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स्मारक की राजनीति पर कुछ मौजूं सवाल

भारत की सेवा में अपना जीवन होम कर देनेवाले विभूतियों को हमने क्षेत्र, जाति, भाषा व दल की पहचान के साथ गूंथ दिया है. जो पहचान के खांचे में नहीं आ सके, उनका नाम व काम बड़ी सहजता से बिसार दिया गया.. पूर्व मंत्री अजीत सिंह को आवंटित सरकारी बंगला खाली कराये जाने से उत्पन्न […]

भारत की सेवा में अपना जीवन होम कर देनेवाले विभूतियों को हमने क्षेत्र, जाति, भाषा व दल की पहचान के साथ गूंथ दिया है. जो पहचान के खांचे में नहीं आ सके, उनका नाम व काम बड़ी सहजता से बिसार दिया गया..

पूर्व मंत्री अजीत सिंह को आवंटित सरकारी बंगला खाली कराये जाने से उत्पन्न विवाद के मद्देनजर राष्ट्रीय स्मारकों से जुड़े सवाल फिर बहस के केंद्र में हैं. गणमान्य व्यक्तियों, राजनेताओं और क्षेत्र-विशेष के उत्थान में विशिष्ट योग देनेवालों की स्मृति को समर्पित स्मारकें बनाने तथा स्थानों के नामकरण की परंपरा बहुत पुरानी है, पर आजादी के बाद से ही यह परंपरा राजनीतिक लाभ के उद्देश्य के साथ गहराई से जुड़ गयी है.

इस तरह यह प्रक्रिया विगत की स्मृतियों को बनाये रखने और उनसे प्रेरणा लेने के लिए न होकर, भविष्य के लाभ-हानि का गणित बनती गयी. अजीत सिंह जिस बंगले में रह रहे थे, उसमें लंबे अरसे तक उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का निवास रहा था. चौधरी साहब स्वतंत्रता सेनानी थे और उनका राजनीतिक जीवन किसानों के हितों के लिए समर्पित था. चौधरी साहब की समाधि ‘किसान घाट’ के नाम से दिल्ली में स्थित है. पर, अजीत सिंह और उनके समर्थक इस बंगले को भी उनका स्मारक बनाना चाहते हैं. उनका कहना है कि जब कुछ बंगले स्मारक के रूप में चिह्न्ति किये गये हैं, तो इसे चौधरी साहब का स्मारक बनाने में सरकार को परेशानी क्यों है? सरकार का कहना है कि पिछले वर्ष जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे बंगलों को स्मारक नहीं बनाने का निर्देश दिया है.

बहरहाल, यह पूरा मसला सिर्फ तर्क-वितर्क व नियमों का नहीं है. अजीत सिंह का राजनीतिक आधार पिता की विरासत है. उसी के सहारे वे चुनावी वैतरणी पार करते और मंत्री बनते रहे हैं. लोकसभा चुनाव में करारी हार ने उनसे न सिर्फ बंगला छीन लिया है, बल्कि उनके राजनीतिक भविष्य को भी भंवर में डाल दिया है. पिता के आदर्श अजीत सिंह की सोच व कर्म का हिस्सा शायद ही रहे हों, पर चौधरी साहब का नाम हमेशा उनके काम आता रहा है. अपनी राजनीति को वापस पटरी पर लाने के लिए वे फिर से उसी नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं. हालांकि इस प्रवृति के लिए सिर्फ उन्हें ही दोष देना सही नहीं होगा. स्वतंत्र भारत में स्मारकों का राजनीतिकरण कांग्रेस की देन है. इतिहास की किताबों से लेकर कस्बों के चौराहों तक हर जगह कांग्रेस ने अपने नेताओं के नाम चस्पा किये हैं. दूसरी राजनीतिक जमातों के हाथ भी जब कभी सत्ता की चाबी आयी, तो उन्होंने भी अपने नेताओं के नाम लिख कर पट्टियां टांग दीं. इसका सकारात्मक पहलू यह था कि इतिहास के हाशिये पर धकेल दिये गये नायक-नायिकाएं पटल पर उभरने लगे. नेहरू परिवार और कांग्रेस के क्षत्रपों के अलावा अन्य अनेक नाम सड़कों और संस्थाओं की पहचान बनने लगे.

शहरों के नाम बदल कर औपनिवेशिक बोझ को हल्का करने की कोशिश हुई. लेकिन, इतिहास के पुनर्पाठ तथा विरासत के विस्तार का यह पवित्र प्रयास राजनीतिक वर्चस्व की लालसा की गोद में जाकर पस्त हो गया. 1961 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री के कामराज ने मद्रास में अपनी ही मूर्ति लगाने की अनुमति दी और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उसके अनावरण के लिए पहुंचे थे. राज्य में कांग्रेस की विरोधी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने भी 1967 में अपने जीवित नेता सी अन्नादुरै की मूर्ति लगा दी. उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पूर्व लगीं मायावती की मूर्तियों ने इस प्रक्रिया को नया ही विस्तार दे दिया. महाराष्ट्र में शिवाजी और गुजरात में सरदार पटेल के नाम पर होनेवाली पहचान की राजनीति से देश भली-भांति परिचित है.

मोदी सरकार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी व पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर कई योजनाओं का नामकरण करने जा रही है. इस परंपरा में राष्ट्र-निर्माण के अगुवा महापुरुषों की स्मृतियों के साथ बड़ा अन्याय हुआ है. देश की सेवा में जीवन होम कर देनेवाले विभूतियों को हमने क्षेत्र, जाति, भाषा व दल की पहचान के साथ गूंथ दिया. जातिगत वोटों के लालच में कई नेताओं के अनेक स्मारक बना दिये गये.

जो पहचान के खांचे में नहीं आ सके, उन्हें बड़ी सहजता से बिसार दिया गया. जमीन की कमी के कारण मई, 2013 में कैबिनेट ने ‘राष्ट्रीय स्मृति’ बनाने का निर्णय लिया, जिसमें राष्ट्रीय नेताओं के स्मारक के लिए एक विशेष परिसर बनाने का प्रस्ताव किया गया था. इस संदर्भ में डॉ राममनोहर लोहिया की यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि ‘जिस गति से हम लोग अपने प्रधानमंत्रियों के लिए समाधि-स्थल बना रहे हैं, यह शहर जल्दी ही मुर्दो का शहर हो जायेगा. भविष्य की पीढ़ियों को इन मूर्तियों, संग्रहालयों और चबूतरों में से बहुतेरों को हटाना पड़ेगा’. उनका सुझाव था कि ‘जब कोई मरे तो तीन सौ बरस तक उसका सिक्का या स्मारक मत बनाओ और तब फैसला हो जायेगा कि वह आदमी वक्ती था या इतिहास का था.’

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