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भगत सिंह-लोहिया के सांचे में ढलने का वक्त

भगत सिंह की तुलना में लोहिया अपेक्षाकृत भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के महारथी आज भी नाममात्र को उनका स्मरण कर चुनावी रणक्षेत्र में पदार्पण करते हैं! लेकिन, भगत सिंह की तरह उन्हें भी श्रद्धा सुमन चढ़ा कर इतिश्री हो जाती है. 23 मार्च का दिन भारतवासियों के लिए यादगार होना चाहिए, लेकिन […]

भगत सिंह की तुलना में लोहिया अपेक्षाकृत भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के महारथी आज भी नाममात्र को उनका स्मरण कर चुनावी रणक्षेत्र में पदार्पण करते हैं! लेकिन, भगत सिंह की तरह उन्हें भी श्रद्धा सुमन चढ़ा कर इतिश्री हो जाती है.
23 मार्च का दिन भारतवासियों के लिए यादगार होना चाहिए, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि आज की पीढ़ी को यह बताने की जरूरत महसूस होने लगी है कि इस तिथि की खासियत क्या है? यह दिन है भगतसिंह की शहादत का और इसी दिन संयोगवश जन्म हुआ था डॉ राममनोहर लोहिया का. स्कूल का मुंह देख चुका शायद ही कोई किशोर होगा, जिसके लिए ये नाम अजनबी होंगे.
देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेते वक्त अपने प्राण न्यौछावर करनेवालों में शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह का चेहरा एक पीढ़ी पहले तक तकरीबन हर घर की दीवार की शोभा बढ़ाता था. कुछ बरस पहले बनी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने जाने कितनी भूली-बिसरी यादें ताजा करा दी थीं! यह हमारा दुर्भाग्य है कि नेहरू वंश के आधिपत्य वाले कुनबापरस्त जनतंत्र में स्वाधीनता संग्राम का इतिहास लेखन बुरी तरह असंतुलित और पक्षधरता से प्रदूषित रहा है. भगत सिंह और उनके साथियों को कभी ‘आतंकवादी’ तो कभी ‘क्रांतिकारी’ का लेबल चस्पां कर पेश किया जाता रहा है, तो कभी इस छवि पर रोमानी मुलम्मा चढ़ाया जाता है. अधेड़ नेहरू को युवा हृदय सम्राट के सिंहासन पर बैठाने की उतावली में भगत सिंह और उनके साथियों की विधिवत अवहेलना सरकारपरस्त इतिहासकारों द्वारा की जाती रही है. भगत सिंह की बौद्धिक-वैचारिक विरासत वाला अध्याय हमारे नौजवानों के लिए अनजाना है. भगत सिंह ने मार्क्‍सवाद और इससे इतर समाजवाद का गहरा अध्ययन किया था, यूरोपीय इतिहास के उतार-चढ़ाव की अच्छी जानकारी भगत सिंह को थी. यह सुझाना तर्कसंगत है कि यदि भगत सिंह जीवित रहते, तो गांधी के सत्याग्रह के बारे में वह भी अनुशासित तरीके से मनन-चिंतन करते और इसे अपने समन्वयात्मक तरीके से भारत के हालात के अनुसार इस्तेमाल करने की कोशिश करते.
यह बात कम लोगों को याद रही है कि फांसी के तख्ते पर चढ़ने के पहले भगत सिंह ने 114 दिन का अनशन इसलिए किया था कि जेल में हिंदुस्तानी एवं गैरहिंदुस्तानी राजनीतिक बंदियों के बीच भेदभाव नहीं किया जाये. भगत सिंह की समाजवादी-अहिंसक-समन्वयात्मक नेतृत्व क्षमता की उपेक्षा को साजिश ही कहा जाना चाहिए. यदि यह मक्कारी नहीं होती, तो आज भी किसी दो टकिया के क्रिकेट खिलाड़ी की जगह उन्हीं का चेहरा देशी नौजवानों का हरदिल अजीज होता!
डॉक्टर लोहिया का जन्म भगत सिंह के जन्म के तीन साल बाद हुआ था. उन्हें भी उसी पीढ़ी का माना जाना चाहिए. कभी वह नेहरू की आंखों के तारे और कांग्रेस पार्टी में उदीयमान नेता समङो जाते थे. पर कांग्रेस में नेहरू की ताजपोशी की सियासत ने उन्हें कांग्रेस के दूसरे समाजवादी विचारकों-कार्यकर्ताओं की तरह बाहर निकलने को मजबूर कर दिया. डॉ राममनोहर लोहिया को निरंतर यह दुष्प्रचार कर खारिज करने की कोशिश कांग्रेसियों ने की है कि उनका वैमनस्य नेहरू से व्यक्तिगत द्वेष के कारण था. हीनता की ग्रंथि से पीड़ित वह हर अवसर पर नेहरू को घेरने-कटघरे में खड़ा करने में जुटे रहते थे. हमारी समझ में आज इस मूर्खतापूर्ण आरोप का प्रतिकार करने की कोई जरूरत नहीं बची है.
