24.7 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

2024 का आम चुनाव और मोदी

पार्टी के भीतर के लोग महसूस करते हैं कि मोदी और शाह को एक राजनीतिक संरचना तथा एक प्रशासनिक वास्तु को खड़ा करना होगा, जो मोदी के तीसरे कार्यकाल को आगे बढ़ाये.

भारतीय राजनीति के बाजार में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री को अपने कैबिनेट और भाजपा में बदलाव की जरूरत है? कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ समेत नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले होने हैं, तो ठोस कदम उठाने का यही सही वक्त है. केंद्रीय कैबिनेट और पार्टी संगठन में बदलाव की संभावना है. इस माह अध्यक्ष के रूप में जेपी नड्डा का कार्यकाल खत्म हो रहा है.

एक राजनेता के जीवन के कैलेंडर का यह एक बेहद अहम मौका है. लेकिन इसमें एक बड़ी समस्या है. जब से प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभाली है, संरक्षण का तंत्र बिना मोह के तोड़ दिया गया है और उसके पीछे के राजनीतिक तर्क- जिन राज्यों में चुनाव हैं, उन्हें कैबिनेट में अधिक प्रतिनिधित्व मिले, पहचान के आधार पर मंत्री बनाये जाएं और कॉर्पोरेट हित- को भी परे कर दिया गया है.

अब इन्हें लागू नहीं किया जाता है. प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीति के आख्यान को वंश से प्रतिभा में, विशेषाधिकार से चुपचाप काम करने में और व्यक्तिगत मनसबदारी से एक पुनर्नवा गणतंत्र में बदल दिया है. इस लोकतंत्र के भीतरी कामकाज को जो ना समझ सकें, ना समझें, हित साधने की उम्मीद में दिल्ली आने वाले निराश हों, तो हों, बहुत पुरानी पड़ चुकी समझौते की राजनीति के तहत जुड़ने की कोशिश कर रहे लौटा दिये जाएं, तो कोई बात नहीं.

प्रधानमंत्री के कदम के बारे में भविष्यवाणी करना शेर की मांद में घुसने जैसा है. जब वे शांत और धीर दिख रहे होते हैं, तभी वे घातक प्रहार करते हैं. बीते नौ सालों में मंत्रियों और अहम अधिकारियों का उनका चयन पारंपरिक राजनीतिक समझ से उलट रहा है. उन्होंने योग्यता और जीत पाने की क्षमता को लेकर भी प्रयोग किये हैं. कुछ मामलों में तो नेता के साथ वैचारिक जुड़ाव की जरूरी योग्यता को भी नजरअंदाज किया गया है.

क्या किसी ने सोचा था कि मर्जी से सेवानिवृत्त हुए एक आइएएस अधिकारी को वे अपनी कैबिनेट में शामिल करेंगे और उन्हें अहम मंत्रालय का जिम्मा देंगे? भविष्य बताने वालों में से किसी ने संकेत दिया था कि एक महिला भारत की पहली रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री बनेगी या कोई महिला पूर्ववर्ती मानव संसाधन मंत्रालय को संभालेगी? प्रशासनिक अल्गोरिद्म बनाने के मामले में मोदी ने सुपर टेक को भी पीछे छोड़ दिया है.

उनकी टीम उनके निर्देशों के अनुसार परिणाम लाती है. उसमें से अधिकतर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तैयार योजना के अनुरूप काम करते हैं. प्रधानमंत्री ही हर विषय पर साधिकार बोलते हैं. वे अग्रिम पंक्ति में होते हैं और लीक से अलग सोचते हैं. अतीत के नेताओं से अलग मोदी सभी 365 दिनों के लिए 24 घंटे के प्रधानमंत्री हैं.

अधिकतर मंत्री या तो अदृश्य हैं या मामूली तौर पर उपयोगी हैं, भले ही कागज पर 77 मंत्री दिखते हैं. इस संख्या में कोई क्षेत्रीय, लैंगिक, सामुदायिक या धार्मिक पैटर्न नहीं दिखता. वे उस नियमावली से नहीं चलते, जिसे कोई अन्य पढ़ सके. वे ही राजनीति की वह कथा लिख सकते हैं, जिसे वे सुनाना चाहते हैं.

