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सौ साल बाद ‘उसने कहा था’
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार हमारे समय में प्रत्येक व्यक्ति को (नेताओं को विशेष) यह कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए, क्योंकि हमने एक-दूसरे का भरोसा खो दिया है. ‘उसने कहा था’ कहानी में वचन-रक्षा है. विश्वास का निर्वाह है. जीवन की रक्षा का सवाल है. सौ वर्ष पहले जून 2015 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
हमारे समय में प्रत्येक व्यक्ति को (नेताओं को विशेष) यह कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए, क्योंकि हमने एक-दूसरे का भरोसा खो दिया है. ‘उसने कहा था’ कहानी में वचन-रक्षा है. विश्वास का निर्वाह है. जीवन की रक्षा का सवाल है.
सौ वर्ष पहले जून 2015 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ अविस्मरणीय, अद्वितीय और कालजयी क्यों है? क्यों बार-बार पढ़ने के बाद भी इस कहानी का जादू सर से नहीं उतरता? हमारी स्मृति में यह कहानी क्यों बार-बार गूंजती है?
क्यों हम बार-बार स्वेच्छा से इस कहानी का पुन: पाठ करते हैं और हर बार यह अहसास होता है कि अब भी कुछ छूट गया है? इस कहानी पर कम नहीं लिखा गया है और प्रकाशन की शतवार्षिकी पर जो कुछ लेख-विचार सामने आये हैं, उनमें भी कुछ छूट गया-सा दिखायी देता है.
नामवर सिंह ने इस कहानी पर दिये अपने एक व्याख्यान में कहा है ‘अब आप सबसे उम्मीद है कि ऐसा एक लेख लिखें, जिससे लगे कि ‘उसने कहा था’ पर अभी भी गुंजाइश है विचार करने की.’ (पक्षधर, जुलाई-दिसंबर, 2014)फिलहाल इस कहानी के उन कुछ बिंदुओं पर विचार जरूरी है, जिन पर कथालोचकों का ध्यान नहीं गया है. कहानी के आरंभ में, पहले पैराग्राफ में गुलेरी जी ने ‘बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान’ की बात कही है.
यह ‘जबान’ ही सबकुछ है. ‘बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान’ और ‘अमृतसर में बंबू कार्ट वालों’ की जबान में अंतर है. कहानी में किसी बड़े शहर और छोटे शहर के नामों का जिक्र नहीं है. बड़े शहरों में चौड़ी सड़कें हैं और छोटे शहरों में तंग गलियां हैं. उस समय बड़े शहर लाहौर और दिल्ली थे. बड़े शहरों के तांगेवाले की जबान गंदी है और छोटे शहरों के तांगेवालों की जबान प्यारी है. कहानी में इन दोनों के उदाहरण हैं.
इन दोनों शहरों के इक्केवालों की जबान की भिन्नता का राज क्या है? चौड़ी सड़क वाले शहरों के बाशिंदों में गलियों वाले शहरों के बाशिंदों की तुलना में एक बड़प्पन का बोध और अहसास होता है. सड़कों के चौड़ीकरण और शहरों के सौंदर्यीकरण से आत्मीय संबंध विकसित नहीं होते- ‘स्मार्ट सिटी’ के निवासी अन्य शहरों के निवासियों से क्या अपने को भिनA और विशिष्ट नहीं समङोंगे? यह प्रभाव सामान्यजनों पर भी पड़ता है.
‘उसने कहा था’ कहानी के पात्र बड़े शहरों के नहीं हैं. कहानी के आरंभ में आठ वर्ष की एक लड़की और बारह वर्ष के एक लड़के की भेंट साधारण दुकान पर होती है. दोनों सामान्य परिवारों से हैं. दोनों अपने ननिहाल आये हैं- मामा के यहां. चौक की एक दुकान पर ये दोनों मिलते हैं.
लड़का ‘अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह (लड़की) रसोई के लिए बड़ियां.’ पूरी कहानी संवादों में कही गयी है. पहली जिज्ञासा लड़की थी – ‘तेरा घर कहां है?’ नाम नहीं, ‘घर’ का पूछना अर्थवान है. व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण है परिवार, स्थान, घर के सभी सदस्य. अपनी पहचान से ज्यादा अर्थपूर्ण है – घर की पहचान. चार शब्दों के इस वाक्य का उत्तर दो शब्द में है ‘मगरे में’- फिर दो शब्दों की जिज्ञासा ‘और तेरे’ आत्मीय परिचय के बाद लड़के-लड़की लगभग महीने भर एक-दूसरे से मिलते हैं- ‘दूसरे-तीसरे दिन सब्जी वाले के यहां, या दूध वाले के यहां. अकस्मात् दोनों मिल जाते.’ लड़का शरारती है. वह लड़की को चिढ़ाता है- ‘तेरी कुड़माई हो गयी?’ फिर चार शब्द! उत्तर केवल ‘धत’. हिंदी की दो कहानियों में दो लफ्ज ‘धत’ और ‘इस्स’ (रेणु की ‘तीसरी कसम’) अलग से विस्तार से हमें सोचने को विवश करते हैं, जो साधारण शब्द नहीं हैं. इस ‘धत’ का अपना एक अलग सौंदर्य है- ध्वनि-सौंदर्य, लज्जा-सौंदर्य, प्रेम-सौंदर्य.
