र में एक सैद्धांतिक परिपाटी की तरह निभाना शुरू कर दिया है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के संदेश पर दोनों सदनों के सदस्य गंभीर आत्ममंथन करेंगे और आगामी सत्र में एक बेहतर और जवाबदेह संसद देशहित में लगन के साथ काम करती दिखायी देगी.

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