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कितनी मंदी और कितनी चिंता?
डॉ अश्वनी महाजन एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू ashwa-imahaja-@rediffmail.com बीते 30 अगस्त 2019 को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा अप्रैल से जून की तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े प्रकाशित किये गये हैं, जिनके अनुसार इस तिमाही में पिछले छह सालों में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ यानी पांच प्रतिशत आकलित की गयी है. अब देखना यह है […]
डॉ अश्वनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
ashwa-imahaja-@rediffmail.com
बीते 30 अगस्त 2019 को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा अप्रैल से जून की तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े प्रकाशित किये गये हैं, जिनके अनुसार इस तिमाही में पिछले छह सालों में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ यानी पांच प्रतिशत आकलित की गयी है.
अब देखना यह है कि क्या यह धीमापन किसी गहरी मंदी की ओर संकेत कर रहा है या एक माध्यमिक स्थिति की ओर? पिछली तिमाही में जीडीपी ग्रोथ में आयी कमी की तह में जायें, तो पता चलता है कि सामूहिक आंकड़ों के अनुसार इस तिमाही में पिछले वर्ष की तुलना में ग्रोथ दर 7.7 प्रतिशत से घटकर पांच प्रतिशत रह गयी है, लेकिन यदि क्षेत्रक के अनुसार आंकड़ों को देखें, तो अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्रक ऐसे हैं, जिनमें सात प्रतिशत से ज्यादा ग्रोथ हुई है.
वे हैं गैस इलेक्ट्रिसिटी गैस वॉटर सप्लाई और अन्य सेवाएं (8.6 प्रतिशत) व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार एवं ब्रॉडकास्टिंग (7.1 प्रतिशत), पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, प्रति रक्षा एवं अन्य सेवाएं (8.5 प्रतिशत). खनन में 2.7 प्रतिशत और मैन्युफैक्चरिंग में 0.2 प्रतिशत ही हुई है. कंस्ट्रक्शन में ग्रोथ 5.7 प्रतिशत और वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट एवं प्रोफेशनल सेवाओं में भी 5.9 प्रतिशत ग्रोथ आंकी गयी है.
पिछली तिमाही में अधिकतर देशों में धीमापन आया है. अमेरिका में इस वर्ष की पहली तिमाही में ग्रोथ 3.1 प्रतिशत थी, जो दूसरी तिमाही में मात्र 2.1 प्रतिशत रिकाॅर्ड की गयी.
यूरोपीय संघ में पहली तिमाही की ग्रोथ 0.4 प्रतिशत थी, जो दूसरी तिमाही में मात्र 0.2 प्रतिशत रह गयी. चीन की ग्रोथ पहली तिमाही में 6.4 प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत रह गयी. आज विश्व के सब देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक देश की मंदी बाकी देशों को प्रभावित करती है. इसलिए वैश्विक मंदी का भारत पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक ही है.
अर्थव्यवस्था की गति को सामान्यतः मांग की गति से मापा जाता है. अर्थव्यवस्था में चार स्रोतों से मांग सृजित होती है. पहला स्रोत है उपभोक्ता मांग. उपभोक्ता चिरस्थायी एवं गैर-चिरस्थायी दोनों प्रकार की वस्तुओं की मांग करते हैं. पिछली तिमाही में सभी उपभोक्ता वस्तु बनानेवाली कंपनियों की मांग में वृद्धि हुई है.
