भारत की यात्रा पर आये बराक ओबामा का अंतिम भाषण, उसमें प्रयोग किये गये शब्द, आगाह करने का ढंग, देश की एकता के लिए उपदेश, यह दिखाने के लिए तो नहीं कि यह उनका जाते समय का मूल्यांकन है, जिसे बताना जरूरी था!
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत-यात्रा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत-अमेरिका रिश्तों के लिए एक नया आयाम बताया. ओबामा ने भी कहा कि हम दोनों ही सामान्य परिवार से इन महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचे हैं. जो काम भारत में मोदी कर रहे हैं, वही मैं भी अमेरिका में कर रहा हूं. सोशल मीडिया के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में भी दोनों नेता भागीदार रहे और उन्होंने अपेक्षित एवं अनापेक्षित सवालों का जवाब देकर जनता की जिज्ञासाओं को संतुष्ट किया.
ओबामा जब यात्रा के अंत में सऊदी अरब के बादशाह की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने के लिए रवाना हुए, तो उसके पहले सिरी फोर्ट सभागार में अपने संबोधन की शुरुआत वहां से की, जो भारत से जुड़ी हुई थी. उन्होंने देश को आगाह भी किया कि धार्मिक आधार पर बंटवारे के प्रयासों से सतर्क रहना होगा, क्योंकि धार्मिक सहिष्णुता ही सफलता का मूल है. ओबामा ने कहा कि किसी भी देश में धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना न केवल सरकार, बल्कि सभी लोगों की जिम्मेवारी है. गांधीजी के अनुसार, यह विभिन्न धर्म एक बाग के विभिन्न फूलों के समान हैं. अब यह सवाल है कि ओबामा द्वारा इन बातों का उल्लेख किया जाना क्यों जरूरी था. क्या उन्हें याद आ गया कि मोदी एक ऐसे राजनीतिक दल से संबद्घ हैं, जिसे कुछ लोग सांप्रदायिक सोच वाला मानते हैं? साथ ही, आज भी देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग भयातुर है. यह संकट तब और भी बढ़ जाता है, जब केंद्र सरकार अपने विज्ञापनों में संविधान के संकल्पों में से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द हटा देती है. उसका तर्क यह है कि वह आरंभिक संकल्प में नहीं थे. तब यह सवाल उठता है कि इस सरकार ने संविधान के प्रति निष्ठा की जो शपथ ली है, स्वीकार उसे किया जायेगा या आगे और पीछे का बहाना बना कर उससे बचने का प्रयत्न, क्योंकि संविधान का वास्तविक सच तो वर्तमान वाला ही है. भाजपा की साङोदार पार्टी शिवसेना ने तो इसे स्थायी रूप से हटाने की मांग की है. तब यह संसद में नये संविधान संशोधन के रूप में ही आ सकता है, लेकिन उसके पहले काटने-छांटने और अलग ढंग से प्रस्तुत करने का कम-से-कम सरकार को अधिकार नहीं है.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश धार्मिक आधार पर बंटा था, लेकिन इसकी शुरुआत अल्पसंख्यक या अपने को बहुसंख्यक बतानेवाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक के संस्थापक डॉ हेडगेवार और सावरकर द्वारा 1924 में यह कह कर की गयी थी कि हिंदू और मुसलिम दो अलग स्वभाव एवं प्रकृति वाले धर्म हैं, दोनों साथ नहीं चल सकते.
ओबामा के भाषण के संबंध में कांग्रेस यह तर्क दे रही है कि यह वास्तव में मोदी को आईना दिखानेवाला था, क्योंकि मोदी की पार्टी और सरकार के कई नेता ऐसे प्रश्नों को उठा रहे हैं, जिसे धर्म-समभाव का प्रतीक नहीं, बल्कि धार्मिक कट्टरता का उदाहरण ही माना जा सकता है. संविधान के अनुसार, जिस मंत्रिमंडल को सामूहिक जिम्मेदारी का प्रतीक माना जाता है, जब उसके सदस्यों द्वारा यह सवाल उठे, भले ही कुछ प्रश्नों पर उनको अपने बयानों पर सफाई देनी पड़े तथा संघ प्रमुख इस देश को ही हिंदू राष्ट्र घोषित करें व उनके मंत्री यह बतायें कि यह तो रामभक्तों की सरकार है, जो जय श्रीराम के नारे में विश्वास करती है, तो यही लगता है कि मोदी अपने लोकसभा और विधानसभा चुनावों के समय भले ही ऐसे बयानों से बचते रहे हों, लेकिन उनके विरोधी यह तर्क देते हैं कि स्वयं उनकी छवि 2002 के बाद एक कट्टरवादी हिंदू और मुसलिम विरोधी की बन गयी है. इसलिए यदि वे चुप भी रहते हैं, तो उनका पुराना स्वरूप ही सामने आता है. इसलिए एक भ्रम वाली स्थिति पैदा होती है. ओबामा अपनी चेतावनी द्वारा कहीं यह कह कर अपने को अलग तो नहीं बता रहे थे कि हम तो धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास रखनेवाले हैं और आपके लिए भी यही उपादेय और गुणकारी है.
भाजपा कैसे यह कह सकती है कि वह देश के एक धर्मस्थल को गिराने की दोषी नहीं है, जिसकी रक्षा के लिए उसने सर्वोच्च न्यायालय, संसद और राष्ट्रीय एकता परिषद् को वचन दिया था! उसके कई नेताओं पर आज भी इसको लेकर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. जहां तक ओबामा के भाषण का संबंध है कि अमेरिका में जो कुछ हो रहा है, वही भारत में मोदी भी कर रहे हैं, तो सवाल है कि क्या अमेरिका ने भी समता और समाजवाद को अपने संविधान के संकल्पों में स्थान दे रखा है या दोनों अलग-अलग व्यवस्था वाली सामाजिक जीवन पद्धति के समर्थक हैं. यदि मोदी भी भारत को अमेरिका जैसा बना रहे हैं, तो चाहे और कुछ भी कहा जाये, लेकिन वह संवैधानिक स्वीकृति से परे है. इसलिए ओबामा का अंतिम भाषण, उसमें प्रयोग किये गये शब्द, आगाह करने का ढंग, देश की एकता के लिए उपदेश, यह दिखाने के लिए तो नहीं कि यह उनका जाते समय का मूल्यांकन है, जिसे बताना जरूरी था!
शीतला सिंह
संपादक, जनमोर्चा
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