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देशभर में वाम दलों की यह दशा!

।। रविभूषण ।। वरिष्ठ साहित्यकार वामपंथी शक्तियों को आज सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर एकजुट होकर काम करने की जरूरत है. भाजपा को 80 करोड़ मतदाताओं में से मात्र 17.16 करोड़ ने वोट दिया है यानी 21.45 फीसदी ने. वर्तमान दक्षिणपंथियों का है और भविष्य वामपंथियों का.भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म एक […]

।। रविभूषण ।।

वरिष्ठ साहित्यकार

वामपंथी शक्तियों को आज सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर एकजुट होकर काम करने की जरूरत है. भाजपा को 80 करोड़ मतदाताओं में से मात्र 17.16 करोड़ ने वोट दिया है यानी 21.45 फीसदी ने. वर्तमान दक्षिणपंथियों का है और भविष्य वामपंथियों का.भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म एक ही समय हुआ. आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस मुकाम पर पहुंचा है, उस मुकाम तक कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं पहुंचीं. दक्षिणपंथी दल भाजपा में कोई विभाजन नहीं हुआ, पर कम्युनिस्ट पार्टी सिद्धांत के स्तर पर कई खंडों में विभाजित हो चुकी है. समर्पित कार्यकर्ताओं की वहां कभी कोई कमी नहीं रही, पर आज उन कार्यकर्ताओं में पहले जैसा न उत्साह है, न समर्पण. सोलहवीं लोकसभा चुनाव ने वाम दलों को बड़ी नसीहत दी है.

अच्छे दिन लानेवाली विचारधारा केवल मार्क्‍सवाद है. मार्क्‍सवाद पूंजीवाद की आलोचना है और समाजवाद पूंजीवाद का एकमात्र विकल्प है. यह सर्वमान्य है कि जब तक पूंजीवाद जीवित रहेगा, मार्क्‍सवाद कायम रहेगा. पूंजीवाद ने (भरमाने-भटकाने के लिए भी) समयानुसार अपना रूप-स्वरूप बदला है. औद्योगिक पूंजीवाद हो या वित्तीय कॉरपोरेट, याराना पूंजीवाद, उसका मूल स्वभाव-चरित्र एक है. आज का पूंजीवाद वित्तीय, कॉरपोरेट और याराना पूंजीवाद है. पूंजीवाद आज स्वयं संकटग्रस्त है, फिर भी उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़ने वाले कम नहीं हैं. पूंजीवाद का कोई उज्‍जवल- शुक्ल पक्ष नहीं है.

समाजवादी विचारधारा ने संपूर्ण विश्व को प्रभावित किया है- सभी राष्ट्रों, धर्मो, नस्लों और सभ्यताओं को. दस अध्यायों में विभाजित टेरी इगलटन की पुस्तक ‘ह्वाइ मार्क्‍स वाज राइट’ (2011, येल यूनिवर्सिटी प्रेस) से यह समझा जा सकता है कि मार्क्‍सवाद आज भी कितना सही, जरूरी, प्रासंगिक और विश्वसनीय है. पुस्तक के प्रत्येक अध्याय में मार्क्‍स की की गयी एक-एक आलोचना का खंडन किया गया है. पूंजीवादी दलों से लड़ाई न लड़ कर समय-समय पर उनका साथ देने के कारण आज देश में मार्क्‍सवादी दल लगभग हाशिये पर चले गये हैं.

संसदीय और बुजरुआ लोकतंत्र में गहरी आस्था रखने, लोकतंत्र के प्रतिनिधिक स्वरूप को स्वीकारने का ही यह परिणाम है कि सोलहवीं लोकसभा में वाम दलों को मात्र दस सीटें मिलीं और उनका वोट प्रतिशत लगभग चार रहा. अन्नाद्रमुक और माकपा का वोट प्रतिशत बराबर है-3.3, पर अन्नाद्रमुक को 37 सीटें मिलीं और माकपा को नौ. तृणमूल कांग्रेस को 3.8 प्रतिशत मत मिले, पर उसके सांसदों की संख्या कहीं अधिक है.

पहले लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के 20 सांसद थे और उनका वोट प्रतिशत पांच था. दूसरे आम चुनाव (1957) में सांसदों की संख्या बढ़ कर 33 हुई और वोट प्रतिशत 11 हुआ. केरल विधानसभा चुनाव में इसी वर्ष कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आयी थी. इस निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को 1959 में कांग्रेस ने बरखास्त किया.