कहा जा सकता है कि चाहे चिरस्थायी उपभोक्ता वस्तुएं हों या रोजमर्रा की गैर-चिरस्थायी उपभोक्ता वस्तुएं, अर्थव्यवस्था में धीमेपन के लक्षण नहीं दिखते. दूसरा है सरकारी खर्च. अप्रैल-जून की तिमाही में पिछली वर्ष की तुलना में सरकारी खर्च में 8.84 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो किसी भी दृष्टि से संतोषजनक नहीं है. तीसरा स्रोत है निवेश मांग. पिछले वर्ष की इसी तिमाही की तुलना में इस वर्ष निवेश की ग्रोथ पहले से जरूर कम हुई है, और यह मात्र 4 प्रतिशत रही है. चौथा स्रोत निर्यात मांग है. देश में निर्यात नहीं बढ़ पा रहे हैं, लेकिन दुनिया में चल रहे व्यापार युद्ध के चलते इस संबंध में स्थिति डांवाडोल रहनेवाली है. यह भी सच है कि यह स्थिति विश्वभर में है.
समझना होगा कि जहां निर्यातों में मंदी अंतरराष्ट्रीय कारणों से होती है, आॅटोमोबाइल की मांग में कमी घरेलू कारणों से है. घरेलू कारण मंदी नहीं, बल्कि बैंकिंग और वित्तीय है.
गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एनपीए की समस्याओं से गुजर रहा है. इस समस्या का बैंकों द्वारा ऋणों पर खासा असर पड़ा. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां जो बड़ी मात्रा में वाहन और घर खरीदने के लिए ऋण दे रही थीं, उनकी क्षमता में भारी कमी आयी है. अर्थव्यवस्था में रियल इस्टेट ग्रोथ को बढ़ाने का काम कर सकता है. यदि घरों की मांग देखें, तो पता चलता है कि बैंको द्वारा रियल इस्टेट के लिए पहले से ज्यादा तेजी से ऋण दिये गये. इसका असर यह हुआ कि घर ज्यादा बिके.
इस बार के बजट में एफोर्डेबल हाउसिंग के लिए जो बल दिया गया है, उसका असर जल्दी ही घरों की मांग पर पड़ेगा. इसी सप्ताह रिजर्व बैंक द्वारा लिक्विडिटी और मांग को बढ़ाने के संकल्प को भी सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए. पहली बार रिजर्व बैंक द्वारा महंगाई रोकने के प्रयास से इतर वास्तविक अर्थव्यवस्था की तरफ ध्यान दिख रहा है. यह शुभ संकेत है. रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए कई उपाय कर सकता है.
काॅरपोरेट जगत सरकार पर दबाव बना रहा है कि उसके लिए राहत पैकेज का इंतजाम हो. लेकिन यह सही कदम नहीं होगा. जरूरत है कि चिरस्थायी उपभोक्ता वस्तुओं, घरों और वाहनों की मांग बढ़ायी जाये. इस काम के लिए प्रमुख भूमिका बैंकों की होगी.
हालांकि, पिछले एक साल में रेपोरेट में 1.1 प्रतिशत की कमी की गयी है, लेकिन उसमें और अधिक कमी की संभावना है. ब्याज दरों को घटाकर हम सभी प्रकार की मांग को बढ़ा सकते हैं. उधर सरकारी खर्च बढ़ाने के लिए राजस्व बढ़ाना तो जरूरी है ही, लेकिन वर्तमान मंदी की स्थिति में यदि सरकार राजकोषीय घाटे को थोड़ा बढ़ा भी दे, तो उससे कोई विशेष खतरा नहीं है.
सरकार को भी अपनी मशीनरी को चुस्त-दुुरुस्त करना होगा. जिन लघु और अन्य उद्योगों के बिल सरकार के पास बकाया हैं, उनका तुरंत भुगतान सिस्टम में लिक्विडिटी बढ़ा सकता है.
जीएसटी के बकाया रिफंडों को भी जारी किया जाना चाहिए, ताकि व्यवसायों के पास चालू पूंजी बढ़ सके. बड़ी विदेशी कंपनियां अपने व्यवसाय को भारत में कम और विदेशों में ज्यादा दिखाकर टैक्स देने से बच रही हैं. इसके लिए सरकार को अपने सिस्टम को दुरुस्त करना होगा, ताकि इससे राजस्व बढ़ाकर खर्चों की पूर्ति की जा सके.
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