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महात्मा गांधी के खंडित स्वप्न

गिला इस बात का है कि पिछली पीढ़ी के उदारवादी भारतीय मुसलमानों ने भी गांधीजी की याद में कभी कोई समारोह आयोजित करना जरूरी नहीं समझा. भारत में जन्मे उस महान विश्वबंधु के भाग्य की विडंबना देखिये कि आमतौर पर मुसलमानों ने उन्हें हिंदू नेता माना और कट्टरवादी हिंदुओं में एक ने उन्हें हिंदू-वैरी मानते […]

गिला इस बात का है कि पिछली पीढ़ी के उदारवादी भारतीय मुसलमानों ने भी गांधीजी की याद में कभी कोई समारोह आयोजित करना जरूरी नहीं समझा. भारत में जन्मे उस महान विश्वबंधु के भाग्य की विडंबना देखिये कि आमतौर पर मुसलमानों ने उन्हें हिंदू नेता माना और कट्टरवादी हिंदुओं में एक ने उन्हें हिंदू-वैरी मानते हुए गोली मार दी. हे ईश्वर!
15 अगस्त 1947 के दिन जब देश के लोग और नेतागण जश्न-ए-आजादी मनाने में मशगूल थे, राष्ट्रपिता गांधी तनावग्रस्त कलकत्ता के एक खंडहरनुमा मकान (हैदरी हाउस) में मौन धारण किये उपवास पर बैठे रहे. उन्होंने न तो राष्ट्र के नाम कोई संदेश दिया और न अपने कमरे में रोशनी जलायी. उनका सारा सपना चूर हो चुका था. लड़ाई न केवल आजादी, बल्कि एक अखंड भारत, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए थी. लेकिन आजादी मिली तो धर्म के आधार पर दो टुकड़ों में.
मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बना पाकिस्तान और तर्कसंगत रूप से हिंदुओं के लिए बचा शेष भूभाग भारत कहलाया. इतना ही नहीं, आजादी और बंटवारे के साल भर पहले और महीनों बाद तक हिंदू-मुसलमानों के बीच जैसे भयंकर दंगे होते रहे, विश्व इतिहास में उसका जोड़ ढूंढ पाना मुश्किल है. मुसलिम लीग ने ‘लड़ कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दे रखा था. मर्माहत गांधी को लगा जैसे उनकी सारी तपस्या नष्ट हो गयी हो. उन्होंने वाइसरॉय लार्ड माउंटबेटन से यहां तक कहा था, ‘जिन्ना साहब पाकिस्तान की अपनी जिद पर अड़े रहे, तो सारे हिंदुस्तान की हुकूमत उनके हवाले कर दीजिये; मगर देश का विभाजन न कीजिये.’ लेकिन बाबा-ए-पाकिस्तान जनाब मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुसलिम लीग टस से मस न हुई. स्वराज प्राप्ति की लालसा में मजबूरन कांग्रेस ने भी गांधी की मर्जी के खिलाफ बंटवारा कबूल कर लिया.
आजादी और बंटवारा जुड़वा बहनों की तरह हमारे गले लगीं. संताप वहीं समाप्त नहीं हुआ. महीनों बाद तक दोनों देश दहकते रहे. लाहौर से अमृतसर की 45 मील लंबी सड़क के बीच कयामत का नजारा था. सीमा के आर-पार आने-जानेवाले लोगों का मीलों लंबा तांता लगा रहता. कदम-कदम पर लाशें और कटे अंग बिखरे पड़े मिलते. लोग हमले, हैजा, भूख-प्यास या थकान से मरते गये तो राह में बच्चे भी पैदा होते रहे. छह लाख बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द मारे गये थे, जबकि तकरीबन डेढ़ करोड़ लोग उजड़े थे. स्थिति संभाल पाने में प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री पटेल सर्वथा असमर्थ होने लगे.
9 सितंबर, 1947 के दिन गांधी कलकत्ता से दिल्ली पहुंचे, जहां सिंध और पश्चिम पंजाब से उजड़े सिख और हिंदुओं ने अपनी बरबादी का बदला यहां रुके मुसलमानों से चुकाना तय कर लिया था. मुसलमानों में दहशत फैल गयी. दिल्ली, आगरा, अलीगढ़, मेरठ, जौनपुर जैसे तमाम इलाके के बाशिंदे पाकिस्तान निकल भागने की होड़ में जुट गये. एक सप्ताह के अंदर लगभग डेढ़ लाख मुसलमान दिल्ली छोड़ चुके थे.
