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मैक्सिमम गवर्नेस का ठीक उल्टा
पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक अच्छे शासन के लिए संकीर्ण व पक्षपाती उद्देश्यों से आगे जाने की आवश्यकता होती है. नारेबाजी और आकर्षक नारे कभी-कभी चुनाव जिता सकते हैं, लेकिन शासन कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है. ‘घर वापसी’, गोडसे को ‘शहीद’ बनाने की कोशिश, हिंदू औरतों को चार बच्चे पैदा करने का […]
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
अच्छे शासन के लिए संकीर्ण व पक्षपाती उद्देश्यों से आगे जाने की आवश्यकता होती है. नारेबाजी और आकर्षक नारे कभी-कभी चुनाव जिता सकते हैं, लेकिन शासन कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है.
‘घर वापसी’, गोडसे को ‘शहीद’ बनाने की कोशिश, हिंदू औरतों को चार बच्चे पैदा करने का आह्वान, ‘लव जिहाद’ का मनगढ़ंत मुद्दा और हिंदुत्व के उकसावे से भारत की शानदार विविधता को निरंतर तोड़ने के प्रयासों के बीच शासन बिखर गया है.
पिछले मई में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार ने अपनी कार्यशैली के प्रतीक रूप में एक आकर्षक नारा गढ़ा था- मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस. परंतु, इस बात के अनेक सबूत हैं, जो देश को दिखाई दे रहा है, कि वह ठीक इसके विपरीत है- मैक्सिमम गवर्नमेंट, मिनिमम गवर्नेस.
जिनसे सरकार का कोई सरोकार नहीं है या जो शासन की प्राथमिकता में नहीं हैं, उन मामलों से सरकार के निष्क्रिय हाथ वापस खींचने के बजाय राज्यों की भाजपा सरकारें, केंद्र सरकार का अनुसरण करते हुए, उन मसलों में भी अपनी नाक घुसेड़ रही हैं, जिनसे उनका कोई सीधा मतलब नहीं है. भारत के लोगों को अब यह बताया जा रहा है कि उन्हें क्या खाना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, क्या पढ़ना चाहिए और क्या देखना चाहिए.
जहां महाराष्ट्र ने कानूनी पहलुओं पर सावधानी से गौर किये बिना गोमांस पर प्रतिबंध लगा दिया है, वहीं हरियाणा की सरकार गीता को सभी विद्यालयों में अनिवार्य करना चाह रही है और गुजरात ने दीनानाथ बत्र की किताब को स्कूली बच्चों के लिए पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार्य किया है.
इन अनुचित हस्तक्षेप और अतिक्रमण के पीछे संघ परिवार द्वारा सरकारी तंत्र का प्रयोग कर भारत के भगवाकरण का स्पष्ट निश्चय है. इसका दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ है कि शासन, यहां तक कि साधारण मामलों में, इस प्राथमिक लक्ष्य का अनुगामी हो गया है. महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन भाजपा सरकार अपनी सारी ऊर्जा इस बात पर खर्च कर रही है कि राज्य के मल्टीप्लेक्सों में शाम में मराठी फिल्में दिखाई जायें.
शासन का एजेंडा केंद्र में अवांछित केंद्रीकरण के कारण भी तितर-बितर हो गया है. कुछ रिपोर्टो के अनुसार, प्रधानमंत्री कार्यालय में करीब छह हजार फाइलें लंबित पड़ी हैं. इनमें नीतिगत निर्णय से जुड़ी फाइलें भी हैं और रोजमर्रा के मामलों की भी. आउटलुक पत्रिका के मुताबिक, संयुक्त सचिवों और निदेशकों के 67 पद खाली पड़े हैं. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद जैसे महत्वपूर्ण संस्थाओं में प्रमुख नहीं हैं.
सरकार लोकपाल, मुख्य सतर्कता आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त नहीं कर सकी है. मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति में ‘सुधार’ किया गया है, ताकि गृह मंत्री को महत्वहीन किया जा सके. सभी निर्णयों को प्रधानमंत्री के हाथों में निहित कर दिया गया है और वे अपनी विदेश यात्रओं की वजह से व्यस्त हैं.
शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है, जो ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट, मिनिमम गवर्नेस के उलटे सिद्धांत को बेहतरीन तरीके से प्रदर्शित करता है. सबसे पहले क्रिसमस के दिन ‘गुड गवर्नेस दिवस’ मनाने का बिल्कुल बेमानी विवाद उठा, जो ईसाइयों का सबसे महत्वपूर्ण उत्सव और एक राष्ट्रीय अवकाश है.
