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विश्व सिनेमा का बदलता भूगोल

अजित राय फिल्म विश्लेषक ajitraieditor@gmail.com विश्व सिनेमा में कभी यूरोप-अमेरिका की तूती बोलती थी, पर अब यह भूगोल बदल गया है. अब एशिया और अफ्रीका की फिल्मों ने केंद्रीय जगह बना ली है. कान, बर्लिन, वेनिस जैसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में इन्हें पुरस्कार मिल रहे हैं. दुनिया के सबसे अहम कान फिल्म समारोह में भी […]

अजित राय

फिल्म विश्लेषक

ajitraieditor@gmail.com

विश्व सिनेमा में कभी यूरोप-अमेरिका की तूती बोलती थी, पर अब यह भूगोल बदल गया है. अब एशिया और अफ्रीका की फिल्मों ने केंद्रीय जगह बना ली है.

कान, बर्लिन, वेनिस जैसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में इन्हें पुरस्कार मिल रहे हैं. दुनिया के सबसे अहम कान फिल्म समारोह में भी यही देखने को मिला. पेद्रो अलमोदोवार, केन लोच, टेरेंस मलिक, क्वेंतिन तारंतीनो, मार्को बेलोचियो, जिम जारमुश, जेवियर दोलान, अब्दुल लतीफ केचीचे जैसे दिग्गज यूरो-अमेरिकी फिल्मकारों को पछाड़ कर इस बार दक्षिण कोरिया के बोंग जून हो ने फिल्म ‘पारासाइट’ के लिए बेहतरीन फिल्म का पुरस्कार जीत कर लगातार दूसरे साल एशिया का परचम लहराया है. पिछले साल जापान के कोरे इडा हिरोकाजू को ‘शॉपलिफ्टर’ के लिए यह सम्मान मिला था.

संयोग से इन दोनों फिल्मकारों की विषय-वस्तु एक ही है- एशिया के दो सबसे अमीर देशों में पसरती गरीबी. कान फिल्म समारोह के इतिहास में फ्रेंच-सेनेगल की मैती दिओप पहली अश्वेत महिला फिल्मकार हैं, जिन्हें इस बार ‘अटलांटिक्स’ के लिए दूसरे सबसे खास पुरस्कार ‘ग्रैंड पिक्स’ से नवाजा गया है. यह फिल्म सेनेगल में प्रवासी मजदूरों की जिंदगी और सेक्स की राजनीति पर आधारित है.

इस समारोह में निर्णायक मंडल के प्रमुख अलेजांद्रो गोंजालेज इनारितू द्वारा घोषित लगभग सभी पुरस्कार नये फिल्मकारों को मिले हैं.

इनमें मैती दिओप के अलावा बेल्जियम के ज्यां पियरे और लुक दारदेन बंधु उल्लेखनीय हैं. फिलीस्तीन के एलिया सुलेमान की फिल्म ‘इट मस्ट बी हेवन’ का विशेष उल्लेख हुआ है. इस फिल्म में सुलेमान पेरिस से न्यूयॉर्क तक का चक्कर लगाते हुए यह जानने की कोशिश की है कि दुनिया में वह कौन-सी जगह है, जिसे सचमुच में हम अपना घर (मातृभूमि) कह सकते हैं.

कान फिल्म समारोह के इतिहास में पहली बार इस आयोजन में मैक्सिको के किसी फिल्मकार को जूरी का अध्यक्ष बनाया गया था. यूरोप में बढ़ते इस्लामोफोबिया के दौर में लेबनान की नदिन लाबाकी को ‘अनसर्टेन रिगार्ड’ खंड के निर्णायक मंडल का अध्यक्ष बनाया गया था.