अचानक एक दिन लड़की-लड़के की संभावना के विरुद्ध -‘हां, हो गयी’ कह कर प्रमाण-स्वरूप ‘रेशम में कढ़ा हुआ साल’ दिखाती है. कहानीकार ने लड़के पर हुई प्रतिक्रिया का चित्र उसकी क्रियाओं से खींचा है. अप्रत्याशित उत्तर सुन कर लड़के को दुख और क्रोध क्यों हुआ? क्यों उसने एक लड़के को मोरी में ढकेला, छाबड़ीवाले की दिन भर की कमाई खत्म की, एक कुत्ते पर पत्थर मारा, एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेला और नहा कर आती हुई वैष्णवी से टकराया?
पांच खंडों में लिखी गयी इस कहानी को दूसरे, तीसरे और चौथे खंड का पहले खंड से संबंध का पता पांचवें खंड में चलता है. दूसरे अध्याय में पाठक का प्रवेश एक दूसरे स्थल से होता है.
प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ के कुछ समय बाद ही गुलेरी जी ने यह कहानी लिखी. यह कहानी भरोसे और विश्वास की है. पच्चीस वर्ष बाद भी सूबेदारनी बचपन के उन दृश्यों को नहीं भूलती, जो उसकी स्मृतियों में रची-बसी है. लड़का सयान होकार फौज में भरती हो चुका है. अब वह जमादार लहना सिंह है. बचपन में उसने जिस लड़की को तांगे के घोड़ों की लातों में आने से बचाया था, वह लड़की अब सूबेदारनी है. सूबेदार हजारा सिंह की पत्नी.
कहानी में पच्चीस वर्ष का अंतराल है. 1914 के विश्वयुद्ध में लहना सिंह की उम्र 37 वर्ष है. स्मृति में पच्चीस वर्ष पहले का समय है – उन्नीसवीं सदी के नौंवे दशक का अंत या अंतिम दशक का आरंभ. भारत की ब्रिटिश सरकार को पंजाब आर्मी पर भरोसा था. सूबेदारनी को लहना सिंह पर भरोसा था. सूबेदार हजारा सिंह ने जमादार लहना सिंह को अपने घर होते हुए लाम पर साथ चलने को खत लिखा था. आने पर बताया था कि सूबेदारनी उसे जानती है.
‘बुलाता है- जा मिल आ’. लहना सिंह चौंकता है- दरवाजे पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहता है सूबेदारनी की ‘असीस’ सुनता है. नहीं पहचानने पर सूबेदारनी पच्चीस वर्ष पहले के समय में, स्मृति में उसे ले जाती है. पति हजारा सिंह और बेटे वजीरा सिंह दोनों के प्राण बचाने की कहती है- ‘यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं.’उसे लहना सिंह पर विश्वास है.
हमारे समय में प्रत्येक व्यक्ति को (नेताओं को विशेष) यह कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए, क्योंकि हमने एक-दूसरे का भरोसा खो दिया है. ‘उसने कहा था’ कहानी में वचन-रक्षा है. विश्वास का निर्वाह है. जीवन की रक्षा का सवाल है. यह कहानी युद्ध, घृणा, अविश्वास के खिलाफ है.
शीर्षक में ‘चुंबकीय आकर्षण है. ‘उसने कहा था’ में जो जिज्ञासा-भाव है, वह कम कथा-शीर्षकों में है. किसने कहा था? किससे कहा था? क्या-कब-क्यों कहा था? एक साथ व्यक्ति, विषय, स्थान, सबकुछ!
देवीशंकर अवस्थी जैसे कथालोचक ने ‘कहानी विविधा’ में इस कहानी को संकलित करते हुए वह गीत हटा दिया है जिसे ‘ईल’ कहा जाता है. कहानी में विपुल संख्या में मुहावरों का प्रयोग है.
सूबेदार हजारा सिंह ने कहानी में बड़े अफसरों के दूर की सोचने की बात कही है. ‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते.’ जमादार लहना सिंह के कारण ही सबकी जान बचती है. छोटे शहर के तांगेवाले, जमादार में ही मनुष्यता, सूझ-बूझ कायम है. इन बिंदुओं पर ध्यान दिये बिना सौ वर्ष बाद हम ‘उसने कहा था’ का सुसंगत पाठ नहीं कर सकते.
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