संदीप मानुधने
आर्थिक मामलों के जानकार
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के वर्षभर के पहले अग्रिम आकलन के मुताबिक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की वार्षिक वृद्धि दर का आंकड़ा अनुमान से काफी कम आया है. सीएसओ का कहना है कि मौजूदा वित्त वर्ष में जीडीपी 6.5 फीसदी के दर से बढ़ेगी, जबकि रिजर्व बैंक का आकलन 6.7 फीसदी का था. यह अन्य अनुमानों से भी कम ही है.
अपने-आप में जीडीपी की वृद्धि दर शायद बहुत अधिक मायने न रखे, लेकिन पिछली कुछ तिमाहियों से लगातार गिरती दरों को यदि समग्रता में देखें, तो यह गिरावट चिंता का विषय है. भारत जैसे अति युवा देश में, और विशेषकर जब विश्व अर्थव्यवस्था में 2017 का साल 2007 के बाद पहला उछाल भरा साल रहा, यह परिदृश्य ऐसी स्थिति में निश्चित ही ठीक नहीं है. इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करना जरूरी है.
दो बड़े झटके
अर्थव्यवस्था के औपचारिकीकरण और परिवर्तन हेतु लाये गये दो बड़े आर्थिक निर्णयों ने बड़े झटके दिये. साथ ही, मध्यावधि एवं दीर्घावधि में बड़े सुधार की गुंजाइश भी दिखायी. विमुद्रीकरण और वस्तु एवं सेवाकर प्रणाली (जीएसटी) ऐसे वादे हैं, जिनका सही आकलन केवल इतिहास ही कर पायेगा. वर्तमान की सच्चाई यह है कि वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान कम-से-कम 0.5 से एक फीसदी जीडीपी की दर घटी है.
मुद्रास्फीति की स्थिति
पिछले कुछ वर्षों से राज्य तंत्र की विवशताओं के चलते कृषि क्षेत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य को लगातार बढ़ाया गया था. जिसका मुद्रास्फीति पर हमेशा नकारात्मक प्रभाव रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं और उन्होंने इस बढ़ोतरी को काफी संयमित कर दिया. लेकिन इससे ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो गयी हैं, जिनका असर आगामी बजट में दिखायी देना लाजिमी है, यानी कृषि क्षेत्र में व्यय शायद बढ़ेगा, जिससे नियंत्रण फिसल जाने की संभावना बनी रहेगी. ज्ञात रहे कि राजकोषीय घाटा पहले के 3.2 फीसदी के बजाय फिसलकर 3.54 फीसदी तक तो आयेगा ही.
तेल की कीमतों का आशीर्वाद
पिछले तीन वर्षों में घटी हुई कच्चे तेल की कीमतों ने सरकार को प्रति वर्ष कम-से-कम एक लाख करोड़ की अदृश्य बचत का आशीर्वाद दिया. यह आशीर्वाद अब नहीं है. और, यदि मध्य-पूर्व की राजनीतिक स्थिति बिगड़ती है और कच्चे तेल की कीमतों में तेज वृद्धि होती है, तो दबाव बहुत बढ़ जायेगा. यह सब तब हो रहा है, जब जीएसटी से होनेवाली राजस्व आय बढ़ नहीं पा रही है.
बजट की विवशताएं
जमीनी हकीकतों को ज्यादा देर तक नजरअंदाज कर पाना शायद कठिन हो जाये. इसका मतलब होगा कि सरकारी व्यय में तेजी से बढ़ोतरी करना. ज्ञात रहे कि सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (जीएफसीइ) उन छह में से अकेला इंजन था, जो अर्थव्यवस्था को संभाले हुए था. किंतु राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने की विवशता के कारण इस व्यय की गति भी मद्धम हो चुकी है. ऐसे में निजी क्षेत्र के निवेश का तेजी से बढ़ाया जाना बेहद जरूरी है. किंतु दो कारक इसमें रुकावट बने हुए हैं. एक, बैंकों की कुल परिसंपत्ति के दस फीसदी के स्तर को छूता हुआ अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) का भयानक हिसाब, और दूसरा, उद्योग द्वारा विभिन्न आशंकाओं के चलते नये निवेश करने में हिचकिचाहट या नया निवेश रोक देने का निर्णय.
आर्थिक मोर्चे पर सकारात्मक खबरें
लेकिन इस विश्लेषण का यह मतलब नहीं है कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सब कुछ खराब ही चल रहा है. यदि हम स्टॉक मार्केट पर नजर डालें, तो पायेंगे कि कुछ सकारात्मक कारक भी मौजूद हैं. तेजी से बढ़ता मार्केट साफ दर्शाता है कि तीसरी और चौथी तिमाही में कंपनियों के आय के बढ़े आकलन का अंदाजा मार्केट को है. इससे यह साबित होता है कि सबसे खराब समय पीछे छूट चुका है.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का यहां तक कहना है कि केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय का आंकड़ा शायद गलत सिद्ध हो और आर्थिक वृद्धि का अंतिम आंकड़ा 6.7 या 6.8 फीसदी तक जा सकता है. इसी प्रकार पूंजी के कुल बढ़त के आंकड़े भी ज्यादा निकल सकते हैं. यहां तक कि विदेशी संस्थागत निवेशक भारतीय शेयरों की खरीद इस वित्त वर्ष में तेजी से कर रहे हैं (अभी तक दो लाख करोड़ रुपये की खरीद). इस तरह से आनेवाला समय बेहतरी की खबर लेकर आ सकता है.
सारांश के तौर पर कहा जा सकता है कि देश की पांच मूलभूत चुनौतियां हैं- औपचारिक क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसरों का सृजन, कृषि क्षेत्र में आय बढ़ाना और दबाव कम करना, उद्योगों को भरोसे में लेकर पूंजी-प्रवाह को तेज करना, नये ऋण प्रवाह से नये निवेश कराना, जीएसटी प्रशासन को युक्तिसंगत बनाना और स्थिर करना तथा खोयी हुई आशावादिता को वापस लाना. ये बिंदु शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के लिए प्रमुख जिम्मेदारियां दिखती हैं.
‘न्यू इंडिया’ का स्वप्न लेकर चले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्णतः सक्षम हैं कि एक अच्छी टीम और विशेषज्ञों के माध्यम से इस स्वप्न को बिना चुनावी राजनीति के फेर में उलझे पूरा कर सकें.