अफरा-तफरी के उस माहौल में कांग्रेस के आला रहनुमा मौलाना अबुल कलाम आजाद ने दिल्ली के जामा मसजिद से मुसलमानों को खिताब करते हुए जो कहा उनके चुनिंदा जुमले दरपेश हैं : ..मैंने तुमसे कहा था कि दो कौमों का नजरिया हयाते मानवी के लिए मजरुलमौत (मृत्युरोग) के मानिंद है; उसे छोड़ दो. जिन सहारों पर तुम्हें भरोसा था, वे तुम्हें लावारिस समझ तकदीर के हवाले कर गये. रहनुमाई के वे बुत जो तुमने बनाये थे, वे दगा दे गये. मैं तुम्हारे जख्मों को और कुरेदना नहीं चाहता.. हिंदुस्तान की तकदीर में सियासी इंकलाब लिखा जा चुका है. यह ठीक है कि वक्त ने तुम्हारी ख्वाहिशों के मुताबिक अंगड़ाई नहीं ली.
अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है और मुसलिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं. यह फेरार (पलायन) की जिंदगी जो तुमने हिजरत के नाम पर अख्तियार की है, इस पर जरा गौर करो. आखिर कहां और क्यों जा रहे हो? यह देखो, जामा मसजिद की बुलंद मीनारें उचक कर तुमसे सवाल करती हैं.. अगर तुम खुद भागने को तैयार नहीं, तो तुम्हें कोई ताकत भगा नहीं सकती. आओ, हम अहद (प्रतिज्ञा) करें कि यह मुल्क हमारा है और हम इसके लिए हैं और इसकी तकदीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज के बगैर अधूरे रह जायेंगे..
मगर मौलाना के जज्बाती तकरीर के बावजूद हिजरत का दौर थमा नहीं. दरअसल गांधी के सिवा किसी और के बूते की बात न थी कि नवनिर्मित पाकिस्तान से विस्थापित हुए करोड़ों मुसीबतजदा लोगों के अंदर उमड़ रहे आक्रोश और प्रतिशोध के वैसे भयंकर तूफान का रुख मोड़ दे. गांधी उन दिनों दिल्ली में मौजूद थे. घृणा, हिंसा और अराजकता की चतुर्दिक स्थिति ने उन्हें अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. अपनी प्रार्थना सभा में उन्होंने लोगों से पूछा, ‘क्या दिल्ली के लोग पागल हो गये हैं?
क्या उनके अंदर मानवता तनिक भी बाकी नहीं रह गयी?’ एक पखवाड़े के बाद 2 अक्तूूबर को जब उन्हें जन्मदिन के बधाई संदेश मिलने लगे, तो उन्होंने कहा, ‘आज तो आपको शोक प्रकट करना चाहिए. मेरे दिल में दुख और पीड़ा के सिवा और कुछ नहीं. कभी मैं सवा सौ बरस जीवित रहना चाहता था. अब जिंदा रहने की इच्छा खत्म हो गयी है. घृणा, असत्य और खून-खराबे के वातावरण में जी कर मैं क्या करूंगा?’
इस बीच एक और नाटकीय घटना यह हुई कि गृहमंत्री सरदार पटेल ने पत्रकारों को बताया कि कश्मीर का विवाद जब तक हल नहीं हो जाता, पाकिस्तान को देय उसके हिस्से का पांच हजार करोड़ रुपया नहीं दिया जायेगा. गांधी की न्याय और नैतिक मान्यताओं को भारत सरकार के इस फैसले से गहरा धक्का लगा. उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र संभाला और आमरण अनशन पर बैठने की सार्वजानिक घोषणा कर दी. 12 जनवरी, 1948 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि यद्यपि उनका व्रत किसी के विरुद्ध नहीं, तथापि वह किसी को छोड़ता भी नहीं, क्योंकि भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की सुरक्षा के पक्ष में होने के कारण निश्चय ही वह सिखों और हिंदुओं के हिंसात्मक व्यवहार के विरुद्ध हैं.
