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कौन फिक्र करता है किसानों की!

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफिक्री में ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी पर सोचने के बदले चार दिन पहले संसद ने इस पर मुहर लगा दी कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरनेवालों को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपये मिलेंगे. कौन किसानों […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफिक्री में ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी पर सोचने के बदले चार दिन पहले संसद ने इस पर मुहर लगा दी कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरनेवालों को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपये मिलेंगे.
कौन किसानों के हक में है, यह सवाल चाहे-अनचाहे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ने राजनीतिक दलों की सियासत तले खड़ा तो कर ही दिया है.
लेकिन, देश में किसान और खेती का जो सच है, उस दायरे में सिर्फ किसानों को सोचना ही नहीं, बल्कि किसानी छोड़ मजदूर बनना है और दो जून की रोटी के संघर्ष में जीवन खपाते हुए खुदकुशी कर मर जाना है.
यह सच ना तो भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में कहीं लिखा हुआ है और ना ही संसद में चर्चा के दौरान कोई कहने की हिम्मत दिखा रहा है. इसकी बड़ी वजह है कि 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से सत्ता में आये किसी भी राजनीतिक दल ने कभी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर कोई समझ दिखायी ही नहीं और हर सत्ताधारी विकास की चकाचौंध की उस धारा के साथ बह गया, जहां खेती खत्म होनी ही है. फिर संयोग ऐसा है कि 1991 के बाद से देश में कोई दल बचा भी नहीं है, जिसने केंद्र में सत्ता की मलाई न काटी हो.
वाजपेयी के दौर में 24 राजनीतिक दल थे. मनमोहन सिंह के दौर में डेढ़ दर्जन राजनीतिक दलों के एक साथ आने के बाद यूपीए की सरकार बनी.
अब पहली बार कोई गैरकांग्रेस पार्टी अपने बूते सत्ता में आयी, तो वह भी विकास के उसी दल-दल में चकाचौंध देखने लगी, जिसकी लकीर आवारा पूंजी के आसरे कभी मनमोहन सिंह ने खिंची थी. खेती को लेकर देश की अर्थव्यवस्था के पन्नों को अगर पलटें, तो 1947 में भारत कृषि प्रधान देश था. उस वक्त देश में 141 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर खेती होती थी. देश में 11 करोड़ किसान थे. साढ़े सात करोड़ खेतिहर मजदूर थे. 1991 में खेती 143 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर होने लगी. लेकिन किसानों की तादाद 11 करोड़ से घट कर 10 करोड़ हो गयी और खेतिहर मजदूर की तादाद बढ़ कर साढ़े नौ करोड़ पहुंच गयी.
1991 में आर्थिक सुधार की हवा बही और हर राजनीतिक दल ने सर्विस सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रर से लेकर उद्योगों के लिए खेती की जमीन हथियाने के जो नायाब प्रयोग शुरू किये, उसका असर 2014 तक पहुंचते-पहुंचते यह हो गया कि खेती की जमीन घट कर 139 मिलियन हेक्टेयर तक पहुंच गयी और किसान घट कर मात्र नौ करोड़ पर आ गये. जबकि, खेतिहर मजदूर की तादाद बढ़ कर 11 करोड़ हो गयी.
अब यहां से सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि हर राज्य में औद्योगिक विकास निगम बनाया गया. हर राज्य में औद्योगिक क्षेत्र की जमीन पर उद्योग लगाने के लिए बैंकों से कर्ज लिये गये. सिर्फ बीस फिसदी उद्योग ही उत्पादन दे पाये. बाकी बीमार होकर बैंको के कर्ज को चुकाने से भी बच गये. और देश को बीस लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हो गया.
लेकिन कोई सरकार ने कभी सवाल नहीं उठाया. जबकि इसी दौर में उन्ही उद्योगों की जमीन पर रियल स्टेट का धंधा पनपना शुरू हुआ. जो उद्योग बीमार हो चुके थे. रियल स्टेट के धंधे में पचास लाख करोड़ से ज्यादा की रकम सफेद और काले को मिला कर लगी. उसे रोकने के लिए किसी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया.