उनके दूसरे कार्यकाल में पहले कार्यकाल के एक दर्जन से अधिक मंत्री हैं. जवाहरलाल नेहरू के बाद शायद वे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपनी ताकत के बूते कैबिनेट में सबसे कम बदलाव किया है. वर्ष 2014-19 के बीच उन्होंने ऐसा तीन बार किया था. लेकिन इस बार उन्होंने एक ही बार अपनी टीम में बदलाव किया है. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने अंतिम पांच वर्षों में चार बार अपनी टीम में बदलाव किया था.

आम तौर पर, अक्षम मंत्रियों के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी से बचाव, क्षेत्री संतुलन तथा चुनावी राज्यों के कुछ नेताओं को शामिल करने के लिए पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री आम तौर पर चुनाव से पहले अपनी टीम में बदलाव करते थे. लेकिन मोदी में ऐसी खामियां नहीं हैं क्योंकि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव उनके नाम पर, उनके लिए और उनके द्वारा जीते जाते हैं. टीम मोदी ने डबल इंजन सरकार का नारा इसलिए गढ़ा था कि राज्यों के वोटर और पार्टी स्थानीय नेताओं से कहीं अधिक उनके साथ जुड़ सके.

मौजूदा कैबिनेट में, कुछ को छोड़कर, कोई भी अपने राज्य में पार्टी की जीत सुनिश्चित नहीं कर सकता है. लोकसभा सांसदों के हिसाब से राज्यों को भी कैबिनेट में ठीक से समानुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है क्योंकि प्रधानमंत्री ने अधिक जोर व्यक्तियों पर दिया है, न कि उनकी जाति या क्षेत्रीय संबद्धता को. उत्तर प्रदेश से भाजपा के 62 सांसद आये थे, पर राज्य से मूल रूप से संबद्ध दो ही कैबिनेट मंत्री- राजनाथ सिंह और महेंद्र नाथ पांडे- हैं. स्मृति ईरानी के अलावा राज्य से अन्य मंत्री राज्यसभा से हैं.

एक दफा प्रधानमंत्री अपनी टीम के बारे में निर्णय कर लेंगे, तो संगठन में नये चेहरों को शामिल करने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी. नयी पार्टी संरचना सरकार के साथ सामंजस्य के अनुसार होनी चाहिए. अभी भी सभी मंत्रियों को पार्टी के काम भी दिये गये हैं तथा उन्हें कुछ क्षेत्रों का दायित्व दिया गया है, जहां उन्हें नियमित अंतराल पर दौरा करना पड़ता है. नड्डा के नेतृत्व में भाजपा के शीर्ष पर 12 उपाध्यक्ष, नौ महासचिव, 13 सचिव और एक कोषाध्यक्ष हैं.

राज्य स्तरीय नेतृत्व का महत्व और भरोसा भी संकुचित हुआ है. पार्टी संरचना में कार्यकर्ताओं का वर्चस्व है, न कि नेताओं का. जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने सरकार और संगठन चलाने का काम लालकृष्ण आडवाणी पर छोड़ दिया था. दो व्यक्तियों की इस व्यवस्था का विचार अब भी बना हुआ है, जहां मोदी वाजपेयी सरीखे हैं और गृह मंत्री अमित शाह ने आडवाणी का स्थान ले लिया है.

अटल-आडवाणी युग में निर्णयों में पार्टी अध्यक्ष और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अहम भूमिका होती थी. लेकिन अब संघ की भूमिका कम भी है और हाशिये पर भी. अमित शाह आडवाणी की भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं का बहुत अधिक योगदान रहता है. पार्टी के भीतर के लोग महसूस करते हैं कि मोदी और शाह को एक राजनीतिक संरचना तथा एक प्रशासनिक वास्तु को खड़ा करना होगा, जो मोदी के तीसरे कार्यकाल को आगे बढ़ाये.

लेकिन 2014 से हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के विश्लेषण बताते हैं कि अधिकतर चुनाव में भाजपा इसलिए नहीं जीती कि वह एक ठोस पार्टी है, बल्कि ऐसा मोदी के जादू से हुआ. अधिकतम मोदी न्यूनतम कैबिनेट के साथ एक बार फिर जीत सकते हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें