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बिहार के बाद गुजरात में ‘मिनी चुनाव’
डॉ हरि देसाई वरिष्ठ पत्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार विधानसभा चुनाव में जो करारा झटका लगा, उसके बाद गुजरात के लघु जनमत में क्या होगा, वह भाजपा और खास कर मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए निश्चित ही चिंता का विषय है. मुद्दों को न्यायालयों में उलझाने की कला मोदी और शाह […]
डॉ हरि देसाई
वरिष्ठ पत्रकार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार विधानसभा चुनाव में जो करारा झटका लगा, उसके बाद गुजरात के लघु जनमत में क्या होगा, वह भाजपा और खास कर मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए निश्चित ही चिंता का विषय है. मुद्दों को न्यायालयों में उलझाने की कला मोदी और शाह जानते हैं.
मोदीनिष्ठ मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने भी जिला परिषदों, महानगरपालिकाओं एवं अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों को सर्वोच्च न्यायालय तक में उलझाये रखने की भरसक कोशिश की, लेकिन अब चुनाव कार्यक्रम घोषित हो चुके हैं.
राज्य की छह महानगरपालिकाओं, 31 जिला परिषदों, 230 तहसील पंचायत और 56 नगरपालिकाओं के चुनाव नवंबर के आखिर में होंगे. 22 नवंबर को होनेवाले महानगरपालिकाओं के चुनाव की मतगणना 26 नवंबर को रख कर जिला एवं अन्य निकायों पर उसका असर डालने की भाजपा की कोशिश नाकाम रही, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि सभी चुनावों की मतगणना एक साथ यानी दो दिसंबर को ही हो. वैसे भी पाटीदार आरक्षण आंदोलन ने मुख्यमंत्री श्रीमती पटेल और भाजपा की नींद हराम कर रखी है. गुजरात मॉडल के बलबूते नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बने, लेकिन अब उनकी उलटी गिनती शुरू हो गयी लगती है. दिल्ली विधानसभा चुनावों की हार से उन्होंने कोई सबक नहीं लिया और अब बिहार तो झटका ही साबित हुआ.
बिहार में जीत मोदी-शाह के लिए अनिवार्य थी, क्योंकि उसके बाद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व केरल पर भी पार्टी का परचम लहराना था. केरल के महापालिका एवं निकाय चुनाव में भाजपा को नारायण गुरु के संस्थान के सहयोग से थोड़ी-सी सफलता क्या मिली, उसके राष्ट्रीय प्रवक्ता भी केरल विजयोत्सव के बखान करने लगे थे. लेकिन, बिहार ने भाजपा के पैर तले से जमीन खींच ली है.
गुजरात में पिछले दिनों पाटीदार आरक्षण आंदोलन हुआ. भाजपा नेतृत्व ने इसके पीछे कांग्रेस का हाथ बताया, लेकिन कांग्रेस के कारण किसी आंदोलन को गुजरात में इतना व्यापक जनसमर्थन मिल सकता है, तो भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए वह समर्थ मानी जानी चाहिए.
वास्तव में गुजरात कांग्रेस तितर-बितर व कागज के पुलिंदे से ज्यादा नहीं रही, लेकिन संघ परिवार के ही संगठन विश्व हिंदू परिषद के सुप्रीमो प्रवीण तोगड़िया व उनके निकट सहयोगी रहे गोरधन झड़फिया जैसे सौराष्ट्र के पाटीदार नेताओं के आशीर्वाद से हार्दिक पटेल का नेतृत्व पनपा. मोदीनिष्ठ सांसद व मंत्री रहे दिलीप संघाणी ने तो खुल कर पाटीदार आंदोलन के साथ तोगड़िया का नाम जोड़ा और सौराष्ट्र में काफी राजनीतिक विवाद पैदा हुआ था.
अतीत में जयप्रकाश नारायण प्रेरित नवनिर्माण छात्र आंदोलन के समय भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री चीमनभाई पटेल ने आंदोलनकारी छात्रनेताओं के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह के मुकदमे दायर नहीं किये थे, लेकिन अपने विरोध में कोई आवाज उठे, उसे कुचलने की मानसिकता रखनेवाले भाजपाई नेतृत्व ने हार्दिक पटेल व अन्य पाटीदार नेताओं के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह के मुकदमे दायर किये.
वैसे भी पाटीदार भड़के हुए थे और अब तो महापालिका व स्थानीय निकायों के चुनावों में उन्होंने खुल कर भाजपा का विरोध करना तय किया है. भाजपाई पाटीदार नेतृत्व ने कांग्रेस के प्रत्याशियों को भी जिताने का संकल्प लिया है. ऐसी स्थिति में पाटीदार गुजरात भाजपा की जीत में सेंध लगा सकते हैं.
