सतीश सिंह
आर्थिक मामलों के जानकार
singhsatish@sbi.co.in
ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आइबीसी) के सकारात्मक परिणाम दिखने लगे हैं. हालांकि, इसका सफर मुश्किलों भरा रहा है. लंबे समय की रणनीति और निरंतर सुधार की परिणति है यह. अमेरिका में पहला दिवालिया कानून 4 अप्रैल, 1800 में अस्तित्व में आया.
वर्ष 1985 तक भारत में कॉर्पोरेट इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी से निबटने के लिए सिर्फ कंपनी अधिनियम, 1956 मौजूद था. वर्ष 1985 में बीमार औद्योगिक कंपनी अधिनियम (सीका), 1985 को अधिनियमित किया गया. हालांकि, अपने आगाज से ही सीका के कुछ प्रावधान त्रुटिपूर्ण थे. इसकी धारा 22 का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया. इसके बाद बैंक एवं वित्तीय संस्थान अधिनियम, 1993 अस्तित्व में आया, लेकिन वसूली के मामले में यह कानून भी कामयाब नहीं रहा. लिहाजा, इसी अधिनियम के तहत ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) की स्थापना की गयी. शुरू में इस कानून की मदद से अच्छी वसूली हुई, लेकिन बाद में यह भी अक्षम हो गया.
फिर, वित्तीय आस्तियों के प्रतिभूतीकरण और पुनर्निर्माण और प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम 2002 (सरफेसी अधिनियम) अस्तित्व में आया. इस कानून की मदद से गृह ऋण के एनपीए खातों में अच्छी वसूली की गयी, लेकिन बाद में यह भी अप्रभावी हो गया. वर्ष 2002 में रिजर्व बैंक ने डेट रीस्ट्रक्चरिंग स्कीम (सीडीआर) की भी शुरुआत की, जिसके तहत बैंकों द्वारा ऋण पुनर्गठन के लिए व्यापक दिशा-निर्देश जारी किये गये. इसी क्रम में वर्ष 2016 में आईबीसी आया.
अपने आगाज के तीन सालों के अंदर आइबीसी ने एनपीए वसूली में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की. वर्ष 2016 से पहले कॉर्पोरेट एनपीए की वसूली 16 प्रतिशत से 25 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2016 में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया. यह वित्त वर्ष 2015 के मुकाबले 12 प्रतिशत अधिक है.
नये आंकड़ों के अनुसार, 2,542 मामलों को सितंबर, 2019 तक वादों के रूप में स्वीकृत किया गया, जिसमें से 1,045 मामलों में अपील, समाधान, परिसमापन आदि के माध्यम से समाधान निकाला गया और 1,497 वादों पर सुनवाई की प्रक्रिया चल रही है.
एक लाख रुपये के एनपीए मामलों में भी परिचालन कॉर्पोरेट लेनदार एनसीएलटी में वाद दाखिल कर रहे हैं. इस वजह से एनसीएलटी बड़े एनपीए खातों का समय से निबटारा नहीं कर पा रहा है. वर्ष 2016 के बाद से लोक अदालत में दाखिल वादों एवं उनके निबटारे में कमी आयी है. लगता है कि छोटे लेनदार सरफेसी और डीआरटी की जगह आइबीसी को तरजीह दे रहे हैं. यह देखा गया है कि 84 प्रतिशत मामलों में वसूली जानेवाली राशि दिवालिया राशि से कम है, जिसे उत्साहजनक नहीं माना जा सकता है. तेईस प्रतिशत से अधिक स्वीकृत वादों में कंपनियां बंद हो चुकी हैं, क्योंकि कम मांग और अर्थव्यवस्था में सुस्ती से तनावग्रस्त परिसंपत्तियाें के खरीदार नहीं मिल रहे हैं.
आइबीसी के तहत चालू वित्त वर्ष 2019-20 में दबाव वाली संपत्तियों के निबटान से बैंक करीब 80,000 करोड़ रुपये की वसूली कर पायेंगे. यह अनुमान रेटिंग एजेंसी इक्रा के एक अध्ययन में लगाया गया है. चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही तक आइबीसी के तहत 156 मामले सुलझाये गये, जो राशि में 3.32 लाख करोड़ रुपये थी. इनमें कुल वसूली 1.38 लाख करोड़ रुपये की हुई, जो प्रतिशत में 41.5 है. 156 कंपनियों का परिसमापन मूल्य 74,997 करोड़ था, लेकिन वसूली परिसमापन मूल्य से 184 प्रतिशत अधिक हुई.
दिवालिया समाधान प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आइबीसी) में संशोधनों को मंजूरी दी है.
यह संशोधन ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2019 के जरिये किये जायेंगे. इन संशोधनों में सबसे अहम धारा 32बी जोड़ना है, जिसमें कॉरपोरेट कर्जदार को पिछले आपराधिक कृत्यों से बचाने का प्रावधान है. उद्योग मंडल- फिक्की और इंडियन बैंक एसोसिएशन (आईबीए) के सर्वे के अनुसार, आइबीसी लागू होने से बैंकों के फंसे कर्ज की वसूली में तेजी आयी है और बैंकों की वित्तीय स्थिति भी सुधरी है.
एक लाख या उससे कम राशि वाले वादों को एनसीएलटी में दाखिल करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए सरकार को आइबीसी के तहत एनसीएलटी में वाद शुरू करने की एक लाख रुपये की न्यूनतम सीमा को बढ़ाना चाहिए. देश में एनसीएलटी बेंचों की संख्या भी बढ़ानी चाहिए. छोटे लेनदार सरफेसी और डीआरटी की जगह आइबीसी को तरजीह दे रहे हैं. यह प्रवृत्ति आइबीसी के लिए घातक है.
मौजूदा समय में बाजार में मांग नहीं होने और अर्थव्यवस्था में सुस्ती होने के कारण तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के खरीदार नहीं मिल रहे हैं. इस वजह से 23 प्रतिशत स्वीकृत वादों का निबटारा नहीं हो पाया है. निर्माण, बिजली आदि कंपनियों के पास परिसंपत्ति नहीं होती है. इनसे जुड़े वाद एनसीएलटी में दाखिल करने से एनसीएलटी के समय एवं संसाधन की बरबादी होती है, जिससे बचने की जरूरत है.
भले ही आइबीसी के शुरुआती दिनों में अपेक्षित परिणाम नहीं निकले, लेकिन अब इसके सकारात्मक परिणाम आने लगे हैं. इससे बड़े एनपीए खातों की वसूली में तेजी की संभावना बढ़ी है, जो बैंकों एवं अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए लाभदायक हो सकता है.