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अब वसंत आ गया है

आलोक पुराणिक वरिष्ठ व्यंग्यकार [email protected] बसंत पंचमी के पावन अवसर पर स्मार्ट विश्वविद्यालय द्वारा बसंत पंचमी विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. प्रथम पुरस्कार विजेता निबंध इस प्रकार है- बसंत आ गया. क्यों आ गया यह सवाल निरर्थक है. बसंत चुनाव जैसा होता है या नेता जैसा, जो आ ही जाता है आप […]

आलोक पुराणिक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
बसंत पंचमी के पावन अवसर पर स्मार्ट विश्वविद्यालय द्वारा बसंत पंचमी विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. प्रथम पुरस्कार विजेता निबंध इस प्रकार है-
बसंत आ गया. क्यों आ गया यह सवाल निरर्थक है. बसंत चुनाव जैसा होता है या नेता जैसा, जो आ ही जाता है आप भले ही चाहें या न चाहें. बसंत आ गया पर कन्फ्यूजन है. कई जगह मौसम अब भी सर्दी वाला बना हुआ है, पर कई जगह गर्मी आ गयी है.
बसंत का कोई नोटिस ही न ले रहा है कि भई ये भी आ गया है. बसंत कुछ-कुछ कर्नाटक के कांग्रेस विधायक जैसा फील कर सकता है, कोई नोटिस ही न ले रहा. कांग्रेस विधायक कर्नाटक में ऐसे नींव के पत्थर बने हुए हैं, जो परस्पर एक-दूसरे को कूट रहे हैं.
बसंत का प्राचीन साहित्य में बहुत महत्व बताया जाता था. बसंत के आसपास कुछ ऐसी हरकतों की शुरुआत होती थी, जिन्हें प्यार-मुहब्बत से जोड़कर देखा जाता था, लेकिन तकनीक ने बारह महीने वसंत कर दिया है. अब तो फेसबुक पर कविगण इश्क वगैरह की कविताएं मचाये रहते हैं.
बसंत के आसपास वित्तीय वर्ष भी खत्म होता है 31 मार्च को. वेतनभोगी लोग इन दिनों जेब में भीषण लू भी फील कर सकते हैं. कर कटौती वेतन पर भारी पड़ जाती है. वेतन का हाल उस टीवी सीरियल से हो जाता है, जो बताया तो एक घंटे का जाता है, पर विज्ञापन वगैरह का टाइम काटने के बाद मुश्किल से 20 मिनट का बचता है.
फरवरी के आसपास जो वेतन एक लाख का बताया जाता है, वह टैक्स कटौती के चलते 50 हजार का दिखता है. इस कटौती के मारे घनघोर वसंत में भी भयंकर लू फील होता है.
बसंत चेतना अब नयी पीढ़ी में गायब हो रही है. बसंत ज्ञान का पर्व है- यह बात नयी पीढ़ी को बताओ, तो वह कहती है, व्हाॅट्सएप पर तो ज्ञान पर्व रोज अहर्निश चौबीसो घंटे चलता है. वहां तो हर बंदा ज्ञान का थोक सप्लायर है.
तो क्या हम मानें कि व्हाॅट्सएप पर बसंत हमेशा ही रहता है? नयी पीढ़ी हर बात को अपने स्टाइल से समझती है. एक नौजवान ने बताया कि बसंत का महत्व इसलिए है कि ऐतिहासिक फिल्म शोले की एक नायिका का नाम बसंती था. बाकी ज्ञान-वान की नयी पीढ़ी को खास जरूरत नहीं है, वह तो व्हाॅट्सएप पर लगातार बंट रहा है.
कुल मिला कर बसंत आम आदमी से हो लिया है, जिसे जो चाहे अपनी मर्जी से समझ ले. चुनावी दिनों में आम आदमी लोकतंत्र का राजा होता है. चुनाव बाद आम आदमी भीड़ का हिस्सा होता है. बसंत पर अतीत में कई काव्य रचे गये. बसंत आ गया है, जिसे जो रचना हो रचे. हालांकि, सोशल मीडिया के दौर में हर बंदा कवि है. उसके लिए बसंत की प्रतीक्षा जरूरी नहीं.
बसंत आ लिया है, फिर फागुन भी आयेगा. थैंक्स कि इन्हें लेकर कहीं दावे नहीं हैं कि हम ही बसंत फागुन लेकर आये. हमारे वक्त बसंत 10 फरवरी को आ गया, उनके वक्त में लेट आता था, आदि. तो मतलब बात ऐसी है कि जिसका जैसा चाहे, वह बसंत का वैसा इस्तेमाल कर सकता है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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