फिर मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) जैसे प्रमुख संस्थाओं के अपने पाठ्यक्रम तैयार करने के अधिकार पर सवाल खड़ा करते हुए और उनमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के हस्तक्षेप की वकालत करते हुए उनकी स्वायत्तता और कार्यप्रणाली को सीमित करने का निर्णय लिया. मानव संसाधन मंत्री से गंभीर मतभेदों की रिपोर्टो के कारण दिल्ली स्थित आइआइटी के निदेशक आर शेवगांवकर ने दिसंबर, 2014 में इस्तीफा देने का फैसला किया.
दो महीने बाद प्रख्यात वैज्ञानिक अनिल काकोदकर ने आइआइटी गवर्नरों के बोर्ड के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया. रिपोर्टो में कहा गया कि मुद्दा यह था कि मानव संसाधन मंत्री फरवरी में आइआइटी निदेशकों के चयन को निरस्त करने पर अड़ी हुई थीं और इस प्रक्रिया को नये सिरे से शुरू करना चाहती थीं. हालांकि बाद में काकोदकर ने संकोच के साथ इस्तीफा वापस ले लिया था. उन्होंने सार्वजनिक रूप से साफ शब्दों में कहा कि ‘चयन एक गंभीर प्रक्रिया होनी चाहिए.
आप एक दिन में 36 लोगों से बात कर चयन नहीं कर सकते हैं’. उन्होंने खोज-सह-चयन समिति में हिस्सा नहीं लिया, और आखिरकार संभावित 12 उम्मीदवारों के पैनल को खारिज कर दिया गया. बहरहाल, इन बेमानी खींच-तान के बीच 12 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति नहीं हैं, और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद जैसे महत्वपूर्ण संस्था में प्रमुख का पद खाली है.
ऐसी खबरें भी सामने आयी हैं कि वरिष्ठ अधिकारी मंत्रालय छोड़ कर जा रहे हैं, जो ऐसे माहौल का हिस्सा नहीं होना चाहते हैं, जहां काम कम हो और हस्तक्षेप तथा अविश्वास बहुत ही ज्यादा हो.
अब स्मृति ईरानी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह को कारण बताओ नोटिस भेजा है. एक संयुक्त सचिव के हस्ताक्षर के साथ 17 मार्च, 2015 की इस नोटिस में कई तरह की अनियमितताओं की सूची दी गयी है, और रुखाई से पूछा गया है कि उन्हें पद से क्यों नहीं बर्खास्त कर दिया जाये. प्रोफेसर सिंह अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गणितज्ञ और शिक्षाविद हैं.
न्याय के सिद्धांत के विपरीत उन्हें इस सख्त नोटिस से पूर्व अपना पक्ष रखने का कोई मौका नहीं दिया गया, जो मंत्रालय की कार्यशैली का एक साफ नमूना है. कुलपति ने सभी आरोपों को झूठा तथा तथ्यों व कानून के उलट करार देते हुए खारिज कर दिया है, और अपने दावों के पक्ष में विस्तार से जवाब दिया है. एक बड़ा विवाद बहुत जल्दी हमारे सामने आनेवाला है.
अगर मौजूदा सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे पुराने व स्थापित संस्थानों के प्रमुखों के साथ ऐसा व्यवहार कर रही है, तो यह सोचना रोंगटे खड़ा कर देता है कि अन्य संस्थाओं के प्रमुखों की स्थिति क्या होगी, जब वे इस ‘मैक्सिमम गवर्नेस’ के इस रूप का सामना करेंगे.
अच्छे शासन के लिए परिपक्वता, फोकस, उचित प्राथमिकताओं और संकीर्ण व पक्षपाती उद्देश्यों से आगे जाने की योग्यता की आवश्यकता होती है. नारेबाजी और आकर्षक नारे कभी-कभी चुनाव जिता सकते हैं, लेकिन शासन कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है.
‘घर वापसी’, गोडसे को ‘शहीद’ बनाने की कोशिश, हिंदू औरतों को कम-से-कम चार बच्चे पैदा करने के आह्वान, ‘लव जिहाद’ का मनगढ़ंत मुद्दा और हिंदुत्व के उकसावे से भारत की शानदार विविधता को निरंतर तोड़ने के प्रयासों के बीच शासन बिखर गया है. अब सिर्फ अच्छे शब्दों से गढ़े नारे ही बचे हैं.
(अनुवाद- अरविंद कुमार यादव)
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