ज्यादातर त्रसदियां सिर्फ प्राकृतिक कारणों से नहीं आतीं, बल्कि मानव-निर्मित स्थितियों और विकास के मौजूदा मॉडल की भी इसमें बड़ी भूमिका होती है. समय रहते ठोस कदम नहीं उठाये गये, तो हिमालयीय क्षेत्र को इससे भी बड़े खतरे से कोई नहीं बचा सकता.
कश्मीर घाटी के उत्तर और दक्षिण के कुछ शहरों-कस्बों और गावों में अब भी गले तक पानी है. राजधानी श्रीनगर में ङोलम की बाढ़ के घटने से फिलहाल लोगों की बेचैनी कुछ कम हुई है, लेकिन कश्मीर की बाढ़ की असलियत और उसके विभिन्न पहलुओं से जुड़े बड़े सवाल पहले की तरह अब भी अनुत्तरित हैं. जिसे आज हम बड़ी त्रसदी या राष्ट्रीय विपदा मान रहे हैं, क्या वह सिर्फ भारी बारिश या बादल फटने या दो तीव्र पश्चिमी-विक्षोभों के मिलन का नतीजा थी? उसमें मानव-निर्मित स्थितियों, विकास के मौजूदा मॉडल और हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की तबाही का कितना योगदान था? अगस्त, 2010 में लेह (जम्मू-कश्मीर); जून, 2013 में केदारनाथ (उत्तराखंड) और अब कश्मीर घाटी की विनाशलीला के बाद इन सवालों का उठना लाजिमी है. हैरत की बात है, महज चार साल के दौरान तीन बड़ी त्रसदियों के बावजूद सरकारें और सत्ता-संरचना में अहम भूमिका निभा रहे योजनाकार इन सवालों पर खामोश हैं. वे सिर्फ राहत-पुनर्वास के आधे-अधूरे अभियानों तक सीमित हैं. उनका ज्यादा जोर अपनी या सरकार की सक्रिय भूमिका को विज्ञापित करने पर है.
बीते तीस वर्षो के दौरान कश्मीर घाटी में अलगाववाद-उग्रवाद ही मसला रहा है. सारा विमर्श इसे बढ़ाने या इसे खत्म करने के अभियान में लगी शक्तियों के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है. विकास योजनाओं और सुरक्षा तंत्र के लिए आवंटित अकूत धन के उपयोग-दुरुपयोग पर घाटी में समय-समय पर कुछ सवाल जरूर उठे, पर विकास-योजनाओं के स्वरूप या मॉडल पर शायद ही योजनाकारों के बीच कभी कोई गंभीर विमर्श हुआ. नतीजतन, श्रीनगर सहित जम्मू-कश्मीर में बहनेवाली नदियां, झीलें और सैकड़ों की संख्या वाली वाटर-बॉडीज लगातार बरबाद होती रहीं.
जल-फैलाव के संभावित इलाकों को अतिक्रमित कर दुकान-मकान बनाये जाते रहे. कैसी विडंबना है, श्रीनगर के नगर-नियोजन से संबद्ध एक सरकारी एजेंसी का अपना दफ्तर एक वाटर-बॉडी पर बना हुआ है. एक बड़े नाले को पाट कर सड़क मार्ग बना दिया गया, ताकि बड़े हुक्मरानों को सचिवालय की तरफ जाने में किसी तरह के मार्ग-अवरोध का सामना न करना पड़े. डल, वुल्लर, अंचार, नगिन, गिलसार और जैना जैसी झीलों में लगातार अतिक्रमण होता रहा है. घाटी में कई मशहूर झीलों का तो अस्तित्व भी मिट चुका है. डल और वुल्लर जैसी एशिया-प्रसिद्ध झीलों का सिकुड़ना लगातार जारी है. जिस तरह दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में बर्फीले शिखर और ग्लेशियर पर्यावरण-विनाश के चलते बरबाद होते रहे, उसी तरह शहरों-कस्बों के अंदर पेड़ लगातार कटते रहे और ङोलम जैसी नदियों को नदी से नाला बनाने का खतरनाक सिलसिला जारी रहा. कुछेक साल पहले तक डल झील के निर्मल और सिल्क से कोमल पानी में बगल की पर्वत श्रृंखलाओं की ङिालमिल प्रतिच्छाया किसी सुंदर कश्मीरी डिजाइन की तरह उभरती थीं. उसमें तैरते हाउसबोटों और सिकारों की आवाजाही से वे हिलने लगती थीं. पर अब डल का बड़ा हिस्सा अतिक्रमण का शिकार है. स्थानीय मीडिया में नदियों-झीलों की बरबादी को लेकर समय-समय पर खबरें आती रही हैं. कुछेक बार न्यायिक-हस्तक्षेप भी हुए, पर बात नहीं बनी. क्योंकि अतिक्रमण करनेवालों में सूबे के असरदार लोग—राजनीतिज्ञ, अफसर और बड़े व्यवसायी भी शामिल बताये जाते हैं.
