कायदे से पूर्ववर्ती सरकार और यूजीसी प्रशासन को इस मामले को विस्फोटक स्थिति के मौजूदा नाजुक दौर में आने ही नहीं देना चाहिए था. मगर एक ही मार्ग के मुसाफिर और एक ही संरक्षक के शागिर्द भला आलिंगन की पकड़ को शिथिल क्यों करते?
शै क्षणिक सत्ररंभ होने के पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय में भले ही अनिश्चितता समाप्त हो गयी है, लेकिन यह मामला देश में उच्च शिक्षा की दुर्गति का उदाहरण है. सरासर गैर-कानूनी रूप में प्रस्तावित चार वर्षीय स्नातक अध्ययन का यह विचारहीन मामला है. पूर्व शिक्षा मंत्री के खुले समर्थन पर मुट्ठीभर विदेशी शैक्षणिक संस्थानों में प्रचलित कार्यक्रम की कुछेक जरूरतों की भरपाई के लिए यह कदम उठाया गया था. इसे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने विवादास्पद रूप में शुरू किया. मगर यह प्रकरण लंबे दौर से चली आ रही यूजीसी की निष्क्रियता और इधर उच्च शिक्षा मंत्रालय की आकस्मिक सक्रियता के फलस्वरूप अब हास्यास्पद दौर से गुजर रहा है. यह विषय कितने उपहास का है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा लायी गयी नयी शिक्षा नीति-1986 के तहत पठन-पाठन का जो सिलसिला 28 वर्ष पूर्व 10+2+3 कार्यक्रम के अंतर्गत भलीभांति चला आ रहा था, उसे अपने अविवेकपूर्ण और स्वेच्छाचारी निर्णय के चलते कुलपति ने समूचे शैक्षणिक माहौल को झकझोर कर रख दिया.
सर्वोपरि कसूरवार है कांग्रेसनीत यूपीए की पूर्व सरकार, जिसकी खुली शह पर कुलपति ने स्वच्छाचारिता से परिपूर्ण अपने एक निर्णय को विश्वविद्यालय की अकादमिक और कार्यकारिणी परिषद से तो पारित करा लिया, परंतु नियमानुकूल तौर पर महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की संपुष्टि के बगैर किसी भी प्राधिकार का कोई भी फैसला कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता.
काबिलेगौर है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा लिया गया यह गैर-कानूनी फैसला यूजीसी और केंद्रीय शिक्षा मंत्रलय के लिए खुली चुनौती है. यूजीसी से संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा प्रबंधित 312 विश्वविद्यालय, 120 डीम्ड विश्वविद्यालय, 45 केंद्रीय विश्वविद्यालय, निजी परंतु अनुमोदित 173 विश्वविद्यालय. यूजीसी से मान्यता प्राप्त करीब 6,000 महाविद्यालय हैं. देश में कई प्रकार के महाविद्यालयों की संख्या 31,000 से ज्यादा है. दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा उठाया गया यह कदम इन सारी संस्थाओं को प्रभावित करेगा. देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था कैसे लागू की जायेगी? एक विश्वविद्यालय को यह छूट दे देने के बाद एक अंतहीन प्रक्रिया की शुरुआत हो जायेगी. सारे संस्थान एक बड़ी जंजीर की कड़ियां हैं, जो आपस में मजबूती से जुड़ी हुई हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय भी इन कड़ियों में एक है, न कि सर्वोपरि. सारे संस्थान यूजीसी की छतरी तले संचालित हैं.
