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अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार पुष्पेश पंत का विशेष आलेख : ओबामा की यात्रा और कुछ जनतांत्रिक प्रश्न

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार जब से मोदी सरकार बनी है, कुछ लोग यह आशंका करते रहे हैं कि आज भारत में जनतंत्र संकट में है. क्या ओबामा का भारत दौरा इन आशंकाओं को खारिज कर पायेगा? इन सवालों से मुंह चुराना हमारे लिए नुकसानदेह हो सकता है. भारत अपने गणतंत्र की 65वीं सालगिरह मना रहा […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
जब से मोदी सरकार बनी है, कुछ लोग यह आशंका करते रहे हैं कि आज भारत में जनतंत्र संकट में है. क्या ओबामा का भारत दौरा इन आशंकाओं को खारिज कर पायेगा? इन सवालों से मुंह चुराना हमारे लिए नुकसानदेह हो सकता है.
भारत अपने गणतंत्र की 65वीं सालगिरह मना रहा है और इस अवसर पर हमारे सम्मानित अतिथि हैं संसार के सबसे पुराने गणतंत्र के राष्ट्रपति. जब भी भारत-अमेरिका संबंधों की चर्चा होती है, तो यह बात दोहरायी जाती है कि एक आधुनिक जगत का सबसे पुराना और ताकतवर जनतांत्रिक गणराज्य है, तो दूसरा सबसे बड़ा. लेकिन, इस रस्म अदायगी के बाद इसके मायने समझने की कोई कोशिश नहीं होती.
समय आ गया है कि अब हम इस अवसर का लाभ भारतीय गणराज्य में जनतंत्र तथा उभयपक्षीय रिश्तों में अमेरिका के जनतांत्रिक गणराज्य होने की असलियत को परखने का प्रयास करें.
प्रसिद्ध दार्शनिक इमानुएल कांट ने कहा था कि जनतांत्रिक देशों के बीच टकराव या युद्ध की संभावना नहीं होती. दूसरे शब्दों में- जनतांत्रिक देशों के बीच हितों का सन्निपात मूल्यों के साम्य की वजह से अनिवार्य है. वह घोर आदर्शवादी, अमूर्तन की ओर झुकाव वाले थे और उनकी यह सैद्धांतिक स्थापना इसी जीवन दर्शन को उजागर करती है.
आप यह कह सकते हैं कि जिन ‘जनतांत्रिक’ देशों के बीच टकराव देखने को मिला है, उनमें सिर्फ एक ही पक्ष जनतांत्रिक समझा जाना चाहिए, दूसरी तरफ खड़ा शत्रु फासीवादी, नाजी या साम्यवादी, कुनबापरस्त तानाशाह ही नजर आता या दिखलाया जाता रहा है. यह तर्क प्रथम विश्व युद्ध से लेकर ‘महायुद्धों के बीच के अंतराल’ के रक्तरंजित संघर्ष, महान क्रांतियों तथा दर्जनों गृह युद्धों के विश्लेषण के वक्त पेश किया जाता रहा है. यहां जरा ठहर कर इसको मद्देनजर रखने की जरूरत है.
जहां तक अमेरिकी जनतंत्र का सवाल है, फ्रांसीसी विचारक अलेक्सिस तोकवीय की दो-ढाई सौ साल पहले की टिप्पणियां आज भी हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं. अमेरिका की क्रांति के बाद एक नये तरह के जिस राष्ट्र-राज्य ने जन्म लिया था, वह वेस्टफीलिया की संधि की दूसरी संतानों से बहुत भिन्न था. गणराज्य और राजतंत्र का अंतर पहली बार आधुनिक काल में इतना स्पष्ट हुआ था.
फ्रांस का गणतंत्र नेपोलियन के साम्राज्य की स्थापना के कारण अकाल कवलित हुआ और अमेरिका ही दुनिया में जनतांत्रिक गणराज्य की मिसाल बना रहा. शीत युद्ध के युग में अमेरिकी विद्वानों का यह हठ रहा कि अमेरिकी जनतंत्र ही इस राजनीतिक प्रणाली और जीवन-यापन शैली का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है, जिसका कोई विकल्प हो ही नहीं सकता. इस दौर में यह बात निरंतर भुलायी जाती रही कि दूसरे गणराज्यों में जनतंत्र दूसरा रूप धारण कर सकता है.
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और जनतंत्र को अभिन्न समझा गया. इसी कारण नवोदित स्वाधीन भारतीय जनतंत्र के साथ शुरुआती उत्साह के बावजूद सहकार आगे नहीं बढ़ सका. नेहरू की आस्था जनतंत्र में थी, पर उनके सपनों का जनतंत्र समाजवाद का सहोदर था, पूंजीवाद का नहीं. साम्यवादी सोवियत संघ गणराज्य भले ही पश्चिम को जनतांत्रिक नजर न आता हो, नेहरू को विकासशील भारत की जरूरतों के अनुकूल लगता था. इस तरह भारत और अमेरिका के बीच कई दशकों तक गहरी खाई दोनों देशों के जनतांत्रिक गणराज्य होने के बावजूद बनी रही.
