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संविधान की रक्षा का सवाल

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com भारतीय संविधान की 70वीं वर्षगांठ पर होनेवाले कार्यक्रमों और आयोजनों में यह प्रश्न प्रमुख है कि भारतीय संविधान के निर्देशों का क्या सचमुच पालन किया जा रहा है? अक्सर संविधान के तीसरे भाग में मूल अधिकार की बात कही जाती है, जिसमें सबको ‘समता का अधिकार’ प्राप्त है. चौदहवें और 15वें […]

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

भारतीय संविधान की 70वीं वर्षगांठ पर होनेवाले कार्यक्रमों और आयोजनों में यह प्रश्न प्रमुख है कि भारतीय संविधान के निर्देशों का क्या सचमुच पालन किया जा रहा है? अक्सर संविधान के तीसरे भाग में मूल अधिकार की बात कही जाती है, जिसमें सबको ‘समता का अधिकार’ प्राप्त है.

चौदहवें और 15वें अनुच्छेद में यह कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा’ और ‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.’ स्पष्टत: यहां राज्य की भूमिका का महत्व है और पिछले 70 वर्ष में राज्य की भूमिका पूर्ववत नहीं रही है. राज्य की भूमिका बदल जाये और बार-बार हम संविधान में उल्लिखित राज्य के कार्यभार का केवल हवाला देते रहें, यह चिंतनीय है.

संविधान की ‘उद्देशिका’ में भारत को ‘संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ माना गया है, ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ और ‘बंधुता’ की बात कही गयी है.

भारतीय युवाओं में जागरूकता लाने के लिए यह आवश्यक है कि वे खुल कर संविधान की प्रस्तावना पर बेबाकी से अपनी राय प्रकट करें और यह बताएं कि क्या सचमुच हमें अभिव्यक्ति की आजादी है? विश्वविद्यालय का कोई छात्र और अध्यापक विवि के अधिकारियों और कुलाधिपति के निर्णयों और उनकी कार्यपद्धतियों पर खुल कर प्रश्न क्यों नहीं कर सकता? क्या पद प्राप्ति के पश्चात सबके रवैयों में बदलाव का आना और विरोधी स्वरों को दबाना, संविधान के विरुद्ध नहीं है? क्या आज सचमुच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें प्राप्त है?

जो राजनीतिक दल धर्म और जाति के आधार पर चुनाव लड़ते हैं, मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति करते हैं, क्या वे सचमुच संविधान के रक्षक हैं?

हमें यह याद रखना चाहिए कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में 68 दिन (31 अक्तूबर 1972- 23 मार्च 1973) तक सुनवाई हुई थी और सुप्रीम कोर्ट के 13 न्यायाधीशों की पीठ में संविधान की मूल संरचना को संसद द्वारा संशोधित नहीं किये जाने का निर्णय दिया था. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि संविधान संरचना के प्रमुख मूलभूत तत्व हैं- संविधान की सर्वोच्चता, धर्मनिरपेक्ष चरित्र, संघीय स्वरूप, न्यायिक समीक्षा, राष्ट्र की एकता व अखंडता, संसदीय प्रणाली, कानून का शासन, मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन और न्याय तक प्रभावकारी पहुंच. इन नौ प्रमुख तत्वों में से आज प्रत्येक पर विशेषत: संविधान की सर्वोच्चता और धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर विचार की अधिक आवश्यकता है.

जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन्होंने संविधान से कम बदसलूकी नहीं की है. संविधान की शपथ लेनेवालों ने ही संविधान को कमजोर किया है और आज भारत का संविधान कम लहूलुहान नहीं है. धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर संविधान में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, पर वोट और सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दलों ने भारतीय नागरिकों को धर्म और जाति में विभाजित किया है. ‘बांटो और राज करो’ की ब्रिटिश राजनीति आज भारत में कहीं अधिक लागू है.

राष्ट्र-राज्य की संकल्पना को लेकर ब्रिटिश भारत में दो मत और विचार थे. एक मत का आधार धार्मिक था, जिसके मुख्य सिद्धांतकार और प्रवक्ता सावरकर और जिन्ना थे, जिन्होंने ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘मुस्लिम राष्ट्र’ की बात की. पाकिस्तान के निर्माण के पीछे यह सिद्धांत प्रमुख रहा और भारत ने इसके विरुद्ध एक भिन्न राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना की- सेकुलर राष्ट्र की. जिसे ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ (भारत का विचार), संविधान की मूल भावना और आत्मा कहा जाता है, वह यही है.

पिछले सप्ताह 9 दिसंबर को 106 के मुकाबले 306 लोकसभा में और राज्यसभा में 11 दिसंबर को 105 के मुकाबले 125 वोट से नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी) पारित हुआ, जिस पर राष्ट्रपति ने मुहर लगा दी है. इस विधेयक में तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों- पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के मुस्लिम-रहित कुछ धर्म- हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई को ही नागरिकता देने की बात है, जिससे इसे मुस्लिम विरोधी ही नहीं, संविधान के विरुद्ध भी कहा गया है, क्योंकि इसका आधार धार्मिक है. धार्मिक प्रताड़ना अन्य पड़ोसी देशों में भी हो रही है. इस बिल के विरोध में विरोध का सिलसिला जारी है.

फिलहाल इस बिल पर बात न कर संविधान पर ही बात करें, तो क्या यह बिल संविधान के विरुद्ध नहीं है? देश के सेकुलर चरित्र को बदलनेवाली शक्तियां संविधान पर हमला कर रही हैं. इस विधेयक के बाद संविधान की सुरक्षा का सवाल प्रमुख हो गया है. क्या सांसद संविधान की रक्षा कर रहे हैं?

संविधान की रक्षा से तात्पर्य उसकी आत्मा की रक्षा से है. अब यूरोपीय संघ भी भारतीय संविधान को कायम रखने की बात कह रहा है. क्या अब केवल सुप्रीम कोर्ट ही भारतीय संविधान की रक्षा करेगा? भारत का भविष्य भारतीय संविधान की रक्षा से जुड़ा है और भारतीय संविधान की रक्षा सुप्रीम कोर्ट के हवाले है.

(लेखक के ये निजी विचार हैं)

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