मैं हिंदी हूं. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी. लेकिन यह सिर्फ कहने के लिए ही है बस! इस देश में वास्तव में मैं बाजार की भाषा हूं, गर्व की नहीं. दरअसल, मैं गरीबों-अनपढ़ों की भाषा बन कर रह गयी हूं. भारतीय संस्कृति की संवाहिका, प्रवाहमयी भाषा, सदियों से ज्ञान की धरती को सींचती, साहित्य, लोक भाषा के रूप में समाज को ऊर्वर करती प्रवाहमान भाषा हूं मैं. बेशक मैं गरीबों, अनपढ़ों की सादगी और सत्यता में पनाह लेती हूं, उनके द्वारा संजोयी जाती हूं पर मैं अमीरों, प्रबुद्घजनों की जबान में भी निर्बाध, निर्विघ्न प्रवाहित होने की अनिवार्यता और स्वाभाविकता रखती हूं.
मानती हूं कि संपूर्ण विश्व के 50 करोड़ लोगों द्वारा व हिंदुस्तान के अतिरिक्त 20 अन्य देशों में तथा विश्व की भाषाओं में मुझे पांचवां स्थान दिया गया है, परंतु भारत के कुछ भौगोलिक क्षेत्रों को प्रत्यक्षत: मैं सिंचित नहीं कर पाती. यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात मुङो पूरा मान-सम्मान मिला होता और अंगरेजी की जगह मजबूती से मुङो स्थापित कर दिया जाता, तो मैं अपने दम पर वर्तमान में देश की बहुत सारी समस्याओं को सुलझा देती, पर ऐसा नहीं हो सका.
आज स्कूल कॉलेजों में अंगरेजी तो लोकप्रिय बन ही चुकी है, देश भर के तथाकथित आधुनिक कहे जानेवाले स्कूलों में फ्रेंच और स्पैनिश भाषाओं की पढ़ाई करायी जाने लगी है. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब लोग मुङो उपेक्षित कर अन्य भाषाओं को आत्मसात करते हैं. अतिरिक्त भाषाओं का ज्ञान रखना व बोलना, व्यवहार में लाना गलत नहीं है पर पूरी तरह उसी को अपना लेना हास्यास्पद है, यह जानते हुए भी कि हिंदी की आत्मा सभी भाषाओं में है.
रितेश कुमार दुबे, कतरास