कुछ बरस पहले केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय को भेजी एक रपट में रिमोट सेंसिंग सेंटर से संबद्ध प्रयोगशाला ने अध्ययन के बाद घाटी में नदी, झील और अन्य वाटर-बॉडीज की बरबादी पर चिंता जतायी थी. रपट के मुताबिक पिछले कुछेक दशकों के दौरान श्रीनगर की 50 फीसदी वाटर-बॉडीज विलुप्त हो चुकी हैं. घाटी स्थित दो भू-वैज्ञानिकों-हुमायूं रशीद और गौहर नसीम ने झीलों के अतिक्रमण पर खास अध्ययन कर अपनी रपट सार्वजनिक की.
वह सरकार को भी भेजी गयी. बाढ़ की विभीषिका को आमंत्रण देनेवाले इस खतरनाक मसले पर केंद्र और राज्य सरकार के ध्यानाकर्षण की सबसे ताजा और सबसे बड़ी कोशिश 2010 में हुई. राज्य के बाढ़ नियंत्रण विभाग ने हजारों पृष्ठों की अपनी शोध-आधारित रपट के निष्कर्ष वाले पैरे में कहा, ‘अगर शीघ्र कदम नहीं उठाये गये तो विनाशकारी बाढ़ से जम्मू और श्रीनगर को जोड़नेवाला राष्ट्रीय राजमार्ग जलमग्न हो सकता है और पूरी घाटी देश से कट सकती है. श्रीनगर के लगभग सारे प्रमुख क्षेत्र पानी में डूब जायेंगे. विभाग ने प्रभावकारी बाढ़-नियंत्रण के लिए 2,200 करोड़ की एक योजना का प्रारूप भी केंद्र और राज्य को भेजा. यूपीए-नीत केंद्र सरकार ने योजना के एक हिस्से को मंजूरी दी और कुछ राशि भी निर्गत हुई. ङोलम में ड्रेजिंग का काम भी शुरू हुआ, लेकिन कुछ ही समय बाद काम रुक गया. मौजूदा त्रसदी पर आंसू बहा रही उमर अब्दुल्ला सरकार ने सूबे की जनता को आज तक नहीं बताया कि बाढ़-नियंत्रण के उक्त महत्वाकांक्षी अभियान को बीच में ही क्यों रोक दिया गया था?
इतिहास गवाह है, इस तरह की ज्यादातर त्रसदियां सिर्फ प्राकृतिक कारणों से नहीं आतीं. मानव-निर्मित स्थितियों और विकास के मौजूदा मॉडल की इसमें बड़ी भूमिका रही है. 1970 में उत्तराखंड की अलकनंदा घाटी में भयानक बाढ़ आयी. तब उसमें ज्यादा जल-सैलाब उमड़ा पर तबाही उतनी नहीं हुई, जितना 2013 में हमने केदारनाथ घाटी में देखी. वजह साफ है, हिमालय में आज जिस तरह हाइड्रो-पावर संयंत्रों और पर्यावरण को नष्ट करती अन्य परियोजनाओं की अंधाधुंध कतारें लगायी गयी हैं, उससे जल-फैलाव के क्षेत्र ही नहीं सिकुड़े हैं, नदियों-झीलों में गाद भरती गयी है, पहाड़ कमजोर हुए हैं और जंगलों के लगातार कटने से जलवायु-परिवर्तन का खतरा बढ़ गया है. पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर, सुनीता नारायण और तमाम स्थानीय कार्यकर्ता हिमालय-क्षेत्र के बारे में यह सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारें उन्हें झोला-छाप एनजीओ या विकास-विरोधी सिरफिरे कह कर उनके तर्को को खारिज करती रही हैं. कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, मेघालय और अरुणाचल में आज निजी क्षेत्र, सरकारी या पीपीपी मॉडल के तहत पनबिजली परियोजनाओं, पर्यावरण-विनाश करते उद्योगों का जिस तरह अंधाधुंध अंबार लगाया जा रहा है, वह विनाश के आमंत्रण के अलावा और क्या है? क्या संवेदनशील पर्वतीय इलाकों के विकास का इससे ज्यादा संजीदा, सृजनात्मक और संवेदनशील मॉडल नहीं विकसित किया जा सकता? अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाये गये, तो हमारे संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र को इससे भी बड़े खतरे से कोई नहीं बचा सकता.
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
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