दुखद यह है कि इस संसदीय कानून का सौंदर्य विभिन्न संस्थानों की पारस्परिक निर्भरता में है, न कि पूर्ण स्वछंदता और आत्मनिर्भरता में. दिल्ली विश्वविद्यालय के 64 कॉलेजों को कौन सी वित्तीय आत्म निर्भरता प्राप्त है? सारे कॉलेजों में शिक्षकों के सृजित पदों में से आधे खाली पड़े हैं. दैनिक वेतनभोगी अस्थायी और तदर्थ शिक्षकों की भारी भीड़ खड़ी है. अधिकांश कॉलेजों में त्रिवर्षीय स्नातक स्तर तक के अध्यापन के लिए जरूरी मूल संरचनाएं उपलब्ध नहीं हैं. परिसर, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, क्रीड़ास्थल, छात्रवास, स्वास्थ्य-केंद्र, मनोरंजनगृह और भोजनालय- यह है न्यूनतम मूलभूत ढांचा. कितने कॉलेजों में यह सब उपलब्ध है! दशकों से व्यावहारिक रूप में क्लासलेस सोसायटी बनाने वाले प्रगतिशील शिक्षकों ने सच्चे अर्थो में पठन-पाठन से पूर्णतया रहित, चिंतन और मनन से वंचित एक परजीवी व्यवस्था बना डाली है. कभी शिक्षकों-कर्मचारियों की तो कभी छात्रों की हड़तालों की वजह से कम ही संख्या में कक्षाएं आयोजित हो पाती हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने व्यापक राष्ट्रीय महत्व के एक मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाकर लाखों छात्रों व उनके अभिभावकों की संवेदना को ठेस पहुंचायी है. अपने गैर-कानूनी आदेश की अवमानना करनेवाले शिक्षकों को डराने-धमकाने और छात्रों को आतंकित करने की उन्होंने भरसक चेष्टा की है.
काबिलेगौर है कि यूजीसी अध्यक्ष ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से बिल्कुल याराना अंदाज में एक समारोह में अपनी उम्र तक बतौर नजराना पेश करने की कलाबाजी तक खुलेआम और सरेशाम प्रदर्शित की. सर्वविदित है कि पूर्व शिक्षा मंत्री के इशारे पर वर्तमान यूजीसी चेयरमैन वेदप्रकाश ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति को चार वर्षीय पाठ्यक्रम लागू करने से कभी भी मना नहीं किया. कायदे से पूर्ववर्ती सरकार और यूजीसी प्रशासन को इस मामले को विस्फोटक स्थिति के मौजूदा नाजुक दौर में आने ही नहीं देना चाहिए था. मगर एक ही मार्ग के मुसाफिर और एक ही संरक्षक के शागिर्द भला आलिंगन की पकड़ को शिथिल क्यों करते? किसी को भी निजाम के इस कदर बदल जाने का कोई इल्म नहीं था. पूरे एक दशक से चली आ रही परंपराओं के अंधे अनुपालन में बेखबर, बैलौस और बेखौफ बड़ी मछलियां तालाब में जल संतरण के मजे लेती रहीं. हालिया हुकूमत के इस तालाब में उतरने के बाद ही तो उथल-पुथल मची है. अब यूजीसी अध्यक्ष ने पूरी चौकसी बरती है. शिक्षा मंत्री महोदया के हर फरमान को पूरी मुस्तैदी से अनुपालन करते हैं. भला ऐसा क्यों नहीं हो?
प्रधानमंत्री से लेकर खुद उनके कार्यालय तक वेद प्रकाश द्वारा बरती गयी बेशुमार अनियमितताओं, उनकी प्रशासकीय गलतियों, वित्तीय संलिप्तताओं और नीतिगत विसंगतियों से परिपूर्ण कारगुजारियों के दस्तावेजों पर से अब गर्द हटायी जा रही है. कई बार प्रतिष्ठित पत्रों में विवादित कारनामों से सुर्खियां बटोरने वाले वेद प्रकाश के भविष्य का निर्णय शिक्षामंत्री के फैसले के लिए मुंतजिर है. किसे नहीं पता कि यूजीसी में अफसर बन जाने के बाद यूजीसी कानून की मर्यादाओं के विरुद्ध दो-दो दफे उपाध्यक्ष के रूप में उनकी बहाली और फिर शीर्ष सिंहासन की प्राप्ति के पीछे के राज कहां-कहां छुपे हैं? क्या ही बखूबी प्रधानमंत्री ने कौशल-विस्तार की चर्चा अपने नीति निर्देशक तत्व के रूप में की है. स्वयं भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यूजीसी के परिष्कार की चर्चा 14 वर्षो पूर्व की थी. ऐसे में यह सवाल मौजू है कि अगर दौलत सिंह कोठारी अथवा यशपाल आज के दौर में चेयरमैन होते तो क्या होता? सर्वपल्ली राधाकृष्णन क्या करते? शिक्षामंत्री के रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति और यूजीसी अध्यक्ष को क्या सूई के छेद में से गुजरने वाले हाथियों की तरह पार हो जाने की आजादी दे देते?
प्रो एस पी सिंह
वरिष्ठ शिक्षाविद्
sukeshwarprasadsingh@gmail.com