इस प्रकरण ने देश को यह अवसर दिया है कि हम जासूसी संस्थाओं की प्रकृति, उनके दुरुपयोग, पारदर्शिता, गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करने के नियमों आदि मसलों पर अर्थपूर्ण बहस करें तथा इनके संबंध में समुचित निष्कर्ष निकालें.
गुप्तचर विभाग हमेशा से ही हर तरह की सत्ता और सरकारों का अहम हिस्सा रहा है. सिद्धांतत: ऐसी संस्थाओं का काम शासन और जनता की सुरक्षा में सहयोग करना होता है, पर अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि सरकारें राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए इनका दुरुपयोग भी करती हैं. सरकारें बहुधा आत्मविश्वास की कमी और संशय के कारण अपने वास्तविक, संभावित और कल्पित विरोधियों की जासूसी कराती हैं.
महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की जासूसी कराये जाने के प्रकरण को इस संदर्भ में देखा जा सकता है. जिस तरह से बोस प्रकरण को भाजपा और कांग्रेस के बीच वाक्युद्ध तथा मीडिया गॉसिप तक सीमित कर दिया गया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है. सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू ने बरसों कंधे से कंधा मिला कर आजादी की लड़ाई लड़ी. कांग्रेस के भीतर समाजवादी खेमे का नेतृत्व इन दोनों के पास ही था तथा आंदोलन की दशा-दिशा तय करने में इनकी अग्रणी भूमिका रही थी.
वर्ष 1939 में रणनीति पर मतभेद और अलगाव के बावजूद दोनों एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना रखते थे. आजाद हिंद फौज के बहादुर सेनानियों पर जब अंगरेजी सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा चलाया, तो नेहरू ने बहैसियत वकील उनके बचाव के लिए खड़े हुए थे. आजादी के बाद सुभाषचंद्र बोस के लड़ाकों को पूरे आदर के साथ न सिर्फ रिहा किया गया, बल्कि संघर्ष का अनन्य योद्धा भी माना गया.
लड़ाई के दौरान कांग्रेस के अनेक आर्थिक विचारों को नेहरू और बोस ने मिलकर तैयार किया था, जो बाद में राष्ट्रीय नीतियां बनीं. जहां तक ब्रिटिश गुपतचरों के साथ भारतीय इंटेलिजेंस की सूचनाओं के साझा करने की बात है, उसे जासूसी जगत की मूलभूत कार्यप्रणाली से समझा जा सकता था कि वहां सूचनाओं का ‘आदान-प्रदान’ नहीं, बल्कि उनका ‘लेन-देन’ होता है.
मौजूदा प्रकरण को नेहरू सरकार के रवैये तथा 1945 में विमान दुर्घटना से जुड़ी रहस्यात्मकता के साथ देखने के साथ-साथ गुप्तचर संस्थाओं की कार्यशैली, प्रासंगिकता और उनके उद्देश्य से संबंधित सवालों पर भी विचार किया जाना चाहिए. दुनिया की कई सरकारों की गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करनेवाले जुलियन असांज के अनुसार, इंटेलिजेंस एजेंसियां अपनी कारगुजारियों को छुपा कर रखती हैं, क्योंकि वे कानून या अच्छे व्यवहार के मानदंडों के विपरीत होती हैं.
एडवर्ड स्नोडेन के हालिया खुलासों से पता चला है कि अमेरिकी इंटेलिजेंस संस्थाएं अमेरिकी नागरिकों समेत दूसरे देशों के नेताओं की जासूसी बड़े पैमाने पर कर रही हैं. भारत सरकार भी कुछ सालों से नेशनल साइबर कोऑर्डिनेशन सेंटर स्थापित करने पर विचार कर रही है, जो नागरिकों के इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल संचार की निगरानी तथा विभिन्न इंटेलिजेंस एजेंसियों के बीच समन्वय का काम करेगी.
इसे परियोजना के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसका कानूनी आधार नहीं है. जहां तक गोपनीय दस्तावेजों की बात है, पश्चिमी देशों में उन्हें 30 से 50 साल के बाद सार्वजनिक करने का नियम है, पर भारत में इस संबंध में कोई स्पष्ट नीति नहीं है. ऐसे में कुछ चुनिंदा सूचनाएं जारी होने से भ्रामक स्थिति पैदा होने की आशंका भी होती है. मौलाना आजाद की किताब के अंश वर्षो तक गोपनीय रखे गये थे. बोस की विमान दुर्घटना और कथित मृत्यु या लापता होने से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने की मांग लंबे समय से की जाती रही है, पर केंद्र में बनी सरकारों, चाहे वे किसी दल या गंठबंधन की हों, ने ऐसा नहीं किया. इस कारण कुछ तत्वों को मौजूदा प्रकरण को सनसनीखेज बनाने का मौका मिल गया है.
अब शहीदे-आजम भगत सिंह के परिजनों ने भी आरोप लगाया है कि दशकों से उनकी जासूसी की जाती रही है. ऐसे में इस प्रकरण ने देश को अवसर दिया है कि हम जासूसी संस्थाओं की प्रकृति, उपयोग, पारदर्शिता, गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करने के नियमों आदि मसलों पर अर्थपूर्ण बहस करें तथा इनके संबंध में समुचित निष्कर्ष निकालें.
हमारे समकालीन इतिहास की कई परतें खुरचे जाने तथा कई गिरहें खोले जाने के इंतजार में हैं. आधी-अधूरी सूचनाओं और उन पर आधारित मनमाने विश्लेषणों से इतिहास और महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों के बारे में समझ बढ़ाने की जगह नकारात्मक वातावरण ही बनेगा, जो ठीक नहीं है.