अध्यादेशों के जरिये सरकार चलाना लोकतंत्र के व्यापक हितों के लिए उचित नहीं है. मोदी सरकार को जहां भविष्य में इस लाचारी से बचने की जरूरत है, वहीं विपक्ष को भी अपनी प्रासंगिकता साबित करने की जरूरत है.
सात माह के कार्यकाल में केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेशों के जरिये कानून बनाने की प्रक्रिया पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गंभीर चिंता जतायी है. राष्ट्रपति देश के प्रथम नागरिक होने के नाते अभिभावक की भूमिका में भी रहते हैं. इसलिए उनकी चिंता पर गौर करने की जरूरत है. महामहिम ने कहा है कि अध्यादेश के जरिये कानून बनाना ठीक नहीं है. यह सभी दलों की जिम्मेवारी है कि मिल कर कोई हल निकालें. संविधान में केवल असाधारण या आपात परिस्थितियों में ही अध्यादेश लाने का प्रावधान है. राष्ट्रपति की नसीहत में एक बात खास है कि उन्होंने अध्यादेश के लिए केवल सत्तारूढ़ दल को दोषी नहीं ठहराया है, बल्कि विपक्ष और क्षेत्रीय दलों को भी ऐसे हालात निर्माण के लिए बराबर का दोषी ठकराया है.
जैसे-जैसे हमारी संसद की उम्र बढ़ रही है, उसकी गरिमा का क्षरण हो रहा है. हो-हल्ला के बीच काम के घंटे घट रहे हैं. नतीजतन राष्ट्रपति का चिंतित होना एक स्वाभाविक बेचैनी की अभिव्यक्ति है. यही चिंता जागरूक मतदाता और देश के बुद्धिजीवियों की भी है. मीडिया समेत अन्य लोकतांत्रिक मंचों से भी यह चिंता प्रकट भी होती रही है. प्रणब मुखर्जी ने कहा है, ‘हंगामा बरपानेवाले अल्पमत को यह अनुमति नहीं होनी चाहिए कि वह सहनशील बहुमत का गला घोंट दे.’ इस टिप्पणी से आशय है कि विपक्ष को बेवजह रोड़ा अटकाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. स्पष्ट है, संसद के कर्णधारों का लक्ष्य राष्ट्रहित होना चाहिए.
पहला अध्यादेश ट्राइ के नियमों में संशोधन का आया. जिसके तहत प्रधानमंत्री अपनी मनपसंद के मुख्य सचिव नृपेंद्र मिश्र की नियुक्ति कर सके. दूसरा अध्यादेश तेलंगाना राज्य पुनर्गठन कानून में संशोधन किया गया, ताकि पोलावरम परियोजना के तहत विस्थापन का दायरा बढ़ाया जा सके. इसके बाद दो अध्यादेश कोयला खदानों की नीलामी के बाबत लाये गये. पांचवां अध्यादेश बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी से बढ़ा कर 49 फीसदी करने के लिए लाया गया. छठा अध्यादेश खाद्य सुरक्षा कानून में बदलाव के लिए लाया गया. जबकि संप्रग सरकार जब अध्यादेश के मार्फत खाद्य सुरक्षा कानून ला रही थी, तो अरुण जेटली का कहना था कि अध्यादेश विधायी शक्तियों का अपमान है.
आज वही जेटली अध्यादेशों के प्रारूप बना कर उन्हें अमलीजामा पहनाने में लगे हैं. सातवां अध्यादेश भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन से जुड़ा है. यह वही विधेयक है, जिसे जब मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भाजपा विपक्ष में थी, तब विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सबसे ज्यादा सवाल खड़े किये थे और इसे कठोर बनाये जाने संबंधी सुझाव दिये थे. आठवां अध्यादेश अप्रवासी भारतीयों को आजीवन वीसा देने की कानूनी सुविधा से जुड़ा है. इस पर विपक्ष को सहमत किया जा सकता था, क्योंकि इस पर गहरे मतभेद नहीं थे. यदि ऐसा होता तो इस कानून को संसद के दोनों सदनों से पारित करा कर स्थायी रूप दिया जा सकता था. नवां अध्यादेश दिल्ली की 895 अवैध कॉलोनियों को वैध करने का था. इसका विपक्ष इसलिए विरोध करता, क्योंकि दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने थे और वह अवैध बस्तियों को वैध करके मतदाता को प्रभावित करना चाहती थी. तय है, मतदाता को लुभाने के लिए ही यह अध्यादेश जल्दबाजी में लाया गया है. दसवां विधायक दिल्ली में इ-रिक्शा को अनुमति देने के संबंध में है. जाहिर है, इनमें से कोयला खदानों को नीलामी से जुड़े अध्यादेशों को छोड़ दें, तो अन्य कोई ऐसा अध्यादेश नहीं है, जो आपात स्थिति से जुड़ा हो. इसीलिए अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करने से पहले राष्ट्रपति ने संबंधित विभागों के मंत्रियों को तलब करके उनकी जरूरत पर सवाल उठाया.
अध्यादेश लाना इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि अध्यादेश संविधान व संसद की संपूर्ण प्रक्रिया पूरी नहीं करता. छह माह के भीतर यदि कोई अध्यादेश संसद के दोनों सदनों से पारित नहीं करा लिया जाता, तो एक बार फिर उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल से पारित कराने के साथ राष्ट्रपति की मंजूरी लेना अनिवार्य है. अब कालांतर में जो भी स्थिति निर्मित हो, फिलहाल मोदी सरकार ने अध्यादेश लाने की दृष्टि से इंदिरा गांधी सरकार का मुकाबला कर लिया है. अब तक सबसे ज्यादा 208 अध्यादेश इंदिरा गांधी सरकार के 5,825 दिन के कार्यकाल में लाये गये थे. औसतन हरेक 28 दिन में एक. जबकि मोदी सरकार के 236 दिन के कार्यकाल में 9 अध्यादेश आ गये हैं, यानी औसतन प्रत्येक 28 दिन में एक अध्यादेश लाया गया है. मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल में कुल 61 अध्यादेश आये थे. कुल मिला कर अध्यादेशों के जरिये सरकार चलाना, लोकतंत्र के व्यापक हितों के लिए उचित नहीं है. मोदी सरकार को जहां भविष्य में इस लाचारी से बचने की जरूरत है, वहीं विपक्ष को भी अपनी प्रासंगिकता साबित करने की जरूरत है.
प्रमोद भार्गव
वरिष्ठ पत्रकार
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