बिना विस्तार के भी यह बात प्रमाणित (या स्वीकार) की जा सकती है कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों का सार्थक विश्लेषण करने के लिए जनतांत्रिक गणराज्य विषयक ‘ज्ञान’ का संज्ञान परमावश्यक है. ओबामा की वर्तमान यात्रा के सिलसिले में इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात जरूरी है, ताकि यह बात समझी जा सकेकि 1950-60 वाले दशकों से आज की दुनिया कितना बदल चुकी है या कहां नहीं बदली है.
फ्रांसीसी समाजशास्त्री रेमों आरों ने एक बार अमेरिका को ‘साम्राज्यवादी गणराज्य’ कहा था. भले ही वियतनामी मुक्ति संग्राम की यादें धुंधला चुकी हैं, जनतांत्रिक राज्य होने के बावजूद अमेरिका का अपने स्वार्थ-हित की रक्षा में हस्तक्षेपकारी आचरण नव-औपनिवेशिक साम्राज्यवाद को अनायास याद कराता रहता है. एशिया-अफ्रीका-लातीनी अमेरिका के कमजोर देश ही नहीं, उसके अपेक्षाकृत खुशहाल यूरोपीय संधि मित्र भी खुद को निरापद नहीं समझते. टोनी ब्लेयर जैसे बगल बच्चों को छोड़िए, ज्यां जाक श्रिबनर जैसे बौद्धिक ‘अमेरिकी चुनौती’ (आर्थिक और सांस्कृतिक) के प्रति सतर्क करते रहे हैं.
आजादी के 67-68 वर्ष बाद भी भारतीय जनतंत्र अमेरिकी (जिनमें भारतवंशी अमेरिका में बसे विद्वान भी शामिल हैं) विश्लेषकों की नजर में ‘अनुदार’, विकृत या कुंठित है. यह नजरिया फरीद जकरिया जैसों का है. दूसरी ओर तमाम जगजाहिर खामियों के बावजूद अमेरिकी प्रणाली आज भी हमें सर्वश्रेष्ठ बतायी जाती है. विडंबना यह है कि ‘जनतांत्रिक साम्य’ के बावजूद अमेरिका की विदेश नीति इस आधार पर संचालित नहीं होती नजर आती. पाकिस्तान हो या सऊदी अरब, दक्षिणी कोरिया हो या दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप के सैनिक तानाशाह या फिर अफ्रीका के कबीलाई तेवरों वाले कुनबापरस्त शासक, किसी के साथ भी सामरिक संवेदनशीलता के दबाव में करीबी रिश्ते बनाने में अमेरिका को कोई हिचक महसूस नहीं हुई है, न होगी.
यह सोच-सोच कर हुलसने की जरूरत नहीं कि चूंकि ओबामा हमारे गणतंत्र दिवस की सलामी परेड की शोभा बढ़ा रहे हैं, तो हम दो जनतांत्रिक देशों के बीच परस्पर सहकार की नयी संभावनाएं अचानक उजागर होने लगेंगी.
यह चर्चा अमेरिकी जनतंत्र तक सीमित नहीं रह सकती, बल्कि भारतीय जनतंत्र के यथार्थ पर भी तटस्थ भाव से विचार की जरूरत है. क्या हमने अपने राष्ट्रहित के संधान में हमेशा जनतांत्रिक देशों से सहकार का ही मार्ग चुना है? क्या हमारी राजनीतिक प्रणाली वास्तव में जनतांत्रिक है? क्या निर्भय-निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराना ही जनतंत्र की एकमात्र कसौटी है? क्या हम वास्तव में गणराज्य होने का गर्व महसूस करते हैं या निर्वाचित प्रतिनिधियों को जन्मजात शासक बना सिर पर बिठाने को आतुर रहे हैं?
बरसों पहले वरिष्ठ पत्रकार गिरिलाल जैन ने भरतीय जनतंत्र को वंशवादी जनतंत्र कहा था. अब तक यह संक्रामक रोग लगभग सभी राजनीतिक दलों में फैल चुका है. कुछ समाजशास्त्री भारत के नये ‘निर्वाचित’ महाराजाओं का उल्लेख कर चुके हैं. यदि यह ‘व्यवस्था’ नहीं बदलती, तब क्या अमेरिका या दूसरा कोई देश हमें जनतांत्रिक गणराज्य के रूप में पहचान सकता है?
जब खुद मनमोहन सिंह ने अमेरिका को गले लगाने के लिए सर्वस्व दावं पर लगा दिया था, वह फैसला ‘जनतांत्रिक’ था? जब से मोदी सरकार बनी है, कुछ लोग यह आशंका करते रहे हैं कि आज भारत में जनतंत्र संकट में है. क्या ओबामा का भारत दौरा इन आशंकाओं को खारिज कर पायेगा? इन सवालों से मुंह चुराना हमारे लिए नुकसानदेह हो सकता है.

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