उस समय प्रधानमंत्री नेहरू कम्युनिस्टों को ‘उखाड़ फेंकने’ के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि वे चुनाव जीत कर आये थे, पर कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी उनसे ‘संघर्ष करना और उन्हें उखाड़ फेंकना’ चाहती थीं. केरल में नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार बरखास्त कर दी गयी. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके ‘लोकलुभावनवाद’ से प्रसन्न होकर कम्युनिस्ट पार्टी ने साथ दिया. कांग्रेस पूंजीवाद की समर्थक पार्टी रही है. उसका साथ देना पूंजीवाद से मैत्री करना था. वामपंथी राजनीति अन्य दलों की तरह चुनाव केंद्रित हो गयी. आंदोलन-विमुख होकर वह सत्ता-उन्मुख हुई. उसके सामने भारत के भविष्य का सार्थक स्वप्न नहीं रहा. वह यह नहीं समझ सकी ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.’

आरंभ में कम्युनिस्ट पार्टी का मद्रास और बंबई में भी आधार-क्षेत्र था. आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, असम, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, ओड़िशा से भी उसने लोकसभा की कुछ सीटें जीतीं. 1964 के पार्टी-विभाजन के बाद भाकपा और माकपा अलग-अलग चुनाव लड़ती रहीं. वाम मोरचे में मुख्य दल माकपा-भाकपा ही रहे. 1967 और 1971 में बिहार से भाकपा के पांच सांसद थे. माकपा बिहार में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी. 1991 के चुनाव में बिहार में वाम मोरचा को नौ सीटें मिलीं थीं. पहले और दूसरे लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी विपक्ष में प्रमुख थी. तीसरे लोकसभा चुनाव (1962) में उसे 31 सीटें मिली थीं और वोट प्रतिशत 11 था.

इंदिरा गांधी के समय उसकी सीटों में इजाफा हुआ और वोट प्रतिशत भी बढ़ा. पांचवीं लोकसभा (1971) में 53 कम्युनिस्ट सांसद थे और उनका वोट प्रतिशत 12 था. 1977 में उसे 41 सीटें मिली थीं और वोट प्रतिशत घट कर आठ हो गया था. इंदिरा गांधी का साथ देने का यह परिणाम था. सातवीं लोकसभा (1980) में सीट बढ़ कर 54 हुई और वोट प्रतिशत 10 हुआ. आठवीं लोकसभा (1984) में सीटें घट कर 34 हुई, वोट प्रतिशत यथावत रहा. नौवीं लोकसभा (1989) में वोट प्रतिशत यथावत रहने के बावजूद सांसदों की संख्या बढ़ कर 52 हुई. 1989 से राजनीतिक परिदृश्य बदलने लगा था. मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू हो चुकी थी.

कांग्रेस ढलान पर थी. 10वीं लोकसभा (1991) में वोट प्रतिशत 10 रहा, पर सांसदों की संख्या बढ़ कर 56 हुई. 11वीं लोकसभा (1996) में वोट प्रतिशत घट कर नौ हुआ और सांसदों की सीट घट कर 52 हुई. सीटों और वोट प्रतिशत में हुई वृद्धि और कमी पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया. 12वीं (1998), 13वीं (1999) और 14वीं (2004) लोकसभा में मार्क्‍सवादी दलों का वोट प्रतिशत आठ रहा और सीट 48, 42 और 59 हुई. 15वीं लोकसभा (2009) और 16वीं (2014) में सीट घट कर 24 और 10 हुई. वोट प्रतिशत भी घट कर सात और चार रहा.

पश्चिम बंगाल में माकपा को इस बार दो सीटें मिली हैं. केवल त्रिपुरा में माकपा पहले की तरह बनी रही. कांग्रेस का साथ देने वाले राजनीतिक दलों- सपा, बसपा को मतदाताओं ने किनारे कर दिया. कम्युनिस्ट हिंदी प्रदेशों में जड़ नहीं जमा सके. हिंदी के अधिसंख्य कवि, लेखक, आलोचक, बुद्धिजीवी प्रगतिशील और मार्क्‍सवादी हैं.

मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवियों ने सामान्य जन से अपना रिश्ता नहीं बनाया. नवउदारवादी और बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था ने सामान्य जन-मानस को अधिक प्रभावित किया है. वामपंथी शक्तियों को आज सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर एकजुट होकर काम करने की जरूरत है. भाजपा को 80 करोड़ मतदाताओं में से मात्र 17 करोड़ 16 लाख 57 हजार 549 ने वोट दिया है, जो कुल मतदाताओं का 21.45 प्रतिशत है. वर्तमान दक्षिणपंथियों का है और भविष्य वामपंथियों का. आज सभी वाम दलों की एकजुटता के बाद ही भारत में वामपंथ सशक्त हो पायेगा. ‘भारत के वामपंथियो! एक हो’ की आवाज वे नहीं सुन पा रहे हैं.

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