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प्रलेस के सोच में बदलाव जरूरी

नूर जहीर लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता noorzaheer4@gmail.com देश के सबसे बड़े और पुराने लेखक संगठन- प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)- का अधिवेशन मध्य सितंबर में जयपुर में आयोजित होगा. साल 1936 में कायम हुए इस संगठन के सामने आज अनेक चुनौतियां भी हैं. इनमें से एक पदाधिकारी मंडलों में महिलाओं का न होना है. कहीं किसी […]

नूर जहीर

लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता
noorzaheer4@gmail.com
देश के सबसे बड़े और पुराने लेखक संगठन- प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)- का अधिवेशन मध्य सितंबर में जयपुर में आयोजित होगा. साल 1936 में कायम हुए इस संगठन के सामने आज अनेक चुनौतियां भी हैं. इनमें से एक पदाधिकारी मंडलों में महिलाओं का न होना है.
कहीं किसी इकाई की कार्यकारिणी में भूले-भटके किसी लेखिका का होना, महिला लेखन, खास कर युवा लेखिकाओं के लेखन, पर चर्चा का अभाव यह साबित करता है कि संगठन उसी रूढ़िवादी सोच में फंसा हुआ है कि एक महिला इस पद की जिम्मेदारी नहीं निभा सकती, उसकी सोच घर तक सीमित है और वह परिवार में इतनी जकड़ी है कि यहां-वहां जा नहीं सकती, जिससे संगठन के काम का नुकसान होगा.
याद दिला दें कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद में डॉ रशीद जहां का उतना ही योगदान था, जितना कि सज्जाद जहीर का. घोषणापत्र लिखने से लेकर पश्चिमी भारत में, जहां के लेखकों से सज्जाद जहीर की कोई जान-पहचान नहीं थी, डॉ रशीद जहां ने ही पहल की थी.
उन्होंने फैज अहमद फैज, कृष्ण चंदर, रजिंदर सिंह बेदी आदि से उन्हें मिलवाया था. साल 1933 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में, जो दरअसल नींव है इस लेखक संघ की, दो कहानियां डॉ रशीद जहां की हैं.
इस्मत चुगताई, हाजरा बेगम, रजिया जहीर जैसी बेबाक लेखिकाओं ने उन्हीं के प्रोत्साहन से कलम पकड़ी और प्रलेस से जुडीं. फिर भी संगठन इस पुरखिन को सही मकाम देना तो दूर, उसके योगदान को ही भुला बैठा है. शायद भय है कि यदि उसे याद किया, तो आज की लेखिकाओं को भी पहचानना पड़ेगा.
दूसरी चुनौती है दलित साहित्य और विमर्श की. दलित साहित्य एक चिंगारी से शुरू हुआ था और बहुत तेजी से एक दावानल में बदल गया है. शुरुआत भले ही जीवनियों और आत्मकथाओं से हुई हो, लेकिन आज का दलित लेखक हर शैली में लिख रहा है और उन विधाओं की तरफ हाथ बढ़ा रहा है, जिन्हें तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों ने अभी जाना-समझा भी नहीं है.
साहित्य की नजर से सोचें, तो एक तसल्लीबख्श मंथन चल रहा है, जिसमें से बहुत कुछ सुंदर, यथार्थवादी और सराहनीय निकलने की आशा है. क्या प्रलेस इस मंथन से लाभान्वित होना चाहता है या प्रेमचंद के दलित पात्रों पर गोष्ठी करके ही संतुष्ट है? आज जब दलितों की जबान खुली है, तो बंद तो नहीं होगी, क्योंकि बात सच्ची व तथ्यों से भरपूर है. लेकिन सीधी-सच्ची बात को संगठन अपनी बात में शामिल करने से क्यों कतरा रहा है?
जिस राजनीतिक पार्टी से इस संगठन का जुड़ाव शुरू से है, उसने अभी-अभी एक बहुत जुझारू दलित नेता को महासचिव का कार्यभार सौंपा है. क्या इसकी प्रतिकृति इस पार्टी से जुड़े लेखक संगठन में नहीं होनी चाहिए? प्रलेस में दलित और महिला लेखकों को जोड़ा भी जाये और उन्हें जिम्मेदारियां भी सौंपी जायें, ताकि उन पर भार हो कि वे संगठन को मजबूत करें और उनकी राय पर खुलकर चर्चा हो.

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