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सार्वजनिक इकाइयों का मंत्रालय बने

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री नये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भटकाववादी फार्मूलों से बचते हुए चुनिंदा क्षेत्रों में जरूरी सार्वजनिक इकाइयों का सुप्रबंधन करना चाहिए. शेष का निजीकरण कर देशवासियों पर लागू टैक्स में कटौती करनी चाहिए. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में सार्वजनिक इकाइयों का प्रबंधन कुशलतापूर्वक किया था. आपने संकेत दिये हैं कि […]

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

अर्थशास्त्री

नये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भटकाववादी फार्मूलों से बचते हुए चुनिंदा क्षेत्रों में जरूरी सार्वजनिक इकाइयों का सुप्रबंधन करना चाहिए. शेष का निजीकरण कर देशवासियों पर लागू टैक्स में कटौती करनी चाहिए.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात में सार्वजनिक इकाइयों का प्रबंधन कुशलतापूर्वक किया था. आपने संकेत दिये हैं कि उसी प्रक्रिया को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जायेगा. आपने सरकारी इकाइयों के मैनेजमेंट में सरकारी दखल कम करने एवं प्रोफेशनल ढंग से इसे चलाने पर जोर दिया है. इसका स्वागत है, परंतु सार्वजनिक इकाइयों की मूल समस्या को नजरंदाज नहीं करना चाहिए. बच्चे की दोस्ती गली के गुंडों से हो गयी हो तो मां-बाप के समझाने से कुछ लाभ अवश्य होता है, परंतु मौलिक समाधान उस दोस्ती को समाप्त करने से ही होता है.

अध्ययनों में पाया गया है कि सार्वजनिक इकाइयों में सरकारी कर्मचारियों की संख्या जरूरत से अधिक है. कर्मियों की कार्यकुशलता घटिया है. आर्थिक सुधारों के चलते इनका भविष्य संकट में पड़ गया है. तमाम क्षेत्रों में निजी कंपनियों का प्रवेश हो चुका है. निजी कंपनियों के प्रवेश के बाद इनकी मनमानी नहीं चल पा रही है. ये घाटे में चलने लगी हैं. एयर इंडिया, बीएसएनएल और एमटीएनएल इसका उदाहरण हैं.

सार्वजनिक इकाइयों के सुधार का श्रेष्ठ उपाय है कि इनका निजीकरण कर दिया जाये. इनके 51 प्रतिशत शेयरों को किसी एक निजी निवेशक को बेच दिया जाये, जिससे कंपनी पर मंत्रालय का नियंत्रण समाप्त हो जाये. मारुति इत्यादि कंपनियों में ऐसा ही किया गया था. आयल इंडिया का निजीकरण कर दिया जाये, तो नया मालिक कंपनी के प्रभुत्व का दुरुपयोग करके भारी रकम कमा सकता है. अत: निजीकरण के साथ ही रेगुलेशन भी जरूरी है, अन्यथा सार्वजनिक इकाइयों की अकुशलता से बचेंगे, परंतु निजी उद्यमी की धांधली में फंसेंगे.

आर्थिक सुधारों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में नौकरशाही की दखल को कम करना था. ऐसा निजीकरण से होता है. निजीकरण का अर्थ होता है कि सार्वजनिक इकाई के कम से कम 51 प्रतिशत शेयर को किसी उद्यमी को बेच दिया जाये. ऐसा होने पर कंपनी के बोर्ड पर निजी उद्यमी का नियंत्रण स्थापित हो जाता है.

तब एमडी की नियुक्ति उद्यमी करेगा. एमडी कंपनी का संचालन उद्यमी को लाभ कमा कर देने के लिए करेगा चूंकि मालिक के लाभ कंपनी के लाभ में एकत्व होता है. इस दिशा में मैसूर के दीवान विश्वैश्वरैया का कहना था कि राज्य का काम उद्योग चलाना नहीं है, परंतु यह कार्य पूर्णतया निजी क्षेत्र पर भी नहीं छोड़ा जा सकता है. इसलिए सरकार को नये उद्योग स्थापित करके सफलता हासिल करने के बाद निजी क्षेत्र को हस्तांतरित कर देना चाहिए.

दूसरा उपाय है, सार्वजनिक इकाइयों को विभिन्न मंत्रालयों से हटा कर एक अलग मंत्रालय के अधीन कर दिया जाये. यह रास्ता चीन ने अपनाया है. वहां सैसाक नामक एक संगठन बनाया गया है.

चीन सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के अधीन लगभग 200 सार्वजनिक इकाइयों का स्वामित्व संबद्घ मंत्रालय से हटा कर सैसाक को दे दिया गया. जैसे वर्तमान में इंडियन ऑयल पेट्रोलियम मंत्रालय और एयर इंडिया उड्डयन मंत्रालय के हाथ में. इससे आधा सुधार होगा. संबद्घ मंत्रालय की भूमिका सार्वजनिक इकाई के उद्देश्य निर्धारित करना मात्र रहेगा. इससे तमाम मंत्रालयों की दखल एक मंत्रालय में सिमट जायेगी. नौकरशाही आदि की समस्या बनी रहेगी, परंतु इसकी गहनता कम हो जायेगी.

तीसरा उपाय है कि सार्वजनिक इकाइयों के शेयरों का विनिवेश किया जाये, जैसे ऑयल इंडिया के शेयरों को बाजार में बेच दिया जाये. इस प्रक्रिया में मामूली सुधार होगा. शेयर बाजार की नजर रहेगी, परंतु नियंत्रण मंत्रालय का बना रहेगा. चौथे व निचले स्तर का उपाय है कि एक सार्वजनिक कंपनी के द्वारा दूसरे शेयर खरीद लिये जायें, जैसा कि यूपीए सरकार करा रही थी. विषय का दूसरा पक्ष विनिवेश से मिली रकम के उपयोग का है. मिली रकम का उपयोग यदि सड़क बनाने, अंतरिक्ष यान का प्रक्षेपण करने इत्यादि के लिए किया जाता, तो लाभ जनता को मिलेगा. सरकार द्वारा आय से अधिक खर्च किये जा रहे हैं. इस घाटे की पूर्ति विनिवेश से नहीं करना चाहिए, जैसा यूपीए सरकार कर रही थी.

पहले किये गये निवेश की बिक्री कर उस रकम से नया निवेश करना उचित है. जैसे नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन का निजीकरण करके नेशनल थोरियम पावर कॉरपोरेशन में निवेश किया जाता. परंतु पिछले समय में ऐसे निवेश में भी कमी हुई है. बुनियादी संरचना में सरकारी खर्च टिका हुआ है. जैसे 2006-2009 के बीच यातायात तथा संचार में केंद्र सरकार के खर्च में 25 प्रतिशत की वृद्घि हुई, जबकि कुल खर्च में 50 प्रतिशत की. सरकारी खर्च की गुणवत्ता सर्वत्र गिर रही है. इस फिजूल खर्चो को पोषित करने के लिए सार्वजनिक कंपनियों का विनिवेश नहीं करना चाहिए. मोदी को भटकाववादी फार्मूलों से बचते हुए चुनिंदा क्षेत्रों में जरूरी सार्वजनिक इकाइयों का सुप्रबंधन करना चाहिए. शेष का निजीकरण कर देशवासियों पर लागू टैक्स में कटौती करनी चाहिए.

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