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न्याय और निर्धन

सक्षम और सुलभ न्यायिक प्रक्रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था की आधारभूत आवश्यकता है. विधि-विधान के अनुरूप न्याय पाना हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, लेकिन निर्धन व निम्न आय वर्ग के व्यक्ति के लिए न्यायालयों की चौखट तक पहुंचना बहुत कठिन हो गया है. इस दुर्भाग्यपूर्ण सच को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी रेखांकित करना पड़ा है. […]

सक्षम और सुलभ न्यायिक प्रक्रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था की आधारभूत आवश्यकता है. विधि-विधान के अनुरूप न्याय पाना हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, लेकिन निर्धन व निम्न आय वर्ग के व्यक्ति के लिए न्यायालयों की चौखट तक पहुंचना बहुत कठिन हो गया है.

इस दुर्भाग्यपूर्ण सच को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी रेखांकित करना पड़ा है. उन्होंने कहा है कि न्याय प्रक्रिया के बहुत महंगे होते जाने से सामान्य लोगों के लिए न्यायालयों, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट एवं हाइकोर्ट, से न्याय की गुहार लगा पाना असंभव होता जा रहा है. हमारे देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा या तो निर्धन है या उसकी आय बहुत कम है. यह हिस्सा अन्य कई वंचनाओं से भी त्रस्त है.

शोषण, प्रताड़ना एवं अपराध का सर्वाधिक शिकार भी वही होता है तथा ऐसा अक्सर प्रशासनिक तंत्र और समाज के प्रभावशाली व साधनसंपन्न वर्ग के द्वारा किया जाता है. हमारी न्यायिक प्रणाली का सबसे बड़ा दोष सुनवाई में देरी है. पिछले वर्ष के आँकड़ों के अनुसार, कुल लंबित मामलों की संख्या 3.3 करोड़ के आसपास है, जिनमें से 2.84 करोड़ मामले अधीनस्थ न्यायालयों में हैं. इनमें से 40 प्रतिशत मामले पांच वर्ष से अधिक समय से चल रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय में लंबित 30 प्रतिशत मामले 10 वर्ष से अधिक पुराने हैं. सुनवाई टलते रहने का भार कम आय के लोगों के लिए बहुत अधिक होता है.

बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो संभावित दंड से अधिक समय जेलों में बीता चुके हैं और कई लोगों को समय से जमानत भी नहीं मिलती है, क्योंकि वे महंगे वकील नहीं कर पाते या न्यायालय का ध्यान नहीं खींच पाते. दीवानी मामलों में संपत्ति के मूल्य से अधिक व्यय कचहरियों के चक्कर लगाने में हो जाता है. पारदर्शिता की कमी और भ्रष्टाचार का बोलबाला भी हमारी न्यायिक प्रणाली को पंगु बनाता है. जनसंख्या व मामलों की संख्या के अनुपात में न्यायाधीशों व न्याय अधिकारियों के न होने से भी पूरी प्रक्रिया लचर और जटिल हो गयी है. देशभर में जजों के 18 हजार से अधिक पद रिक्त हैं, जो निर्धारित पदों का लगभग 23 प्रतिशत है. ऐसा ही हाल पुलिस और जेल प्रशासन में है.

स्त्रियों व समाज के कमजोर वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व भी न्यायिक प्रणाली में नहीं है. इस वर्ष की भारत न्याय रिपोर्ट में कोई भी राज्य न्याय देने के मामले में 60 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल नहीं कर सका है. सकल घरेलू उत्पादन का केवल 0.08 प्रतिशत ही न्यायपालिका पर व्यय होता है. उल्लेखनीय है कि न्याय में देरी से भारत को 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हो जाता है, जो कुल घरेलू उत्पादन का 0.5 प्रतिशत है.

देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी निशुल्क कानूनी सहायता पाने के दायरे में आती है, परंतु इस मद में प्रति व्यक्ति वार्षिक व्यय मात्र 75 पैसे है. न्याय तंत्र को प्रभावी बनाने के लिए इन समस्याओं के निदान को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, अन्यथा समाज अशांति, अस्थिरता और अराजकता से ग्रस्त बना रहेगा.

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