संविधान का वादा देश के हर नागरिक को अवसर की समानता प्रदान करना है. सामाजिक धरातल पर जाति, धर्म, लिंग आदि के भेद अवसर की समानता पाने में बाधा बनते हैं, इस बात को जिस व्यापकता के साथ स्वीकारा जाता है उस व्यापकता से यह नहीं माना जाता कि जन्मगत या दुर्घटनाजनित देहगत अक्षमता भी अवसर की समानता को साकार करने में एक बड़ी बाधा है.
2001 की जनगणना में कहा गया था कि देश में विकलांग व्यक्तियों की तादाद कुल आबादी का 2.1 फीसदी है, जबकि 11वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में कहा गया है कि देश में विकलांग व्यक्तियों की तादाद कुल आबादी का 5 से 6 फीसदी है. पिछली जनगणना में भारत में विकलांगता–दर का आकलन करते हुए कहा गया कि प्रति एक लाख आबादी में 2130 व्यक्ति विकलांग हैं.
इस दर को आधार मानें तो भारत में विकलांग व्यक्तियों की तादाद 10 करोड़ के आसपास है. इसमें एक बड़ी संख्या बच्चों की है, जिन्हें देश का भावी कर्णधार कहा जाता है. विकलांगों की इतनी बड़ी तादाद को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरियों में इन्हें 3 फीसदी आरक्षण देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश की इस दूसरी सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी को समानता के सिद्धांत के तहत इंसाफ देनेवाला कदम है.
परंतु, इतने भर से यह नहीं मान लेना चाहिए कि देश की इस आबादी के लिए गरिमापूर्वक जीवन जीने की राह खुल गयी, खास कर यह देखते हुए कि सरकारी नौकरियों की संख्या हाल के सालों में घटी है, साथ ही भारत की श्रमशक्ति की सर्वाधिक संख्या (93 फीसदी) अनियोजित क्षेत्र में काम करती है, जहां आरक्षण लागू नहीं होता. विकलांग व्यक्तियों के प्रति मौजूद व्यवस्थागत पूर्वग्रह को भी लक्ष्य किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके सशक्तीकरण के लिए 1995 से ही एक विशेष कानून लागू है, परंतु कोर्ट ने अफसोस के स्वर में माना है कि इस कानून का फायदा विकलांग व्यक्तियों को नहीं मिला है.
जरूरत शारीरिक अक्षमता ग्रस्त व्यक्तियों के प्रति समाज–दृष्टि बदलने की है, उनकी क्षमता पर विश्वास करते हुए भौतिक और मानसिक धरातल पर हर किस्म की सुविधा प्रदान करने की भी है. इस सिलसिले में नौकरियों में आरक्षण एक जरूरी कदम है, लेकिन पर्याप्त नहीं.