मंगलयान की सफलता ने भारत की एक नयी तकनीकी खिड़की खोली है. इसे ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के साथ जोड़ कर देखना चाहिए. इस महीने भारत की वैश्विक भूमिका जिस शिद्दत के साथ उजागर हुई है, इसके पहले शायद ही कभी हुई होगी.
संयोग से मंगलयान की सफलता और ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की खबरें एक साथ आ रहीं हैं. पिछले साल नवंबर में जब मंगलयान अपनी यात्रा पर निकला था, तब काफी लोगों को उसकी सफलता पर संशय था. व्यावहारिक दिक्कतों के कारण भारत ने इस यान को पीएसएलवी के मार्फत छोड़ा था. इस वजह से इसने अमेरिकी यान के मुकाबले ज्यादा वक्त लगाया और अनेक जोखिमों का सामना किया.
हालांकि यह बात कहनेवाले आज भी काफी हैं कि भारत जैसे गरीब देश को इतने महंगे अंतरिक्ष अभियानों की जरूरत नहीं, पर वे इस बात की अनदेखी कर रहे कि अंतरिक्ष तकनीक के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार की तमाम तकनीकें जुड़ी हैं, जो अंतत: हमारे जन-जीवन को बेहतर बनाने में मददगार होंगी. फिलहाल महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की अंतरिक्ष तकनीक के लिए विकासशील देशों का बहुत बड़ा बाजार तैयार है.
हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश और नेपाल तक अपने उपग्रह भेजना चाहते हैं. उनके पास यह तकनीक नहीं है, इसलिए ज्यादातर देश चीन की ओर देख रहे हैं. मंगलयान की सफलता ने भारत की एक नयी तकनीकी खिड़की खोली है.
इसे ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के साथ जोड़ कर देखना चाहिए. इस महीने भारत की वैश्विक भूमिका जिस शिद्दत के साथ उजागर हुई है, इसके पहले शायद ही कभी हुई होगी. इस हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका जा रहे हैं. दुनिया के तीन महत्वपूर्ण देशों के साथ संपर्क का उनका अभियान पूरा हो जायेगा.
फिलहाल इतना साफ है कि मोदी सरकार की दिलचस्पी देश की आर्थिक-संवृद्धि की गति को तेज करने में ज्यादा है. मोदी सरकार भारत को वैश्विक विनिर्माण क्षेत्र का हब बनाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री ने अपने 15 अगस्त के भाषण में ‘मेड इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के अलावा दुनिया से ‘मेक इन इंडिया’ का आह्वान किया था. यानी दुनिया भर के उद्योगपतियों आओ, भारत में बनाओ. इस मुहिम की शुरुआत 25 सितंबर से होनेवाली है.
यूरोप की विमान बनानेवाली कंपनी एयरबस, कार बनानेवाली जर्मन कंपनी मर्सिडीज, कोरिया की कंपनी सैमसंग और जापानी कार कंपनी होंडा के सीइओ दिल्ली आ रहे हैं. दुनिया की तमाम कंपनियों के सर्वोच्च अधिकारियों का इतना बड़ा जमावड़ा पहली बार हो रहा है.
इस अभियान को एक आंदोलन के रूप में शुरू किया जा रहा है. यानी यह केवल विज्ञान भवन का कार्यक्रम नहीं है, बल्कि इसे एक साथ मुंबई, चेन्नई और बेंगलुरु समेत विभिन्न राज्यों की राजधानियों में भी चलाया जायेगा. खासतौर से उन राजधानियों में, जिनका ताना-बाना औद्योगिक गतिविधियों के लिए अपेक्षाकृत बेहतर है.
इस अभियान को उन देशों में भी शुरू किया जायेगा, जिनका राष्ट्रीय मानक समय भारत से मिलता है. देश में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा करने के अलावा व्यापार तथा आर्थिक संवृद्धि को गति देना इसका मकसद है. योजनानुसार विदेशों में भारतीय दूतावास भी मोदी के भाषण का प्रसारण करते हुए निवेशकों एवं कंसल्टेंट कंपनियों के सामने प्रेजेंटेशन देंगे.
वैश्विक व्यापार कंसल्टेंसी फर्म बैन एंड कंपनी ने इस साल फरवरी में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2017 में दुनिया का इंफ्रास्ट्रर पर निवेश चार ट्रिलियन डॉलर होगा. बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में इंफ्रास्ट्रर पर हजार डॉलर के निवेश का अनुमान है. कहना मुश्किल है कि इतना निवेश हो पायेगा या नहीं.