साल 1979 में कंबोडिया में हुए भीषण जनसंहार से किसी तरह बचकर पेरिस में शरणार्थी का जीवन जी रहे रिथि पांह ‘कैमरा डि ओर’ की जूरी का मुखिया बने थे. हॉलीवुड की दैत्याकार संरचना को अपनी फिल्मों से चुनौती देनेवाले और अमेरिका में इंडिपेंडेंट सिनेमा आंदोलन के अगुवा जिम जारमुश की फंतासी ‘डेड डोंट डाइ’ के प्रदर्शन से 72वें कान फिल्म समारोह की शुरुआत हुई थी. इन संकेतों से मतलब यह है कि यह प्रतिष्ठित आयोजन सिनेमा की समानांतर राजनीति को समर्थन दे रहा है.

समारोह के निर्देशक थेरी फ्रेमो ने पिछले महीने ही पेरिस में घोषणा कर दी थी कि इस बार ‘रोमांस और राजनीति’ समारोह के मुख्य विषय होंगे. पिछले कुछ सालों की चर्चित फिल्मों से इंगित होता है कि वर्तमान विश्व सिनेमा मनुष्य की स्वतंत्रता का घोषणापत्र है. यह स्वतंत्रता बिना राजनीति के संभव ही नहीं है. रोमांस की अवधारणा भी औरत-मर्द के रिश्ते की हदों से आगे निकल चुकी है. एक प्रभावी कला माध्यम के बतौर सिनेमा से रोमांस के बिना कोई विशिष्ट फिल्म बन ही नहीं सकती है. और, इसके लिए भी स्वतंत्रता और राजनीति आवश्यक हैं.

कान समारोह की जूरी के अध्यक्ष इनारितू ने रेखांकित किया है कि आज दुनियाभर में लोकतंत्र गायब हो रहा है, पर सिनेमा में लोकतंत्र कायम है. उन्होंने यह भी कहा कि पर्यावरण संकट के कारण आज दुनिया संकट में है और हमारे राजनेता गुस्से, झूठ व आक्रोश के साथ शासन कर रहे हैं.

इस फिल्मकार को भरोसा है कि सिनेमा का लोकतंत्र ही हमारी सभ्यता को बचायेगा. इस समारोह की सबसे बड़ी घटना प्रतियोगिता खंड में क्वेंतिन तारंतीनो की फिल्म ‘वंस अपान ए टाइम इन हॉलीवुड’ का प्रर्दशन और इसमें मुख्य भूमिकाएं निभानेवाले दो सुपरस्टारों- लियोनार्दो डीकैप्रियो एवं ब्रैड पिट- की भागीदारी रही. ‘पल्प फिक्शन’(1994) के लिए बेहतरीन फिल्म का पुरस्कार जीतने के 25 साल बाद वे इस नयी फिल्म के साथ समारोह में लौटे थे. बकौल तारंतीनो, ‘मेरी फिल्म इंडस्ट्री को यह फिल्म मेरा प्रेम पत्र है.’

कान फिल्म समारोह में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन और अभिनेत्रियों के रेड कार्पेट पर चलने की फरेबी खबरों के बीच हमें इस सच्चाई को समझने की जरूरत है कि इस बार ऑफिशियल सेलेक्शन में एक भी भारतीय फिल्म नहीं थी.

किसी भारतीय कलाकार को आधिकारिक रूप से कोई रेड कार्पेट वेलकम नहीं दिया गया था. यहां तक कि समारोह की समानांतर गतिविधियों- डाइरेक्टर्स फोर्टनाइट और क्रिटीक्स वीक- में भी कोई भारतीय फिल्म नहीं थी. फिर भी, भारतीय पवेलियन में चहल-पहल थी.

इससे एक फायदा हुआ है कि भारतीय फिल्मकारों को नेटवर्किंग की सुविधा मिल जाती है और फिल्म बाजार तक पहुंच में मदद मिलती है. कान का फिल्म बाजार इस समय दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म बाजार बन चुका है, जहां 31,819 फिल्म कंपनियां पंजीकृत हैं. इस बार 114 देशों के 12 हजार एजेंट फिल्मों की खरीद-बिक्री के लिए पहुंचे थे. फिल्मों और बाजार के जरिये भारतीय सिनेमा को कान से ज्यादा जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए.

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