अपने जीवनकाल में ही लोहिया और उनके साथी नेहरू की अंगरेजियत और अंगरेजपरस्ती के खतरे से देश को आगाह कर चुके थे. नागरिक के बुनियादी अधिकारों का हनन आजादी के तत्काल बाद नेहरू के कमोबेश निरंकुश शासनकाल में आरंभ हो चुका था. सिविल नाफरमानी का आह्वान बारंबार लोहिया ने किया. इस बात को रेखांकित करने की जरूरत है कि लोहिया भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उस खांटी विचारधारा और व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो नेहरू वाले औपनिवेशिक मानसिकताग्रस्त ध्रुव का विपरीत है. सामंती आभिजात्य से मुक्त और वास्तव में समता पोषक. गांव और शहर का रिश्ता हो, या औरत मर्द का; सवर्ण तथाकथित ऊंची जाति का द्वंद्व निचले-पिछड़े तबके से हो या बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के नाम पर सांप्रदायिकता के जहर का संक्रमण, लोहिया का चिंतन और कर्म नेहरू की सोच, कथनी और करनी के पाखंड तथा दोहरे मानदंडों का पर्दाफाश करनेवाला था.
अरसे से इस बात का ढोल पीटा जाता है कि नेहरू अकेले ऐसे हिंदुस्तानी थे, जिसे बाहर की दुनिया की खबर रहती थी. उनका विश्वदर्शन इतिहास के अनोखे ज्ञान से आलोकित था, दूरदर्शी था और इसलिए आंख मूंद कर शिरोधार्य करने लायक था, क्योंकि वह सर्वज्ञ थे. विज्ञान की पढ़ाई के दौरान नेहरू की उपलब्धियां साधारण ही कही जा सकती हैं और इतिहास का उनका ज्ञान मौलिक शोध पर आधारित नहीं था. ‘आत्मकथा’ हो या ‘भारत की खोज’ या फिर ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ सभी जगह यह बात साफ झलकती है. आजकल नेहरू के सपनों और सोच के भारत की चर्चा होती है. इसे ही भारत की असलियत और पारंपरिक पहचान-विरासत का प्रयाय माननेवाले मुखर विचारकों की कमी नहीं. इस सूची में रामचंद्र गुहा, सुनील खिलनानी, फरीद जकरिया, मणिशंकर अय्यर के साथ शशि थरूर को शामिल किया जाता है. सब-के-सब खुद नेहरू की ही तरह अंगरेजियत और अंगरेजी के मारे या उसी के पाले-पोसे हैं.
अब एक नजर फेरिये लोहिया की तरफ जिनका हठ भारत की मौलिक प्रतिभा को भारतीत भाषाओं से सींचने का था. जो खुद को बेहिचक कुजात गांधीवादी कहते थे और मार्क्‍सवाद को गोरों का अश्वेतों के खिलाफ आखिरी हथियार बतलाते थे. पाकिस्तान के सिलसिले में महासंघ की बात करते थे और भारत की असली प्रतिद्वंद्विता-स्पर्धा चीन के साथ मानते थे. लोहिया की राजनीति हमेशा प्रतिपक्ष की राजनीति रही और वह वंचित को ही वाणी देने के काम को अहमियत देते थे. धर्मनिरपेक्षता की मरीचिका से मुक्त होकर वह बेहिचक अपने साङो के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्तराधिकार पर गर्व करते थे. यही अद्भुत मौलिक समतापोषक सोच विदेश नीति और सीमांतवासी जनजातियों के संदर्भ में भी लोहिया के लेखन तथा भाषणों में मिलता है.
भगत सिंह की तुलना में शायद लोहिया अपेक्षाकृत भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के महारथी आज भी नाममात्र को उनका स्मरण कर चुनावी रणक्षेत्र में पदार्पण करते हैं! कड़वा सच यह है कि भगत सिंह की तरह उन्हें भी श्रद्धा सुमन चढ़ा कर इतिश्री हो जाती है. अब इस दिन की महत्ता को समझते हुए हमें इनके विचार व कर्म के सांचे में खुद को ढालने का संकल्प करने का वक्त आ गया है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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