ध्यान दें, तो जिस सोशल इंडेक्स का जिक्र समाजवादी और वामपंथी हमेशा से करते रहे उनके सामने भी कोई दृष्टि है ही नहीं कि आखिर कैसे बाजार में बदल रहे भारत में उपभोक्ताओं की जेब देख कर विकास की बिसात ना बिछायी जाये या फिर उपभोक्ताओ की कमाई ज्यादा से ज्यादा कैसे हो, इसकी चिंता में कल्याणकारी राज्य को स्वाहा होने से रोका जाये. यानी सुप्रीम कोर्ट का वकील एक पेशी के लिए 20 से 50 लाख रुपये ले, तो भी सरकार को फर्क नहीं पड़ता और बिना इंश्योरेंस इलाज कराने कोई निजी अस्पताल में जाये, तो औसतन दो लाख से 10 लाख देने पड़ जायें, तो भी फर्क नहीं पड़ता.
यानी कोई शाइनिंग इंडिया में खोये, कोई एसआइजेड के नाम पर औद्योगिक विकास का नारा लगाने लगे, कोई किसानों की सब्सिडी खत्म कर किसानों को मुख्यधारा से जोड़ने की थ्योरी दे दे, कोई कॉरपोरेट को टैक्स में राहत देकर अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट टैक्स के बराबर होने का नारा लगाये, कोई उद्योगों को कई तरीके से टैक्स में राहत देकर किसानों की सब्सिडी से तीन गुना ज्यादा सब्सिडी की लकीर खींच दे, कोई इन सबका विरोध करते हुए सत्ता में आये और फिर वह भी उसी रास्ते पर चल पड़े, तो जनता करेगी क्या? यह सवाल संयोग से कांग्रेस विरोधी हर सत्ता के दौर में उभरा है और हर सत्ता की दिशा कांग्रेस के पीछे ही चल पड़ी है, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता.
मनमोहन सिंह के दौर में सेज के लाइंसेंस का बंदर-बांट किसे याद नहीं, लेकिन जितनी जमीन सेज के नाम पर ली गयी, उसका साठ फिसदी हिस्सा बिना उपयोग आज भी जस का तस है, लेकिन सरकार उस जमीन को मेक-इन इंडिया के लिए उपयोग में नहीं लाती है. बंजर जमीन का उपयोग कैसे हो कोई ब्लू-प्रिंट किसी सरकार के पास नहीं है. खेती की जमीन पर दिये जानेवाले चार गुना मुआवजे के बाद भी किसान की हालत औसतन 8-10 बरस बाद मजदूर से भी बदतर क्यों हो जाती है.
यह सवाल ऐसा है, जिसके जवाब में कोई सरकार नहीं फंसती. जबकि 1947 के बाद से खेती की जमीन पर तीन गुना बोझ बढ़ चुका है, लेकिन किसानी छोड़ किसी दूसरे रास्ते किसानों के बच्चे कैसे जायें, इसके लिए कोई ब्लू-प्रिंट कभी किसी सरकार ने नहीं दिया.
मौजूदा वक्त में किसानों के खातों तक सरकारी पैसा सीधे बिना बिचौलियों के कैसे पहुंचे, इसे ही उपलब्धि मान कर कोई अपनी पीठ ठोकने से नहीं चूक रहा. जबकि, संसद के भीतर ही नोबेल विजेता बांग्लादेश के मोहम्मद यूनुस ने ग्रामीण बैंक का पूरा पाठ हर सांसद को समझाया, जो बांग्लादेश की ग्रामीण अर्थवस्वस्था को पटरी पर ले आये थे.
उन्होंने भारतीय संसद में जब यह जानकारी दी कि अनुदान के जरिये गरीबी से नहीं निपटा जा सकता. दान से निर्भरता बढ़ती है और गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है. कर्ज से लोगों को आय के नये जरिये मिलते हैं और खासकर गरीब, अशिक्षित और महिलाओं को माइक्रोफाइनेंस के जरिये मुख्यधारा में लाया जा सकता है, तो सभी ने तालियां बजायी थीं.1991-92 में 60 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी, वह अब 40 फीसदी पर आ गयी है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि बांग्लादेश में 1990-91 में 3 करोड़ 60 लाख लोग भूखे थे, जो अब 2.62 करोड़ रह गये हैं. लेकिन भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफिक्री में ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी या फसल बर्बाद होने पर कोई मुआवजा दिया जाना चाहिए, इस पर सोचने के बदले चार दिन पहले संसद ने इस पर मुहर लगा दी कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरनेवालों को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपये मिलेंगे.

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