गुजरात में इसी महीने हो रहे निकाय चुनाव का लघु जनमत साबित होना स्वाभाविक है. वैसे भी आनंदीबेन पटेल के विरुद्ध माहौल गरमाया हुआ है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गांधीनगर की गद्दी पर आंखें गड़ाये हुए हैं.
शाह विधायक हैं और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते कार्यरत रहने के बजाय मुख्यमंत्री पद पर आरूढ़ होने की उनकी मंशा बरकरार है. बिहार के चुनाव के दौरान भी अहमदाबाद महानगरपालिका के प्रत्याशियों के चयन में श्रीमती पटेल ने शाह के समर्थकों का पत्ता काटने का काम किया, तब शाह गुजरात का चक्कर काट कर गये.
वैसे भी गुजरात भाजपा में गुटबाजी काफी तेज है और कांग्रेस उसका लाभ लेने की स्थिति में है, बशर्ते वह अपने आपको एकजुट रख सके.
कांग्रेस से भाजपा में आये नेता पुन: कांग्रेस की ओर रुख कर सकते हैं. राज्य के पूर्व उप-मुख्यमंत्री रहे पाटीदार नेता नरहरि अमीन भाजपा में शरीक होने के बाद उन्हें कोई ज्यादा तवज्जो नहीं मिलने की वजह से अब फिर से कांग्रेस के विधायक दल के नेता व विपक्षी नेता शंकरसिंह वाघेला से संपर्क स्थापित करने की ताक में हैं. फिर भी निकाय चुनावों के परिणामों तक कई भाजपाई नेता कांग्रेस में आने का इंतजार कर सकते हैं.
गुजरात के पाटीदार पुलिस कार्रवाई से काफी आहत हैं. आरक्षण नहीं मिलने की वजह से वे गुस्से में भी हैं. फिर भी गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी आनेवाले दिनों में नेतृत्व परिवर्तन कर किसी पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय यदि शाह को श्रीमती आनंदीबेन का अनुगामी बनाते हैं, तो पाटीदारों का ही नहीं, संघ परिवार का अंदरूनी विरोध भी भड़केगा.
तोगड़िया अब मूकदर्शक नहीं रहेंगे. वैसे भी उन्होंने सरकारी आंकड़ों के आधार पर गुजरात मॉडल का हौवा निकम्मा होने का प्रचार तो शुरू कर दिया है. तोगड़िया सीधे मोदी से भिड़ नहीं सकते, तो भी गुजरात मॉडल के माध्यम से मोदी व भाजपा का चीरहरण जरूर कर सकते हैं.
बिहार चुनाव के दौरान आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के आरक्षण विषयक बयान ने भाजपा को काफी नुकसान पहुंचाया. अत: संघ व साथी संगठन नये सिरे से अपनी भूमिका का चिंतन शुरू करेंगे. वैसे भागवत ने जो भूमिका रखी, वह संघ की संसद-प्रतिनिधि सभा का ही मत है. संघ की स्थापना हिंदू हित व हिंदू संगठन के लिए की गयी थी. बदलती स्थिति में संघ के कार्यकर्ता विभिन्न दलों में प्रवेश कर अपना प्रभाव विस्तारित कर सकते हैं.
ऐसे में कांग्रेस से कुछ स्वयंसेवकों का जुड़ना और तोगड़ि व झड़फिया का उन्हें सहयोग देना अकारण नहीं दिखता. एक ही बास्केट में सभी अंडे रखने के जोखिम के बजाय संघ अपने प्रभाव को विस्तारित करने के लिए विभिन्न दलों में अपने स्वयंसेवकों को सक्रिय करने के बारे में सोच सकता है. बिहार चुनाव में भाजपा की करारी हार के दूसरे ही दिन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की सरसंघचालक भागवत से भेंट के संकेत स्पष्ट हैं.
मौजूदा समय में गुजरात में आयाराम-गयाराम का दौर फिर शुरू हो चुका है. नवंबर, 2015 के निकाय चुनावों के नतीजे दो दिसंबर को क्या निकलते हैं, 2016-17 की गुजरात की राजनीतिक स्थिति बहुत कुछ उस पर निर्भर होगी. 2017 में विधानसभा चुनाव भी होना है.
बिहार के कटु अनुभव के बाद भाजपा व संघ का नेतृत्व किस प्रकार आत्मचिंतन कर स्थिति को बदलाव की ओर ले जा रहा है, उस पर मोदी व भाजपा की प्रयोगशाला बने गुजरात का भविष्य निर्भर करता है. इस बीच इतना तय है कि गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन जरूर होगा. उसकी नौबत कब आयेगी, बहुत कुछ पालिका व अन्य निकाय चुनावों के नतीजों पर निर्भर है.
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