फिलहाल भारत निर्माण की तेज गतिविधियों के दरवाजे पर खड़ा है. वैसा ही निर्माण, जैसा चीन ने अस्सी-नब्बे के दशक में देखा था. सरकार ने निर्माण कार्यो पर विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए तमाम अड़ंगों को हटाने का फैसला कर लिया है. खासतौर से स्मार्ट सिटीज के नाम से शुरू होनेवाली योजना के तहत छोटे शहरों में भारी निवेश की तैयारी है. इससे बड़े शहरों की ओर होनेवाला पलायन भी रुकेगा. इस निर्माण के इर्द-गिर्द नयी आर्थिक गतिविधियां खड़ी की जायेंगी.
इंफ्रास्ट्रक्चर के बुनियादी क्षेत्र यानी बिजली, तेल, गैस, पेट्रोल, परिवहन और अन्य निर्माण के अलावा सामाजिक क्षेत्र यानी पेयजल, स्वास्थ्य और शिक्षा पर भी हमें भारी निवेश की जरूरत है. भारत में निर्णय प्रक्रिया थोड़ा समय लेती है, पर अब शायद हम बड़े निर्णय करने की स्थिति में आ गये हैं.
इस सितंबर में जापान-चीन और अमेरिका के साथ हमारे संवाद को आनेवाले वक्त की कहानी के साथ जोड़ कर देखना चाहिए. जापान ने भारत में अगले पांच साल में तकरीबन 35 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया है. चीन की तकरीबन 30 अरब डॉलर के निवेश की योजना है.
चीन के साथ हमारा तकरीबन 70 अरब डॉलर का सालाना कारोबार है. व्यापारिक रिश्तों में अमेरिका हमारा सबसे बड़ा साझीदार है, जिसके साथ तकरीबन 100 अरब डॉलर का सालाना व्यापार है. पिछले कुछ समय से दोनों देशों के बीच रिश्ते उतने खुशनुमा नहीं हैं. लेकिन अब उम्मीद है कि भारत में अगले पांच साल में तकरीबन 500 अरब डॉलर का निवेश अकेले अमेरिका से आयेगा. सवाल है कि क्या हमारी व्यवस्था बड़े स्तर पर निवेश के लिए तैयार है?
बहरहाल, औद्योगिक नीति एवं प्रमोशन विभाग ने शिकायत निवारण और प्रश्नों के जवाब देने के लिए आठ सदस्यों की विशेषज्ञ समिति गठित की है. यह 48 घंटे में मुद्दे को सुलझाने का प्रयास करेगी. ऐसा न करने की स्थिति में संबंधित विभाग के एक मनोनीत अधिकारी के पास भेजा जायेगा, जो 72 घंटों में प्रत्युत्तर देगा. मेक इन इंडिया रणनीति के लिए तीन योजना बनायी जा रही है.
लाइसेंसिंग में ढिलाई, भू-अधिग्रहण कानून में ढील और शायद श्रम कानूनों में बदलाव की योजनाएं भी तैयार हैं. कुछ गैर-जरूरी पुराने कानूनों को खत्म करने की शुरुआत हो गयी है. आयात व उत्पाद शुल्क की संरचना में भी बड़े बदलाव होने जा रहे हैं.
मेक इन इंडिया अभियान में केवल विदेशी कंपनियां ही शामिल नहीं हो रही हैं, भारतीय कंपनियों की भागीदारी भी होगी. मेक इन इंडिया अभियान इन कंपनियों के लिए भी अच्छा संदेश लेकर आया है. सन् 2013 में भारत के विनिर्माण क्षेत्र की समूची अर्थव्यवस्था में केवल 13 फीसदी की हिस्सेदारी थी.
विनिर्माण क्षेत्र कमजोर होगा तो रोजगार नहीं होंगे. एक जमाने में हमारा वस्त्र उद्योग दुनियाभर से सबसे आगे था. आज कानपुर, मुंबई और अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में सन्नाटा है. कारण क्या है? शायद कम उत्पादकता भी एक बड़ा कारण है. मिलों का समय से आधुनिकीकरण नहीं हुआ. हमें उच्च तकनीक भी चाहिए. मंगलयान इशारा कर रहा है कि हम इसमें पीछे नहीं हैं. बेशक इसमें भी हमें उचित विदेशी सहयोग चाहिए. आगे बढ़ने का रास्ता यही है.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार