ईरान और दुनिया की छह प्रमुख शक्तियों के बीच अंतरिम समझौते को नयी विश्व-व्यवस्था की सुगबुगाहट माना जा सकता है. सीरिया के साथ रासायनिक हथियारों पर समझौते की तरह ही, ईरान के विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम पर समझौते के पीछे भी नये उभर रहे ‘‘सामूहिक विश्व नेतृत्व ‘‘ का हाथ रहा है. यह इस बात का प्रमाण है कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद का अमेरिकी वर्चस्व का दौर समाप्त हो गया है.
अब कोई भी फैसला रूस, चीन, जर्मनी जैसे देशों की रजामंदी के बगैर नहीं लिया जा सकता है. इससे इस बात की उम्मीद बढ़ी है कि आनेवाले वर्षो में बोस्निया, इराक या अफगानिस्तान को दोहराया नहीं जायेगा. फिलहाल यह देखना शेष है कि अगले छह महीने में ईरान और विश्व शक्तियां मिल कर अंतिम समझौते की दिशा में कितना बढ़ पायेंगी, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि ईरान के नये राष्ट्रपति हसन रूहानी ने वार्ता के जरिये परमाणु विवाद को सुलझाने की जो परिपक्वता दिखायी है, वे उससे पीछे नहीं हटेंगे. ईरान समझौता भारत के लिए भी बड़ी राहत लेकर आया है.
हालांकि, तात्कालिक तौर पर इस समझौते से भारत को कोई बड़ा फायदा होता नजर नहीं आ रहा, मगर समझौते के ऐलान के बाद भारतीय शेयर बाजार और रुपये में जैसी मजबूती दिखी, उससे भारत के लिए इसके महत्व को समझा जा सकता है. फिलहाल भारत, ईरान से पेट्रोलियम पदार्थो के आयात का भुगतान डॉलर में न करके, रुपये में करता है. यह भारत के तेजी से बढ़ रहे चालू खाते के घाटे को कुछ हद तक नियंत्रण में रखने में मददगार रहा है. प्रतिबंधों के हटने के बाद ईरान से रुपये में तेल आयात की सुविधा संभवत: समाप्त हो जायेगी. लेकिन, ईरान से तेल निर्यात बढ़ने के कारण वैश्विक तेल कीमतों में कमी से इसकी भरपायी होने की उम्मीद है.
इससे भारत का व्यापार घाटा भी कमेगा और रुपये में मजबूती भी आयेगी. इसके साथ ही काफी समय से ठंडे बस्ते में पड़ी ईरान गैस पाइपलाइन परियोजना को भी आगे बढ़ाया जा सकेगा, जो देश की ऊर्जा सुरक्षा की दृष्टि से दूरगामी महत्व का साबित होगा. वैसे, हाल के वर्षो में अमेरिका के दबाव में ईरान के साथ कूटनीतिक संबंधों की भारत द्वारा जिस तरह उपेक्षा की गयी है, उसके मद्देनजर यह काफी चुनौतीभरा काम होगा.