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रेटिंग एजेंसियों का कारोबार
II वरुण गांधी II सांसद, भाजपा fvg001@gmail.com किसी व्यक्ति, संस्था या देशों की रेटिंग प्राचीन काल से होती आयी है. इतिहासकार हेरोडोटस ने साइरेन के विद्वान कल्लीमकस के साथ मिलकर सात अजूबों की असल सूची बनायी थी, जिसमें अलंकृत भाषा में इनकी खूबियों के बारे में बताया गया था. आधुनिक समय की क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों […]
II वरुण गांधी II
सांसद, भाजपा
fvg001@gmail.com
किसी व्यक्ति, संस्था या देशों की रेटिंग प्राचीन काल से होती आयी है. इतिहासकार हेरोडोटस ने साइरेन के विद्वान कल्लीमकस के साथ मिलकर सात अजूबों की असल सूची बनायी थी, जिसमें अलंकृत भाषा में इनकी खूबियों के बारे में बताया गया था.
आधुनिक समय की क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की उत्पत्ति तो हाल की घटना है- 1837 के वित्तीय संकट के बाद एक विडंबना के साथ इनकी शुरुआत हुई. ऐसी एजेंसियों (पहली एजेंसी लेविस टप्पन द्वारा न्यूयार्क में 1937 में बनायी गयी) की जरूरत उस समय किसी व्यापारी के अपने कर्जे चुका पाने की क्षमता के आकलन, आंकड़ों के संकलन के लिए की गयी थी.
इसके बाद जल्द ही मार्केट के बारे में स्वतंत्र जानकारी की मांग भी उठने लगी, जिसमें कर्ज चुकाने की क्षमता की भरोसेमंद जानकारी हो. मूडीज की रेटिंग के प्रकाशन धीरे-धीरे औद्योगिक फर्म और सेवा प्रदाताओं के बारे में साख-आधारित पत्र देने पर केंद्रित होते गये. साल 1924 तक रेटिंग संसार के तीन बड़े नाम (फिच, स्टैंडर्ड एंड पुअर्स समेत) कंपनी के तौर पर निगमित हो चुके थे, जिनका आज प्रतिस्पर्धा-विहीन क्रेडिट मार्केट के 95 फीसद हिस्से पर कब्जा है. साल 1933 का ग्लास-स्टीगल एक्ट पारित होने से सिक्योरिटी के कारोबार को बैंकिंग से अलग करने में मदद मिली. इसके द्वारा अमेरिकी बैंकों को सिर्फ रेटिंग वाले ग्रेडेड बांड में निवेश करने की इजाजत दी गयी.
ग्लोबल बांड मार्केट (सरकारी बांड समेत) को भी रेटिंग के दायरे में लाये जाने के बाद साल 1960 तक ऐसी रेटिंग का विस्तार कॉमर्शियल पेपर और बैंक जमा पर भी कर दिया गया. बाद में इसका विस्तार ग्लोबल बांड मार्केट (सरकारी बांड मार्केट) की रेटिंग तक हो गया. इस दौरान बिजनेस मॉडल में मामूली बदलाव करते हुए रेटिंग एजेंसियों ने निवेशक और रेटिंग की जानेवाली इकाई दोनों से फीस लेना शुरू कर दिया.
विश्व वित्तीय बाजार में महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद रेटिंग एजेंसियां अब भी अक्सर अनुचित और अशुद्ध रेटिंग के आरोपों के कारण भरोसा कायम कर पाने में नाकाम हैं. अमेरिकी न्याय विभाग ने 1996 में मूडीज द्वारा इशुअर संस्थान पर अनुचित दबाव डाले जाने के आरोप की जांच की.
मूडीज पर दुनियाभर के कई देशों में रेटिंग प्रोटोकॉल का पालन न करने के कारण जुर्माना लगाया गया. यूएस में 2008 के सबप्राइम संकट में अपनी आपराधिक भूमिका के लिए कार्रवाई से बचने के लिए मूडीज ने 86.40 करोड़ डॉलर जुर्माना भरा था. इसके साथ ही अनुचित रेटिंग के लिए यूरोप में 12 लाख यूरो और हांगकांग में 14 लाख हांगकांग डॉलर का जुर्माना लगा. (यूएमएमआईडी, 2017)भारत में भी रेटिंग एजेंसियों का रिकॉर्ड मिला-जुला है. एमटेक ऑटो और रिको इंडिया के मामले में सेबी ने रेटिंग एजेंसियों की जांच की थी और नियम व डिस्क्लोजर मानक कड़े किये गये थे.
