अरबों का इंफ्राइस्ट्रर, लगभग 30 आवासीय प्रशिक्षण केंद्र, सौ से अधिक बोर्डिग सेंटर, कई ओलिंपिक खिलाड़ी, दर्जनों कोच.. फिर भी 60वीं राष्ट्रीय स्कूली एथलेटिक्स प्रतियोगिता में झारखंड की झोली खाली. यह है झारखंड में खेल की सच्चई. राजधानी रांची के होटवार स्टेडियम में चल रही राष्ट्रीय स्तर की यह प्रतियोगिता झारखंड में खेलों के विकास की कलई उतारने को काफी है.
इस प्रतियोगिता में अभी-अभी अलग राज्य बने तेलंगाना तक के एथलीट पदक जीत रहे हैं, लेकिन झारखंड को सिर्फ एक कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा है. राज्य सरकार का दावा है कि वह हर साल खेलों के विकास के लिए चार करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च करती है. लेकिन जो नतीजा सामने है, उससे झारखंड का हर खेल प्रेमी मर्माहत है. यह पहली बार नहीं है. इस राज्य का राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है.
खेलों से जुड़े लोगों का कहना है कि इसका सबसे बड़ा कारण जिला और राज्य स्तर पर प्रतियोगिताओं का ना होना है. जब राष्ट्रीय स्तर की टीम भेजने की बात आती है, तो जैसे-तैसे टीम बना कर भेज दी जाती हैं. इसमें भाई-भतीजावाद का भी खूब चलता है. दिलचस्प पहलू यह है कि राज्य के कई निजी स्कूलों में अच्छे एथलीट हैं, लेकिन उनको चुना ही नहीं जाता.
टीमों का चयन सिर्फ आवासीय और डे-बोर्डिग स्कूलों के खिलाड़ियों के बीच से किया जाता है. जानकारों की मानें तो स्कूलों में शारीरिक शिक्षकों की कमी भी खेलों के रास्ते का एक बड़ा रोड़ा है. पूर्व ओलिंपियन सिल्वानुस डुंगडुंग राज्य में खेलों के गिरते स्तर से बहुत आहत हैं. उनका कहना है कि झारखंड को खेलों में नाम कमाना है, तो खेल की नयी पौध स्कूलों से ही तैयार करनी होगी.
स्कूलों में खेल का स्तर सुधारना होगा. आवासीय व डे बोर्डिग सेंटरों में भी आमूल-चूल परिवर्तन की दरकार है. खेलों के लगातार आयोजन कराये जायें, जो अव्वल हों उनका निष्पक्ष चयन करके उन्हें आगे बढ़़ाया जाये. राज्य में हाल ही में नयी सरकार बनी है. नये मुख्यमंत्री में काम करने का जोश और जज्बा देखा जा रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नये निजाम में झारखंड खेलों की दुनिया में एक बार फिर उभरेगा. और हमारी झोली पदकों से भर जायेगी.