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बढ़ता भ्रष्टाचार

तमाम नियम-कानूनों और दावों-वादों के बावजूद भ्रष्टाचार का बढ़ता चंगुल हमारे राष्ट्रीय जीवन का भयावह सच है. प्रतिष्ठित गैर सरकारी शोध संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के भ्रष्टाचार पर सालाना सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि 13 राज्यों में 75 फीसदी परिवारों का मानना है कि एक साल में या तो भ्रष्टाचार बढ़ा है […]

तमाम नियम-कानूनों और दावों-वादों के बावजूद भ्रष्टाचार का बढ़ता चंगुल हमारे राष्ट्रीय जीवन का भयावह सच है. प्रतिष्ठित गैर सरकारी शोध संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के भ्रष्टाचार पर सालाना सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि 13 राज्यों में 75 फीसदी परिवारों का मानना है कि एक साल में या तो भ्रष्टाचार बढ़ा है या वह पिछले साल के स्तर पर है.
सामान्य सरकारी सेवाओं के एवज में 27 फीसदी परिवारों ने रिश्वत देने की बात भी कबूल की है. बुनियादी सरकारी सेवाओं पर आधारित इस सर्वेक्षण में 13 राज्यों के 200 से अधिक ग्रामीण और शहरी बस्तियों के 2000 परिवारों में अध्ययन किया गया है. इससे देशव्यापी हालात के संकेत पढ़े जा सकते हैं. यह बेहद चिंताजनक है कि कानून व्यवस्था बहाल करने और अपराध नियंत्रण की अहम जिम्मेदारी जिस पुलिस विभाग की है, उसे सबसे अधिक भ्रष्ट माना गया है. यह संतोष की बात है कि 2005 और 2018 के बीच भ्रष्टाचार का सामना करनेवाले परिवारों के आंकड़े में करीब 50 फीसदी (2005 में 52 फीसदी और इस साल 27 फीसदी) की कमी आयी है.
देश में कहीं भ्रष्टाचार अधिक है, तो कहीं कम. तेलंगाना में 73 फीसदी परिवारों ने कहा कि सरकारी सुविधाओं के लिए उनसे घूस मांगी गयी. राजधानी दिल्ली में यह आंकड़ा 29 फीसदी रहा है. बिगड़ती स्थिति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने, आधार संख्या पाने और मतदाता पहचानपत्र बनाने जैसे कामों के लिए लोगों से पैसे वसूले जा रहे हैं. इस रिपोर्ट को जारी करते हुए पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह ने उचित ही कहा कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाना ही होगा, अन्यथा यह भारत की प्रगति और उसके विकास को बाधित कर देगा.
अक्सर जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों, अधिकारियों, जजों जैसे उच्चपदस्थ लोकसेवकों को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया है. पर, उनमें अधिकतर या तो बरी हो जाते हैं या बरसों मुकदमा लंबित रहता है. जब उच्च पदों पर बैठे लोग इस समस्या को लेकर उदासीन होंगे या फिर उनके कृत्य भी आपराधिक होंगे, तो हम उनके मातहत कार्यरत छोटे अधिकारियों-कर्मचारियों से शुचिता की क्या उम्मीद कर सकते हैं! लोकपाल और लोकायुक्त जैसे मुद्दे आज हाशिये पर हैं. बैंकों के घोटालों में गिने-चुने लोगों पर सामान्य कार्रवाई हुई है. बड़े अधिकारियों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया में नियमों के पेच हैं. जनप्रतिनिधियों के आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए कुछ विशेष अदालतें बनायी गयी हैं, पर अभी काम शुरू नहीं हो सका है.
इन सभी मुश्किलों का खामियाजा आम जनता, खासकर गरीब और निम्न आयवर्ग के लोगों, को भुगतना पड़ता है. हद तो यह है कि भ्रष्ट अधिकारी मजदूरों की मामूली रकम को भी हजम करने से परहेज नहीं करते. पर, इस विकराल समस्या के समाधान की आशा और अपेक्षा सिर्फ सरकार या न्यायालयों से नहीं किया जाना चाहिए. समाज को भी समुचित सक्रियता दिखाने की जरूरत है.

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