पवन के वर्मा
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मानसिकता में बदलाव की जरूरत
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के लिए चालान दरों में ऊंची वृद्धि ने कुछ दिलचस्प मुद्दे उछाले हैं, जो इस फैसले के केवल कानूनी पक्षों के परे हैं. देशभर में इन कदमों की वांछनीयता पर जनमत विभाजित है. जहां कुछ लोगों का यह यकीन है कि इससे ट्रैफिक […]
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के लिए चालान दरों में ऊंची वृद्धि ने कुछ दिलचस्प मुद्दे उछाले हैं, जो इस फैसले के केवल कानूनी पक्षों के परे हैं. देशभर में इन कदमों की वांछनीयता पर जनमत विभाजित है. जहां कुछ लोगों का यह यकीन है कि इससे ट्रैफिक नियमों के अनुपालन में जरूरी अनुशासन आयेगा, वहीं कुछ अन्य लोगों का मानना है कि यह वृद्धि एक सामान्य नागरिक के लिए अवहनीय है. लेकिन हमेशा की तरह, सत्य इन दोनों नजरिये के बीच ही कहीं अवस्थित है.
यह सही है कि जुर्माने की नयी राशियां पुरानी दरों से बहुत ऊंची हैं, जिसमें सरकार की स्पष्ट नीयत उन्हें बढ़ाने की नहीं, बल्कि ट्रैफिक दंडों की एक नयी प्रणाली लागू करने की है. अब ट्रैफिक की लाल बत्ती की अवमानना पहले की भांति मात्र सौ रुपये में निबट जाने की बजाय दस गुनी ज्यादा यानी हजार रुपये के जुर्माने में बदल गयी है,
जबकि सीट बेल्ट लगाये बगैर वाहन चलाने के लिए पहले के तीन सौ रुपये की जगह अब हजार रुपये चुकाने होंगे, इत्यादि. इनके अलावा, कुछ नये दंड प्रावधान भी जोड़े गये हैं, जिनकी बड़ी जरूरत थी. पहले किसी एंबुलेंस को रास्ता न देने पर किसी को कोई जुर्माना नहीं चुकाना था.
अब ऐसा अपराधी दस हजार रुपये दंड का भागी होगा. पूर्व में किसी नाबालिग द्वारा कार ड्राइव करने पर कोई अर्थदंड नहीं लगता था. अब इसके लिए न केवल पचीस हजार रुपये देने होंगे, वरन तीन साल जेल में गुजारने होंगे और उक्त गाड़ी का निबंधन भी रद्द होगा.
जुर्माना राशियों की इस छलांग का उद्देश्य वाहन स्वामियों को ट्रैफिक नियमों के अनुपालन हेतु मजबूर करना है. क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो लोग इन नियमों के प्रति पहले की ही तरह लापरवाही दिखाना जारी रखते, जिसमें हमारे देश का रिकॉर्ड इसे विश्व के सर्वाधिक अनुशासनहीन राष्ट्रों की पांत में बिठाता है.
अब तक बहुत से वाहन चालक इन नियमों को धता बताते रहे, ट्रैफिक बत्ती की निर्भीक अवहेलना करते रहे, गाड़ियों को मनमाफिक लेनों में दौड़ाते रहे, किसी भी तरफ से आगे निकलते रहे, गति सीमाओं को अंगूठा दिखाते रहे और सड़कों को निजी जागीरें मानते रहे.
इसलिए, इस क्षेत्र में सुव्यवस्था लाने को कुछ तो किया जाना ही था. मगर जो कुछ दिलचस्प होने के साथ ही एक जनता के रूप में हमारी मानसिकता का भी परिचय देता है, वह सरकार का इस निष्कर्ष पर पहुंचना है कि हमारे स्वच्छंद व्यवहारों को केवल कठोर कदमों से ही नियंत्रित किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो हममें नागरिक बोध का एक अंतर्निहित अभाव है.
हम स्वेच्छा से तथा एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के ख्याल से नियमों का सम्मान नहीं करते हैं. हम परामर्शों से नहीं जागते हैं. हम अपने व्यवहारों का ढांचा खुद ही बदलने के प्रति उन्मुख नहीं होते हैं. हमें इस प्रयोजन हेतु कानूनी डंडे की जरूरत महसूस होती है.
क्या इस अर्थ में हम अन्य देशों के नागरिकों से बुनियादी रूप से अलग हैं? विश्व के अधिकतर देशों में ट्रैफिक नियमों का अनुपालन होता है और कई ऐसे देशों में भी अनुपालन होता है, जहां जुर्माने के प्रावधान इतने कठोर नहीं हैं. ऐसा क्यों है कि सार्वजनिक नियमों के अनुपालन का यह आंतरिक तंत्र हमारे यहां काम नहीं कर पाता? यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि केवल कठोर दंड ही हमें बेहतर नागरिक बना सकता है, तो फिर एक समाज के रूप में हमारे सीखने को कई अहम सबक हैं.
वैसी स्थिति में क्या हमें सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी फैलाने, कहीं भी कतार तोड़ने, किसी अनुसूचित स्मारक को क्षतिग्रस्त करने अथवा सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए भी इतने ही कड़े आर्थिक दंडों की जरूरत नहीं है? क्या इसका अर्थ यह है कि एक बेहतर समाज बनने के लिए हमें अपनी समूची मानसिकता में परिवर्तन की आवश्यकता है?
इसका एक अन्य अहम पहलू भी है. क्या हम दंड प्रणाली लागू करनेवाली व्यवस्था परिवर्तित किये बगैर सिर्फ अपनी दंड प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं?
यह कोई छिपी बात नहीं कि ट्रैफिक चालानों को पुलिस अपनी व्यक्तिगत आय वृद्धि के मालदार स्रोत के रूप में देखती है. आखिर इस तरह के भ्रष्टाचार को हम कैसे रोकेंगे? कानून का सच्चाई से अच्छी तरह पालन करनेवाले नागरिकों के लिए इस स्थिति का अर्थ क्या होता है?
व्यावसायिक वाहन चालकों को भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों द्वारा मनमाने ढंग से परेशान किये जाने को किस तरह से रोका जा सकेगा? कुल मिलाकर देखें, तो सारभूत तत्व यह है कि किसी प्रणाली को उसके सकल परिणामों के अलावा जरूरी आनुषंगिक परिवर्तनों समेत समग्र रूप से उपचारित किये बिना सुधारा नहीं जा सकता.
निष्कर्षतः, कड़वी सच्चाई यही है कि किसी भी समाज के लिए, और खासकर हमारे लिए, दंड तो जरूरी हैं. प्रख्यात राजनीतिज्ञ चाणक्य इस बिंदु पर स्पष्ट थे कि किसी समाज को सबके हित में नियमों के अनुसार संचालित करने को उचित, निष्पक्ष तथा पारदर्शी दंड प्रणाली आवश्यक है, जो प्रभावी तो हो, परंतु अत्यंत कठोर न हो. क्या ऐसा माना जाये कि नितिन गडकरी चाणक्य की इस शिक्षा का आधा अनुपालन कर सके हैं?
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