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बुढ़ापे में रोटी भी मिल रही किस्तों में
शकील अख्तर प्रभात खबर, रांची रामू काका की महफिल जमी थी. कड़ाके की सर्दी में काका ने अलाव जला रखा था. मुफ्त में बीड़ी और चाय का इंतजाम अलग. ऐसे में गांव के बूढ़े-बुजुर्ग खिंचे चले आते हैं, वरना इस ठंड में बाहर निकलने की हिम्मत कौन जुटाता है. अलाव का मजा लेते हुए रामू […]
शकील अख्तर
प्रभात खबर, रांची
रामू काका की महफिल जमी थी. कड़ाके की सर्दी में काका ने अलाव जला रखा था. मुफ्त में बीड़ी और चाय का इंतजाम अलग. ऐसे में गांव के बूढ़े-बुजुर्ग खिंचे चले आते हैं, वरना इस ठंड में बाहर निकलने की हिम्मत कौन जुटाता है.
अलाव का मजा लेते हुए रामू काका ने जेब टटोली, बीड़ी निकाली और आग से सुलगा कर लंबे- लंबे कश मारे. लेकिन आज उन्होंने बीड़ी के लिए किसी को नहीं पूछा और खुद ही धुआं उड़ाने लगे. चाय के लिए भी ‘अरे ओ मुन्ने की दादी!’ कह कर आवाज नहीं लगायी. काका के रवैये से बीड़ी-चाय की आस लगाये बैठे ठलुआ क्लब को मानो पाला मार गया. सभी हैरान और भौंचक्क! एक दूसरे का मुंह देखने लगे कि शायद कोई काका की इस बेरु खी की वजह पूछ ले.
इसी उधेड़-बुन में श्याम काका ने रामू काका के मुंहलगे लक्ष्मण काका की तरफ सिर घुमाया. आंखों ही आंखों में, सवाल करने का इशारा किया. पर लक्ष्मण काका दगा दे गये. नाक-भौंह सिकोड़ कर‘ना’ में सिर हिला दिया. इतने में महेंदर काका हाथ-पैर सीधे करने लगे. सवालों की बौछार करने से पहले, इस तरह की कसरत करने की उनकी पुरानी आदत है. उनके हाथ-पैर की हरकत देख श्याम काका ने राहत की लंबी सांस ली और जल्द ही चाय-बीड़ी मिलने की उम्मीद पाल ली. लेकिन महेंदर काका ने कसरत के बाद मुंह ही नहीं खोला!
मायूस श्याम काका पहले खांसे, फिर बोले, ‘‘क्या लक्ष्मण भाई?’’ लक्ष्मण काका मानो किसी की पहल का ही इंतजार कर रहे थे, बोले- ‘‘क्या बात है रामू भाई? चाय-बीड़ी में कोई दिक्कत है?’’ इतना सुनते ही रामू काका ने बीड़ी फेंकी, कहा- ‘‘नहीं, कोई दिक्कत नहीं. रहीम गांव लौटा है. जमाना हो गया अपने इस लंगोटिया यार से मिले. जब से बेटों के साथ रहने शहर गया है, तब से मुलाकात नहीं हुई. सोचा कि पहुंचे तो सब साथ ही खाये-पीयेंगे.’’ यह सुन कर लोगों में कुछ और की आस बंधी. लक्ष्मण काका ने फरमाया, ‘‘हां, तो मिठाई वगैरह का इंतजाम करो. जमाने बाद रहीम भाई आ रहे हैं.’’
रामू काका ने लक्ष्मण काका को घूरा और कहा, ‘‘हां.. हां..क्यों नहीं?’’ इतना सुनते ही श्याम काका के मुंह में पानी आ गया, बेसब्री से बोल पड़े, ‘‘ये रहीम भी न जाने और कितनी देर करेगा?’’ इतने में रहीम चाचा पहुंचे. रामू काका ने आवाज लगायी, ‘‘अरे ओ मुन्ने की दादी..’’ फिर क्या था, मिठाई और चाय-बीड़ी का दौर चल पड़ा. चाय की चुस्की के साथ ही रामू काका पूछ बैठे, ‘‘हां! तो यार अपनी सुनाओ, कैसे मजे हैं शहर में? इस पर रहीम चाचा फूट पड़े, ‘‘कहने लगे वहां तो किस्तों पर जिंदगी है. हर चीज किस्त पर है, चाहे घर हो या गाड़ी.. या फिर इंसानी जिंदगी. मुङो ही देखो. बुढ़ापे में किस्तों में जी रहा हूं.
छह महीना एक बेटा खिलाता है, तो छह महीना दूसरा. अगर बीच में दूसरे बेटे से मिलने चला जाऊं, तो दरवाजा खोलते ही बोल पड़ता है कि अभी उसकी बारी नहीं आयी है.’’
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