आम चुनावों में अभी छह महीने शेष हैं और देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस नमो व रागां (नरेंद्र मोदी व राहुल गांधी) के रथ पर सवार होकर जनता को भविष्य का सब्जबाग दिखाने एवं अपने-अपने पक्ष में माहौल बनाने में लगी हैं. काफी हद तक अमेरिकी लोकतंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली हमारी संसदीय प्रणाली में परिलक्षित होने लगी है. मगर विदित हो कि भारत राज्यों का एक मजबूत संघ है, जो बहुभाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के लोगों को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है.
विविधताओं में एकता यदि हमारी खासियत है, तो यह भी सच है कि हम अमेरिकियों, जर्मनों फ्रांसिसियों की तरह न तो एकल-भाषी हैं और न ही एक धर्म-संस्कृति वाले. हमारी संसदीय प्रणाली भी ऐसी कि यहां इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता की जीत भी सुनिश्चित नहीं रही. ऐसे में आज चुनावों से पहले व्यक्ति विशेष को भावी प्रधानमंत्री बता कर पूरे देश में हवा बनाना, क्या हमारे लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप को बदलने का एक द्विदलीय प्रयास है? जो भी हो, आज कांग्रेस-भाजपा के बीच रोचक द्वंद्व में देश की अन्य राष्ट्रीय पार्टियां हाशिये पर नजर आ रही हैं.
वहीं भाजपा विशेष कर नरेंद्र मोदी कांग्रेस के भ्रष्टाचार और वंशवाद पर तीखे प्रहार कर सुर्खियां बटोर रहे हैं. कांग्रेस भी भाजपा को सांप्रदायिक साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही हैं. अब दिल्ली का तख्त चाहे जिसे मिले, एक बात तो तय है कि आम आदमी के लिए स्थितियां जल्दी नहीं बदलने वाली, क्योंकि भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों की आर्थिक नीतियों से लेकर विदेश नीति एवं कॉरपोरेटपरस्ती लगभग समान है. अत: इनसे बहुत उम्मीद पालना खुद को छलने जैसा होगा. हम इनका विकल्प खोजें तो अच्छा हो.
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर