।। ब्रजेश कुमार सिंह ।।
– बाबर न सिर्फयुद्ध कला की तकनीक और प्रशासनिक व्यवस्था का बड़ा ज्ञाता था, बल्कि सामाजिक व्यवस्था और इतिहास की उसकी समझ भी जबरदस्त थी, जिसका उदाहरण बाबरनामा में देखने को मिलता है. भारतीय समाज की तत्कालीन परिस्थितियों के बारे में बाबर की जो राय थी, वो बाबरनामा के एक अध्याय का हिस्सा है. –
– मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है.
पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है.
शहूर शायर साहिर लुधियानवी का लिखा हुआ है ये गीत, जो दर्द भरी आवाज के लिए मशहूर गायक मुकेश ने गाया था. इस गाने को फिल्माया गया था अमिताभ बच्चन पर और फिल्म थी ‘कभी–कभी’, जो रिलीज हुई थी 1976 में. हालांकि साहिर को 1977 में श्रेष्ठ गीतकार और मुकेश को श्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर अवार्ड इसी फिल्म के दूसरे गाने ‘कभी–कभी मेरे दिल में ख्याल आता है’ के लिए मिला. नामांकित तो ये गाना भी हुआ था उस साल, उन दोनों ही श्रेणियों में, लेकिन‘कभी–कभी’ के टाइटल सांग ने बाजी मार ली इस गाने के ऊपर. बावजूद इसके करीब साढ़े तीन दशक बाद भी ये गाना भावनाओं की गहराई और जीवन की क्षणभंगुरता को समझाने के हिसाब से भारतीय सिनेमा के गानों में मील का पत्थर बन चुका है.
फिल्मकार यश चोपड़ा ने इस गाने को सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के ऊपर फिल्माया था, जो फिल्म में कवि के किरदार में हैं और कॉलेज में पढ़ाते हैं. ये गाना फिल्म में कई बार आया है, लेकिन पहली बार ये तब आता है, जब अमिताभ क्लासरूम में इसे गाते हुए नजर आते हैं.
आज न साहिर हमारे बीच हैं, न मुकेश और न ही यश चोपड़ा, सदी के महानायक जरूर हैं हमारे बीच. अब आप सोच रहे होंगे कि इस गाने में नया क्या हुआ, जो मैं इसकी इतनी विस्तृत चर्चा कर रहा हूं. दरअसल इस गाने में पल शब्द बार–बार आता है, शुरु आती दो पंक्तियों में ही आठ बार. हालांकि पल का इस्तेमाल सिर्फ इसी एक गाने में ही प्रमुखता से नहीं हुआ है, पल तो सैकड़ों और फिल्मों के संवाद और गानों में आया है.
मसलन ‘जॉनी मेरा नाम’ का गाना ‘पल भर के लिए कोई मुझे प्यार कर ले’. पल की तरह ही क्षण और घड़ी का इस्तेमाल भी फिल्मों के संवाद और गानों में होता है. कहीं किसी नायिका के लिए दो घड़ी का इंतजार भी भारी रहता है, तो किसी फिल्म में कोई नायक क्षण भर के लिए ही सही अपनी माशूका का चेहरा देख लेना चाहता है. भावनाओं के ज्वार बढ़ाने वाले शब्द हैं ये.
लेकिन कभी आपने सोचा है कि क्षण, पल या फिर घड़ी जैसे शब्दों का सच्चा अर्थ क्या है. ये तीनों एक ही अर्थ सामने रखते हैं या फिर अलग–अलग. इस सवाल को कुरेदते हुए पिछले दो दिनों में दो दर्जन से भी अधिक लोगों से चर्चा की. शायरों से लेकर हिंदी साहित्य के जानकारों से बात की, तो प्रेमियों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक से चर्चा की. चर्चा पुलिसियों से भी की और ज्योतिषियों से भी. आखिर एक पल कोई अपराधी जो गायब हो जाता है या फिर एक क्षण में सितारे जो बदल जाते हैं. यहां तक कि पंचांग देखने वाले कुछ पंडितों से भी बातचीत की, लग्न और मुहूर्त में पलों और घड़ियों की गणना बचपन से ही सुनते आ रहे हैं.
हालांकि इनमें से ज्यादातर की राय यही रही कि क्षण, पल या घड़ी, ये तीनों ही पर्यायवाची शब्द हैं और आज के दौर में समय की गणना की सामान्य तौर पर जो सबसे छोटी इकाई है, उस सेकेंड के पर्यायवाची हैं. हालांकि इनमें से कुछ को ये लगा कि क्षण और पल से ज्यादा समय का बोध घड़ी के इस्तेमाल से होता है, लेकिन कितना बड़ा किसी को पता नहीं.
इंटरनेट के प्रसार और अमूमन हर जानकारी के लिए गूगल पर लगातार बढ़ती जा रही निर्भरता के दौर में मैंने भी गूगल सर्च के हिंदी संस्करण को खंगाला. इसमें एक ही जगह पल और क्षण की चर्चा साफ तौर पर नजर आयी है, बीबीसी की वेबसाइट पर, एक श्रोता के सवाल के जवाब में. पहर के बारे में पूछे गये सवाल के संदर्भ में कहा गया है कि एक प्रहर कोई तीन घंटे का होता है. एक घंटे में लगभग दो घड़ी होती हैं, एक पल लगभग आधा मिनट के बराबर होता है और एक पल में चौबीस क्षण होते हैं.
सवाल ये उठता है कि आखिर शायरी से लेकर आम बोलचाल की भाषा में जब हम अमूमन पल, क्षण, घड़ी और पहर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, तो क्या हमें वाकई पता होता है कि इनका असली मतलब क्या है. नयी पौध की डिक्शनरी से तो अब ये शब्द भी धीरे–धीरे गायब होते जायेंगे, क्योंकि वो बचपन से सेकेंड नहीं, अब नैनो सेकेंड की चर्चा कर रहे हैं, उसमें भला पल, क्षण और घड़ी कब तक अपना वजूद बना कर रखेगी. और अगर इन शब्दों का इस्तेमाल हुआ भी, तो शायद शब्दार्थ पर जोर कम, भावार्थ पर ज्यादा जोर होगा. हां, पंचागों में इनका इस्तेमाल तब तक जारी रहेगा, जब तक कि समाज इतना बदल न जाये कि मुहूर्त और शुभ घड़ी में उसकी आस्था न रहे.
ध्यान देनेवाली बात ये है कि ये शब्द भारत में हजारों वर्षों से समय गणना के मानक रहे हैं. जिस बाबर को भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना का श्रेय दिया जाता है और जिसके कारनामे इतिहास की सैकड़ों किताबों का बड़ा हिस्सा हैं, उसकी आत्मजीवनी जिस किताब ‘बाबरनामा’ की शक्ल में आज भी मुहैया है, उसमें पलों, घड़ियों और पहर की चर्चा ही विस्तार से नहीं है, बल्कि महीनों और मौसम की चर्चा भी की गयी है.
बाबर न सिर्फ युद्ध कला की तकनीक और प्रशासन व्यवस्था का बड़ा ज्ञाता था, बल्कि सामाजिक व्यवस्था और इतिहास की उसकी समझ भी जबरदस्त थी, जिसका उदाहरण बाबरनामा में जगह–जगह देखने को मिलता है. भारतीय समाज की तत्कालीन परिस्थिति के बारे में बाबर की जो राय थी, वो बाबरनामा के एक अध्याय का हिस्सा है. ये अध्याय है ‘हिंदुस्तान के तमाम पहलुओं पर मेरी राय’. इसमें उसने भारतीय वनस्पतियों से लेकर जीव–जंतुओं व गांवों की व्यवस्था तक पर लिखा है.
खैर, जहां तक मौसम, महीने, दिन और समय की माप की परंपरागत इकाइयों का सवाल है, उनको बहुत ही बारीकी से बाबर ने समझाया है. मसलन वो लिखता है कि दुनिया के बाकी देशों में जहां अमूमन चार मौसम होते हैं, भारत में तीन ही मौसम होते हैं –जाड़ा, गर्मी और बरसात. हर मौसम चार महीने का होता है यानी चैत, बैसाख, जेठ और अषाढ़ के महीने गर्मी के, तो सावन, भादो, कुआर और कार्तिक बरसात के. इसी तरह जिन महीनों में जाड़े का मौसम होता है, वो महीने हैं–अगहन, पूष, माघ और फाल्गुन के.
बाबर ये भी लिखता है कि किस तरह भारत में हर तीन वर्ष पर किसी एक मौसम के आखिरी महीने के साथ अधिक मास जोड़ दिया जाता है, तो दूसरे तीन वर्ष के बाद किसी और मौसम के साथ और इस तरह से ये क्र म चलता रहता है. जहां तक दिनों का सवाल है, जिस तरह से आज भी सोमवार से लेकर रविवार तक का सिलसिला चलता है, उसका जिक्र बाबर ने भी किया है.
जहां तक समय की गणना का सवाल है, उसके बारे में बाबर अपने पैतृक देश फरगना, जो आज का उज्बेकिस्तान है, और हिन्दुस्तान की तुलना करता है. बाबर के मुताबिक फरगना में ‘किच्छा गुंडुज’ व्यवस्था के तहत दिन को चौबीस घंटे और घंटे को साठ मिनट में बांटा जाता है और इस तरह से दिन और रात मिला कर कुल 1440 मिनटों का होता है. लेकिन हिन्दुस्तान में इस्तेमाल में लायी जा रही समय गणना की व्यवस्था के बारे में बाबर लिखता है कि यहां के लोग दिन और रात को कुल मिला कर साठ हिस्सों में बांटते हैं और हर हिस्से को एक घड़ी कहते हैं. यही नहीं, दिन और रात दोनों को ही चार–चार पहरों में बांटे जाने की जानकारी भी देता है बाबर.