साल 2011 से 2015 के दौरान रिको इंडिया की देनदारियां बिना अचल परिसंपत्तियों में बढ़ोतरी के बढ़ गयी थीं और कंपनी ने सितंबर 2015 तिमाही के नतीजे की घोषणा में भी देरी (मई 2016 तक) की थी.
भारतीय रेटिंग एजेंसियों ने एमटेक ऑटो को- एक ऐसी फर्म जो 800 करोड़ के बांड के पुनर्भुगतान में डिफाॅल्टर होने के कगार पर भी- एए की रेटिंग दे दी, जिसके फौरन बाद ही इसकी रेटिंग में कई गुना की गिरावट आना तय था. यहां तक कि भूषण स्टील और जयप्रकाश इंडस्ट्रीज को भी दिवालिया होने से पहले सभी एजेंसियों द्वारा इनवेस्टमेंट ग्रेड की रेटिंग दी गयी थी.
महत्वपूर्ण बात यह है कि इन रेटिंग एजेंसियों का वैश्विक असर होने के कारण एक से दूसरे देश में पूंजी के प्रवाह से कई राष्ट्रों का वित्तीय भाग्य प्रभावित होता है, जैसा कि पूर्वी एशिया संकट के दौरान देखने को मिला था.
हाल में ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड को ‘जंक’ स्टेटस में डाल देने के साथ ही यूएस और यूरोपियन सरकारी कर्ज की डाउनग्रेडिंग किये जाने की आलोचना हुई है. इस कदम से सरकारी कर्ज का संकट पैदा होने के साथ ही बेरोजगारी बढ़ी और यूरो जोन को अस्थिरता का सामना करना पड़ा.
भारत की आर्थिक उपलब्धियों को नजरअंदाज करने और इसको भारत की रेटिंग से जोड़कर नहीं देखना ऐसा मुद्दा है, जो ज्यादातर भारतीय अर्थशास्त्रियों के मन में खटकता है.
इनके ऐसे ही मनमाने बरताव के कारण रूस और चीन को अपनी खुद की रेटिंग एजेंसी बनाने का फैसला लेना पड़ा था- स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने क्रीमिया के विलय के बाद रूसी सरकार को साल 2014 में जंक स्टेटस से बस एक पायदान ऊपर रख दिया था. राजनीति से प्रेरित बताते हुए रूस ने इसे खारिज कर दिया था.
शायद कई देश बुनियादी खामियों के बाद भी ऐसी रेटिंग की उपलब्धि को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं. हितों के टकराव को देखें, तो ऐसी रेटिंग एजेंसियां अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा गैर-रेटिंग गतिविधियों से कमाती हैं.
आरपी बघाई और बो बेकर ने 2016 में अपनी रिपोर्ट नॉन-रेटिंग रेवेन्यू एंड कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट में बताया कि कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि रेटिंग एजेंसी, संबंधित इकाई को, चाहे वह संस्था हो या राष्ट्र, गैर-रेटिंग सेवाओं के साथ अच्छी रेटिंग दिलाने का लालच देती हैं.
हमारी विकास यात्रा में, हमें हर हाल में ऐसी रेटिंग एजेंसियों, खासकर स्वदेशी एजेंसियों, का इस्तेमाल कॉरपोरेट सेक्टर में साफ-सफाई के लिए करना चाहिए. निवेशकों के हित की सुरक्षा के लिए सेबी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को अपने क्लाइंट को कम मुनाफे पर भी गैर-रेटिंग सेवाएं देने से रोकने के लिए आदेश देने की संभावनाएं तलाश सकता है.
तयशुदा ऑपरेटिंग फीस मॉडल पर भी विचार किया जा सकता है, जिससे कि गुणवत्ता से समझौता करके ‘सबसे कम बोली लगानेवाले को’ फायदा पहुंचाने की संभावना खत्म की जा सके. आउटस्टैंडिंग (शानदार) रेटिंग देने और फिर अचानक रेटिंग गिरा देने के मामलों की गहराई से निगरानी किये जाने की जरूरत है. कॉरपोरेट्स को भी ऑडिटर की तरह ही नियमित रूप से रेटिंग एजेंसी बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
मार्केट रेगुलेटर द्वारा फीस तय करके ‘रेटिंग पानेवाला भुगतान करेगा’ मॉडल को बदलकर ‘निवेशक भुगतान करेगा’ मॉडल अपनाना चाहिए. वित्तीय फैसले सभी को रोजगार उपलब्ध कराने व नये प्रयोगों के साथ अर्थव्यवस्था का विकास करने की भावना से प्रेरित होने चाहिए, ना कि दरवाजे-दरवाजे भटकते हुए रेटिंग पाने की आशा से.
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