रिपोर्ट के मुताबिक बीते एक दशक में सालाना कुल एक लाख बिस्तर जोड़े जा सके हैं और अगर यही रफ्तार रही, तोअगले बीस सालों में 16 लाख बिस्तरों की कमी होगी. इस आकलन के बरक्स अगर सरकारी प्राथमिकताओं को परखें, तो स्थिति निराशाजनक है. भारत दुनिया के उन कुछेक देशों में एक है, जहां स्वास्थ्य के मद में कुल खर्च सकल घरेलू उत्पाद का पांच प्रतिशत से भी कम है. भारत में यह 4.1 प्रतिशत है, जबकि चीन और रूस में यह पांच प्रतिशत है.
ध्यान रहे, देश में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च कुल बजट का दो प्रतिशत से भी कम है. यह बात भी याद रखी जानी चाहिए कि चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारत से पांच गुना बड़ा है, जबकि उसकी आबादी भारत से कुछ ही ज्यादा है. ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका सरीखी तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्थाएं अपने जीडीपी का नौ प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य के मद में खर्च करती हैं.
यह बात हैरतअंगेज है कि ब्रिक्स समूह में शामिल देशों में अकेले भारत ही सार्वजनिक स्वास्थ्य के मद में सबसे कम खर्च करनेवाला देश है. केंद्र सरकार ने सबको स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लक्ष्य घोषित किया है और प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य बीमा मिशन शुरू करने की बात भी कही थी, लेकिन हाल के दिनों में सरकार की इस मंशा पर प्रश्न चिह्न् लगे हैं, क्योंकि चालू वित्त वर्ष के लिए स्वास्थ्य सेवा के मद में आवंटित राशि में से 20 प्रतिशत की कटौती करते हुए कुल 60 अरब रुपये कम कर दिये गये. मौजूदा सरकार चहुंमुखी विकास के नारे के साथ सत्ता में आयी है और अगले कुछ दिनों के भीतर वह वार्षिक बजट प्रस्तुत करेगी. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार हर नागरिक को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधा सुलभ कराने के अपने वायदे के अनुरूप और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे उपेक्षा के बरताव को दुरुस्त करने की कोशिश करेगी.