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मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं / सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं… राज्य के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं […]

मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं / सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं… राज्य के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा. ’
‘मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं / सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि जो विषय राज्य के मंत्री के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जायेगा अथवा मुझे ज्ञात होगा उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा.’
दो वाक्यों में सिमटे ये 148 शब्द हैं. ये किसी भी राज्य के मंत्री पद और उससे जुड़े कामकाज को जिम्मेवारी से निभाने की शपथ है. बिहार में नये मंत्रियों के शपथ लेते वक्त, ये शब्द काफी चर्चा में रहे. कई इन्हें बोलते वक्त अटके, लटपटाये.
अटकनेवालों पर खूब चर्चा हुई. इसलिए थोड़ी गुफ्तुगू अटकानेवाले शब्दों पर भी होनी चाहिए. वाक्यों की बनावट पर गौर करें. शब्दों को देखें. क्या हम ऐसे ही वाक्य बोलते हैं? क्या बोलचाल में ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करते हैं? क्या ये वाक्य हिंदी की प्रकृति के मुताबिक सटीक लगते हैं? अब जरा इन शब्दों या वाक्य के टुकड़ों को पढ़ते हैं और अपने जेहन में इनके मायने तलाशते हैं- प्रतिज्ञान, विधि द्वारा स्थापित, प्रभुता, अक्षुण्ण, श्रद्धापूर्वक, शुद्ध अंत:करण, निर्वहन, अनुराग, ज्ञात, सम्यक निर्वहन, अपेक्षित, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, संसूचित वगैरह.
ऐसे शब्द और वाक्य हमारे जीवन में रचे-बसे नहीं हैं. ये बनावटी लगते हैं. जब इसी शपथ को अंगरेजी में देखा जाता है, तो ऐसा नहीं लगता. यानी शपथ के वाक्य की बनावट अंगरेजी के मुताबिक है. इनकी हिंदी भी आम नहीं है. यह ‘सरकारी हिंदी’ है. इसे समझने और बोलने के लिए खास ट्रेनिंग की जरूरत है. मुमकिन है, उसके लिए खास तरह की पढ़ाई करनी पड़े. यह खास, आज भी आमजन से दूर है. फिर यह कैसे उम्मीद की जाती है कि आम नागरिक या उनके नुमाइंदे इसे ठीक उसी तरह बोलेंगे या समझेंगे, जैसा शपथ में है.
हमारे समाज का बड़ा तबका, लटपटानेवाले लोगों का मजाक उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता. वह यह साबित करना चाहता है कि जो ये शब्द नहीं बोल पा रहे, वे राज्य क्या चलायेंगे. वह इससे उनके ज्ञान का पैमाना भी तय करने लगता है. वह यह नहीं सोचता कि ज्ञान पर सदियों से कुछ खास लोगों का कब्जा रहा है. जब खास तबके, समुदाय, समूह या वर्ग के वंचित लोग सत्ता में आयेंगे, तो उनके ज्ञान का संसार वही नहीं होगा, जो कुछ तबके का रहा है. इसी रोशनी में इन शब्दों को बोलने या न बोल पाने की बहस हो, तो बेहतर है. सही बोलने से भी ज्यादा अहम है सही समझना. तो क्या जो ऊपर की लाइन सही पढ़ ले रहे हैं, वे उसे एक बार में समझ भी ले रहे हैं?
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
Prabhat Khabar Digital Desk
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