घड़ी को परिभाषित करते हुए बाबर लिखता है कि एक घड़ी का मतलब है चौबीस मिनट. बाबर ये जानकारी भी देता है कि हिंदुस्तान में समय की सूचना देने के लिए सभी प्रमुख शहरों में घड़ियालियों की नियुक्ति की जाती थी. ये घड़ियाली वो शख्स होते थे, जो पीतल की दो हाथ जितनी मोटी परातनुमा प्लेट पर प्रहार करके लोगों को समय की सूचना देते थे. पीतल की ये खास प्लेट, जो किसी ऊंची जगह पर लटकायी जाती थी, उसे ही घड़ियाल कहा जाता था. बाबर आगे ये भी बताता है कि किस तरह घड़ी की गणना किसी खास बरतन में पानी भरने की प्रक्रि या के तहत की जाती थी और ये सिलसिला लगातार चलता रहता था.
बाबर के मुताबिक, हिंदुस्तान में उस वक्त घड़ी को भी साठ हिस्सों में बंटा जाता था और घड़ी का साठवां हिस्सा कहलाता था पल. पल को भी साठ हिस्सों में बांटा जाता था और साठवां हिस्सा कहलाता था बिपल. एक बिपल का मतलब होता था, उतना ही वक्त, जितना पलक के झपकने और खुलने में लगता है.
इसी तरह वजन की पारंपरिक भारतीय गणना की जानकारी भी दर्ज है बाबरनामा में. इसके मुताबिक, वजन की इकाई होती थी रत्ती. एक रत्ती का मतलब होता था चावल के आठ दाने या फिर सरसों के चौसठ दाने. आठ रत्ती एक मासा के बराबर होती थी और चार मासा के बराबर का वजन होता था एक टांक या फिर पांच मासा के बराबर का वजन एक मश्किल.
छियानवे रत्ती या फिर बारह मासा मिला कर बनता था एक तोले का वजन. 80 तोले मिल कर बनते थे एक सेर और चालीस सेर मिला कर एक मन. जाहिर है, इसमें से तोला आज भी सोने–चांदी के वजन में कमोबेश इस्तेमाल हो रहा है, मीट्रिक सिस्टम के आ जाने के बावजूद. जहां तक सेर या मन का सवाल है, किलोग्राम के बटखरों का प्रचलन बढ़ने के पहले तक गांवों में सेर या मन के बटखरे, जो अमूमन पत्थर के होते थे, उनका इस्तेमाल होता था.
हमारी पीढ़ी ने भी बचपन में इनका इस्तेमाल देखा है.
बाबर और उसकी आत्मकथा बाबरनामा की एक चर्चा और. बाबर लिखता है कि हिन्दुस्तान में लाख और करोड़ से काफी आगे अरब, खरब, नील, पद्म और सांग तक में आंकड़ों की गणना की व्यवस्था का मौजूद होना साबित करता है कि ये काफी धनी देश है. और इस धनी देश में बिहार की हालत क्या थी, इसको भी जान लीजिए. बाबर के शासन काल में जो बिहार प्रांत था, वो उसके चौदह प्रांतों के संपूर्ण साम्राज्य में सबसे धनी प्रांत था, जहां से उसे होती थी चार करोड़ पांच लाख साठ हजार टके की आय. वो भी तब जब चंपारण अलग प्रांत के रूप में था, जहां से उसे करीब दो करोड़ टका की आय होती थी.
दरअसल जब बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की थी, उस समय तक रुपये का चलन शुरू नहीं हुआ था, रकम की गिनती टके में होती थी. रुपये का इस्तेमाल तो शेरशाह के समय से शुरू हुआ, जो आज भी भारत, पाकिस्तान और नेपाल तीनों ही देशों में प्रचलन में है, अपने निर्धारित मानकों के साथ. टका शब्द तब भी असम, बंगाल और ओड़िशा की क्षेत्रीय भाषाओं में टके के तौर पर इस्तेमाल होता रहा. बहुत कम लोगों को ध्यान में होगा कि आज भी भारतीय करेंसी नोटों पर रुपया शब्द हिंदी और अंगरेजी को छोड़ कर जिन पंद्रह और भाषाओं में लिखा हुआ रहता है, उसमें से बांग्ला में ये टका, असमी में टोका और उड़िया में टोंगका के तौर पर ही लिखा जाता है.
यही नहीं, 1971 में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ, तो उसने रुपये की जगह अपनी करेंसी के तौर पर टका का इस्तेमाल करना शुरू किया. जाते–जाते सवाल एक बार फिर से, ‘टका सेर भाजी’, ‘टका सेर खाजा’ या ‘फिर सौ टके की बात’ जैसे मुहावरे का इस्तेमाल या फिर ‘सौ टका टंच माल’ कहते समय क्या हम जानते हैं कि इसका मतलब क्या है. दिग्विजय सिंह को तो सौ टंच माल की गंभीरता हाल ही में काफी विवाद और हो हल्ले के बाद समझ में आयी होगी.
(लेखक एबीपी न्यूज, गुजरात के संपादक हैं.)

