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चुनने का अधिकार
भारतीय समाज की कड़वी सच्चाइयों में एक यह भी है कि अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुनना बालिगों के लिए आसान बात नहीं है. भारतीय परिवारों में आम तौर पर विवाह के मामले में संतानों की राय लेने का चलन नहीं है. संतान अगर लड़की है, तो फिर मंजूरी लेने या मर्जी पूछने का शायद सवाल […]
भारतीय समाज की कड़वी सच्चाइयों में एक यह भी है कि अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुनना बालिगों के लिए आसान बात नहीं है. भारतीय परिवारों में आम तौर पर विवाह के मामले में संतानों की राय लेने का चलन नहीं है.
संतान अगर लड़की है, तो फिर मंजूरी लेने या मर्जी पूछने का शायद सवाल ही नहीं पैदा होता. ब्याह के मामले में पसंद पर जाति, धर्म और हैसियत भारी पड़ते हैं. एक ऐसे ही मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि वयस्क व्यक्ति पर जबरन शादी नहीं थोपी जा सकती है.
कर्नाटक के एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार की बेटी ने गुहार लगायी थी कि उसके माता-पिता और भाई ने उसकी मर्जी के खिलाफ उसका ब्याह कर दिया था. अदालत ने व्यक्तिगत आजादी की पक्षधरता में कहा है कि महिला बालिग है, सो उसकी इच्छा ही प्रमुख है- वह अपने व्यक्तित्व के विकास की संभावनाओं के अनुकूल जहां और जिसके साथ ठीक लगे, जी और रह सकती है.
हाल-फिलहाल बालिग व्यक्ति की ‘पसंद’ को कानूनी दायरे में पुख्ता करने और समाज को व्यापक स्तर पर नैतिक संदेश देनेवाले सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णय आये हैं. केरल के दो व्यस्कों से जुड़े एक मामले में फैसला आया था कि वयस्क जोड़े चाहें, तो बिना शादी के भी एक-साथ रह सकते हैं और ऐसा करने का उन्हें कानूनी अधिकार है.
यह मामला 20 साल के पुरुष और 19 साल की स्त्री की शादी का था, जिसमें केरल उच्च न्यायालय ने बाल-विवाह निषेध कानून का हवाला देते हुए लड़की को उसके पिता के हवाले कर दिया था. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उस निर्णय को यह कहते हुए उलट दिया है कि भले अभी दोनों शादी नहीं कर सकते हैं, पर बालिग होने के नाते साथ रहने के अधिकारी हैं. कुछ दिनों पहले इसी न्यायालय ने जाति-गोत्र के नाम पर शादी रोकने की खाप पंचायत की कोशिशों को गैरकानूनी करार देते हुए उसे आपराधिक बताया था.
इसी तरह, दूसरे धर्म के व्यक्ति से ब्याह करने के एक मामले में अदालत ने साफ कहा कि आपसी रजामंदी से अपनी पसंद के व्यक्ति से ब्याह करना व्यक्ति के जीवन जीने के मौलिक अधिकार का हिस्सा है और इसमें दखल देने का समाज का कोई हक नहीं बनता है. एक देश के रूप में हम विरोधाभासों के संसार में रह रहे हैं.
समाज और राजनीति में जातिगत और धार्मिक गोलबंदियों का बड़ा असर है तथा उस असर के सामने व्यक्ति कमजोर है, जबकि लोकतंत्र व्यक्ति की इच्छा को सर्वोपरि मानकर चलनेवाली व्यवस्था है. संवैधानिक अधिकारों और कानूनी प्रावधानों के बावजूद समाज में कूढ़मगज मान्यताएं और सोच हावी हैं. चूंकि राजनीतिक पार्टियों को उसी समाज से वोट हासिल करना होता है, इसलिए वे भी अक्सर लोकतांत्रिक और प्रगतिशील धारा के विपरीत खड़े हो जाते हैं.
हालिया फैसले यह इंगित करते हैं कि स्त्री के सशक्तीकरण, व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा संवैधानिक मूल्यों से जुड़े मुद्दों को राष्ट्रीय जीवन में पूरी तरह से उतारने में हमें अभी बहुत लंबी सामाजिक यात्रा तय करनी है.
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