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सीएबी से घबराने की जरूरत नहीं

अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार awadheshkum@gmail.com नागरिकता विधेयक का संसद के दोनों सदन से पारित होना एक ऐतिहासिक घटना है. इस विधेयक द्वारा नागरिकता कानून, 1955 में संशोधन किया गया है, ताकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आये हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोगों को आसानी से भारत की नागरिकता मिल सके. किसी […]

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
awadheshkum@gmail.com
नागरिकता विधेयक का संसद के दोनों सदन से पारित होना एक ऐतिहासिक घटना है. इस विधेयक द्वारा नागरिकता कानून, 1955 में संशोधन किया गया है, ताकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आये हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोगों को आसानी से भारत की नागरिकता मिल सके.
किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम पिछले 11 साल यहां रहना अनिवार्य है. इस नियम को आसान बनाकर अवधि को एक साल से लेकर पांच साल कर दिया गया है. नागरिकता कानून, 1955 के मुताबिक, अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती थी. उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है, जो वैध यात्रा दस्तावेज जैसे पासपोर्ट और वीजा के बगैर आये हों या वैध दस्तावेज के साथ तो आये, लेकिन अवधि से ज्यादा समय तक रुक जाएं.
अवैध प्रवासियों को या तो जेल में रखा जा सकता है या विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 के तहत वापस उनके देश भेजा जा सकता है. नरेंद्र मोदी सरकार ने साल 2015 और 2016 में 1946 और 1920 के इन कानूनों में संशोधन करके अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आये हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को छूट दे दी है.
विरोध नहीं होता, तो नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 में ही पारित हो जाता. आठ जनवरी, 2019 को विधेयक को लोकसभा में पास कर दिया गया, लेकिन राज्यसभा में पारित हो नहीं सकता था. इस विधेयक को विभाजन के समय आये शरणार्थियांें की निरंतरता के रूप में देखे जाने की जरूरत थी. किंतु कई प्रकार की गलतफहमी पैदा करने की कोशिश हुई. विरोध का एक बड़ा मुद्दा है इसमें मुस्लिम समुदाय को अलग रखना. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश तीनों इस्लामिक गणराज्य हैं. पाकिस्तान में शिया, सुन्नी, अहमदिया की समस्या इस्लाम के अंदर का संघर्ष है.
वस्तुतः वहां उत्पीड़न दूसरे धर्म के लोगों का है. दूसरे, मुसलमान को भारत की नागरिकता का निषेध नहीं है. कोई भी भारत की नागरिकता कानून के तहत आवेदन कर सकता है और अर्हता पूरी होने पर नागरिकता मिल सकती है. यह तर्क भी हास्यास्पद है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो समानता के अधिकार की बात करता है. इसमें कौन सी समानता का उल्लंघन है?
तब तो इसके पहले जिनको नागरिकता दी गयी, वह सब असंवैधानिक हो जायेगा? अनुच्छेद 14 उचित वर्गीकरण की बात करता है और किसी एक समुदाय को नागरिकता दी जाती, तो शायद इसका उल्लंघन होता. यह कहा जा रहा है कि इससे भारत पर भार बढ़ेगा. निस्संदेह, इस कानून के बाद उत्पीड़ित वर्ग भारत आना चाहेंगे. पर इस समय तो ये लोग भारत में वर्षों से रह रहे हैं. इसलिए अलग से भार बढ़ने की समस्या नहीं है.
इसे लेकर सबसे ज्यादा विरोध पूर्वोत्तर में दिख रहा है. पूर्वाेत्तर क्षेत्र में यह आशंका पैदा करने की कोशिश हो रही है कि अगर नागरिकता संशोधन लागू हो गया, तो पूर्वोत्तर के मूल लोगों के सामने पहचान और आजीविका का संकट पैदा हो जायेगा. लेकिन, यह व्यवस्था पूरे देश के लिए बनी है.
अमित शाह द्वारा मणिपुर को इनरलाइन परमिट (आइएलपी) के तहत लाने की घोषणा के बाद पूर्वाेत्तर के तीन राज्य अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मणिपुर पूरी तरह से नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 के दायरे से बाहर हो गये. शेष तीन- नागालैंड (दीमापुर को छोड़ कर जहां आइएलपी लागू नहीं है), मेघालय (शिलॉन्ग को छोड़ कर) और त्रिपुरा (गैर आदिवासी इलाकों को छोड़ कर, जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल नहीं हैं) को प्रावधानों से छूट मिली है.
असम को लें तो छठी अनुसूची के तहत आनेवाले तीन आदिवासी इलाकों (बीटीसी, कर्बी-अंगलोंग और दीमा हसाओ) के अलावा यह असम के सभी हिस्सों पर लागू होगा. असम में इस कानून से केवल दो लाख लोगों को लाभ होगा. गृहमंत्री ने स्पष्ट कहा है कि जो इलाके बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत आते हैं, उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है, विधेयक वहां लागू नहीं होगा.
नरेंद्र मोदी सरकार ने सितंबर 2015 में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू-सिख शरणार्थियों को वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी भारत में रुकने की अनुमति दी थी. ये सुविधा उनको दी गयी थी, जो 31 दिसंबर, 2014 को या इससे पहले भारत आ चुके थे.
वस्तुतः इसे सांप्रदायिक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए. वहां हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों एवं विभाजन पूर्व भारत का नागरिक रह चुके ईसाइयों पर जुल्म होगा, तो वे अपनी रक्षा और शरण के लिए किस देश की ओर देखेंगे?
वास्तव में 1947 में शरणार्थी के रूप में पाकिस्तान से आनेवाले हिंदुओं एवं सिखों को जिस तरह स्वाभाविक नागरिकता मिल गयी, उसी व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए इनको भी स्वीकार किया जाना चाहिए था. विभाजन के समय अल्पसंख्यकों की संख्या पाकिस्तान में 22 प्रतिशत के आसपास थी, जो आज तीन प्रतिशत है. बांग्लादेश की यह 23 प्रतिशत आबादी आठ प्रतिशत से कम रह गयी है. कहां गये वे लोग? वहां जिस तरह के अत्याचार अल्पसंख्यकों पर हुए, वे अकल्पनीय थे.
साल 1950 में नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच दिल्ली समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों ने अपने यहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, उनका धर्म परिवर्तन नहीं करने से लेकर सभी प्रकार का नागरिक अधिकार देने का वचन दिया.
इस समझौते के बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यक वहां के प्रशासन की दया पर निर्भर हो गये. धार्मिक भेदभाव और जुल्म की इंतिहा हो गयी. शत्रु संपत्ति कानून का दुरुपयोग करते हुए संपत्तियों पर जबरन कब्जा सामान्य बात हो गयी और इसके खिलाफ शिकायत के लिए कोई जगह नहीं. अत्याचार की खबरें आती रहीं, लेकिन भारत ने कभी प्रभावी हस्तक्षेप करने का साहस नहीं दिखाया.
सचमुच, उनको नागरिकता देकर भारत अपने पूर्व के अपराधों का परिमार्जन करेगा, जिनके कारण कई करोड़ लोग या तो धर्म परिवर्तन की त्रासदी झेलने को विवश हो गये या फिर भारत की मदद की आस में अत्याचार सहते चल बसे. इस कानून से इतिहास के एक नये अध्याय का निर्माण हुआ है, जिसमें आनेवाले समय में कई ऐसे पन्ने जुड़ेंगे, जो अनेक परिवर्तनों के वाहक बनेंगे.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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