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21वीं सदी में सामाजिक रिश्ते

II डॉ अनुज लुगुन II सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया [email protected] यह घटना हमारे देश की है. उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले की. संजय जाटव नामक एक दलित युवक घोड़ी पर अपनी बारात निकालना चाहता था, लेकिन इसके लिए ऊंची जाति के दबंगों ने साफ मना कर दिया कि ठाकुर बहुल गांव के […]

II डॉ अनुज लुगुन II
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
यह घटना हमारे देश की है. उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले की. संजय जाटव नामक एक दलित युवक घोड़ी पर अपनी बारात निकालना चाहता था, लेकिन इसके लिए ऊंची जाति के दबंगों ने साफ मना कर दिया कि ठाकुर बहुल गांव के बीच से उसकी बारात नहीं निकल सकती. संजय ने इलाहाबाद हाइकोर्ट में अर्जी दी, लेकिन हाईकोर्ट ने भी उसकी याचिका खारिज कर दी और उसे पुलिस के पास जाने को कहा.
पुलिस कह रही थी कि इससे विधि व्यवस्था बिगड़ने की संभावना है, इसलिए बारात घोड़ी पर न निकले. सवर्ण ठाकुर समुदाय का कहना है कि दलित का घोड़ी पर बारात लाना उनके लिए अपमान की बात होगी और ऐसा अब तक उनके गांव में नहीं हुआ है. इस पर जिलाधिकारी का अलग ही तर्क है कि हिंदुओं में शादी एक संस्कार है और उसके लिए बारात निकालने की जरूरत नहीं. हालांकि, अब संजय को बारात ले जाने की ‘अनुमति’ मिल गयी है.
इक्कीसवीं सदी की यह घटना है. विचित्र बात यह नहीं कि ऊंची जाति वाले बारात निकालने के लिए रास्ता नहीं दे रहे, बल्कि यह कि प्रशासन और न्यायालय भी दबंग जातियों के विचार को संतुष्ट करती हुई दिख रही है.
पारंपरिक सामाजिक ढांचे के अंदर तो दलितों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार की कहानी सदियों पुरानी है. लेकिन, आधुनिक समाज के लिए निर्मित संवैधानिक संस्थाओं का यह रवैया आखिर क्या संकेत देता है?
हमें पुरानी सामंती सामाजिक संस्थाओं एवं उनके विचार और संवैधानिक संस्थाओं एवं उनके विचार को समझना चाहिए. सामंती सामाजिक संस्थाएं एवं उनके विचार किसी खास समुदाय पर केंद्रित होकर किसी अन्य दूसरे समुदाय पर नियंत्रण स्थापित करते हैं. भारतीय समाज की वर्ण आधारित जातीय व्यवस्था में यह अत्यंत जटिल एवं क्रूर है.
स्वतंत्र भारतीय समाज में ऐसे विचारों का निषेध करते हुए संवैधानिक प्रावधान किये गये एवं संस्थाएं निर्मित की गयीं. हमारे सामने पुराने सामाजिक विचार का निषेध कर संवैधानिक संस्थाओं एवं उसके विचार को लागू करने की चुनौती है. इसके लिए जरूरी है कि संवैधानिक संस्थाएं और उसके संचालक दूरदर्शी, ईमानदार, एवं न्यायप्रिय हों. यदि पुराने विचार से ही संवैधानिक संस्थाओं को संचालित किया जाये, तो फिर सामाजिक सुरक्षा का क्या अर्थ रह जायेगा?
क्या यह संभव नहीं था कि इस घटना की सूचना मिलने पर पुलिस कार्रवाई करती? क्या कमजोर समुदायों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कानून नहीं है? जब पीड़ित ने हाइकोर्ट में याचिका दायर की, तो क्या मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में कोर्ट सीधे संबंधित सक्षम अधिकारी को निर्देश नहीं दे सकती थी?
क्या जिलाधिकारी उस पर कार्रवाई करने का निर्देश नहीं दे सकते थे? दुर्भाग्य है कि पुलिस, जिलाधिकारी और कोर्ट का विचार किसी खास समुदाय के विचार को संतुष्ट करनेवाला लगा. संवैधानिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों का ऐसा विचार लोकतंत्र एवं उसकी संस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा करता है.
प्रशासन की दलील है कि दलित यदि घोड़े पर बारात लेकर आते हैं, तो उससे सामाजिक सद्भाव खराब होगा और विधि-व्यवस्था बिगड़ेगी. तो क्या सामाजिक सद्भाव या विधि-व्यवस्था का मतलब कमजोर एवं वंचित समुदायों का अपने संवैधानिक अधिकारों की मांग न करना है? यदि ऐसा है, तो क्या यह सदियों पुरानी सामंती सोच को संवैधानिक संस्थाओं की ओट से संरक्षित करने की साजिश नहीं है?
सन् 1955 में अस्पृश्यता (छुआछूत) निवारण कानून बना था. आजादी के बाद जातिवादी भेद को खत्म करने की संवैधानिक पहल की गयी थी.
1976 में नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम बना. 1989 में दलित-आदिवासी उत्पीड़न निवारण अधिनियम बना. ये अधिनियम सामाजिक परिस्थितियों के अध्ययन के रिणामस्वरूप क्रमश: बने थे, जिसके तहत पाया गया था कि दलित-आदिवासियों के साथ जातीय उत्पीड़न कम नहीं हुए हैं.
आज भी सरकार की एनसीआरबी का कहना है कि हर घंटे औसतन दलितों के खिलाफ पांच से ज्यादा अपराध होते हैं, जिनमें हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी हैं.
कुछ दिन पहले ही गुजरात में ऊंची जाति के दबंगों को एक दलित लड़के का घोड़ा पालना इतना अपमानजनक लगा कि उन्होंने उसकी हत्या तो की, घोड़े को भी मार डाला. यह आज की तारीख है और हम देख रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट 1989 के प्रभाव को इसलिए कम करने का आदेश दे दिया, क्योंकि उसके अनुसार उसका दुरुपयोग होता है.
जबकि एक्ट के दुरुपयोग के आंकड़े दलित-आदिवासी उत्पीड़न के आंकड़ों की तुलना में न्यूनतम हैं. क्या संवैधानिक संस्थाओं के प्रतिनिधि संवैधानिक विचार से नहीं, बल्कि सामंती सोच से संस्थाओं को संचालित करने की कोशिश कर रहे हैं?
इक्कीसवीं सदी में भी हमारे सामाजिक रिश्ते बहुत जटिल हैं. हम बात तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की करते हैं, लेकिन अपने ही पड़ोसी को घोड़े पर चढ़ते हुए देख नहीं सकते. हमारे लिए सामाजिक सद्भाव, विधि-व्यवस्था, शांति का मतलब है गरीब, वंचित समुदायों की चुप्पी. वे मारे जाएं, लेकिन चुप रहें और यदि वे आवाज उठाएं, तो वह विद्रोह होगा, हिंसा होगी. यह बड़ी विडंबना है.
हमें सामाजिक समरसता का लक्ष्य संविधान के रास्ते ही पाना होगा, न कि पुरानी सामंती संस्था, सोच या धर्मशास्त्र से. संविधान ही हमें समता के सूत्र में बांध सकता है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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