अपने अनशन का उद्देश्य उन्होंने यह भी बताया कि पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमान वहां के अल्पसंख्यकों पर भी कोई अत्याचार न करें. अनशन के तीसरे दिन उन्होंने भारत सरकार पर पाकिस्तान के हिस्से का रुपया फौरन अदा कर देने का विशेष दबाव बनाया. अगले दिन उनकी हालत बेहद नाजुक हो गयी. डॉक्टरों को लगा कि बमुश्किल चौबीस घंटे और बचे हैं. सरकार ने पाकिस्तान का रुपया देने का फैसला कर लिया. ऑल इंडिया रेडियो से हर घंटे गांधी का हेल्थ बुलेटिन प्रसारित होने लगा था. मंदिर-मसजिद, चर्च-गुरुद्वारों में प्रार्थनाएं होने लगीं. गली-मोहल्लों से हिंदू-मुसलिम, सिख-ईसाइयों के जत्थे जुटने लगे. रिक्शा-तांगा-रेल मजदूर, डाक कर्मचारी सब के सब शांति जुलूस की शक्ल में सड़कों पर निकल आये. उधर, पाकिस्तान के कराची और लाहौर से लगातार तार आते रहे. मसजिदों में दुआएं मांगी जाने लगीं. लीगी नेताओं ने गांधी को भाईचारे का फरिश्ता बताना शुरू किया. गांधी ने अपने सचिव प्यारे लाल के कानों में फुसफुसाते हुए कहा कि उन्हें कोई जल्दी नहीं. जब तक संगदिल लोग भी पिघल न जायें, वे अपना अनशन नहीं तोड़ेंगे. उनका इशारा हिंदू महासभा और आरएसएस की ओर था.
रविवार, 18 जनवरी अनशन का पांचवा दिन था. गांधी के लिए अब-तब की बात होती जा रही थी. वे हिलने-डुलने, बोल पाने में भी असमर्थ हो गये थे. लेडी और लार्ड माउंटबेटन, नेहरू, पटेल, राजाजी, मौलाना आजाद सभी व्याकुल थे कि गांधी अपना उपवास तोड़ दें. वे बिस्तर पर अचेत पड़े थे. थोड़ी देर के लिए जब उन्होंने आंखें खोली, तो राजेंद्र बाबू ने उनकी सात-सूत्री शर्तो का वह कागज दिखाया, जिस पर हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अन्य प्रमुख संगठन और व्यक्तियों की ओर से स्वीकृति में हस्ताक्षर किये गये थे. उसकी गवाही में वहां खड़े सभी गणमान्य हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, पारसी ने सिर हिलाया. गांधीजी ने इशारे में मनु को बुला कर बड़ी धीमी आवाज में उसके कानों में कहा, ‘मैं अनशन समाप्त कर दूंगा; मगर लोगों को बता दो कि न तो भारत केवल हिंदुओं के लिए है और न पाकिस्तान केवल मुसलमानों के लिए.’
उसके बाद मौलाना आजाद और नेहरू के कांपते हाथों से उन्होंने ग्लूकोज मिश्रित नारंगी रस के कुछेक घूंट पिये. दो ही दिनों बाद उनकी प्रार्थना सभा में बम विस्फोट हुआ. उस रोज तो वे बच गये. लेकिन 30 जनवरी, 1948 की प्रार्थना सभा में मंच के निकट जाकर नाथूराम गोडसे ने जब उन पर गोली दागी तो ‘हे राम’ कहते हुए गांधी मंच पर ही लुढ़क गये और तत्काल संसार से विदा हो गये. उनकी हत्या पर शोक जताते हुए जिन्ना साहब ने कहा कि गांधी की मौत से मुसलमानों को जबरदस्त नुकसान हुआ है.
मुसलमानों की नयी पीढ़ी को शायद ही ठीक मालूम हो कि गांधी कौन थे! मुमकिन है उनमें बहुत से लोगों की समझ यह हो कि वे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गांधी, वरुण गांधी के कोई पूर्वज रहे होंगे. गिला इस बात का है कि पिछली पीढ़ी के उदारवादी भारतीय मुसलमानों ने भी गांधीजी की याद में कभी कोई समारोह आयोजित करना जरूरी नहीं समझा. भारत में जन्मे उस महान विश्वबंधु के भाग्य की विडंबना देखिये कि आमतौर पर मुसलमानों ने उन्हें हिंदू नेता माना और कट्टरवादी हिंदुओं में एक ने उन्हें हिंदू-वैरी मानते हुए गोली मार दी. हे ईश्वर!
अरुण भोले
(स्वराज और समाजवादी आंदोलन से जुड़े बिहार के जनसेवी एवं विचारक)

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