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इस चुनाव नतीजे के बाद

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार आज गुजरात के चुनाव नतीजे की ओर सब का ध्यान है. यह लगभग तय है कि हिमाचल प्रदेश में भाजपा भारी बहुमत से जीत रही है और गुजरात में भी उसकी जीत सुनिश्चित है. मई 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एकाध अपवाद (दिल्ली, पंजाब) छोड़कर भाजपा सभी राज्यों में चुनावी जीत […]

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

आज गुजरात के चुनाव नतीजे की ओर सब का ध्यान है. यह लगभग तय है कि हिमाचल प्रदेश में भाजपा भारी बहुमत से जीत रही है और गुजरात में भी उसकी जीत सुनिश्चित है. मई 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एकाध अपवाद (दिल्ली, पंजाब) छोड़कर भाजपा सभी राज्यों में चुनावी जीत हासिल कर रही है. चुनाव का एक दिन 1825 दिन (पांच वर्ष) पर भारी पड़ रहा है. 45 वर्ष पहले (1972) नागार्जुन ने अपनी एक कविता में चुनाव को ‘प्रहसन’ कहा था. अब 21वीं सदी में लोकतंत्र चुनाव में सिमट गया है, जबकि चुनाव लोकतंत्र का पर्याय नहीं है. चुनाव-प्रचार का स्तर अब निम्नतर है. मात्र आरोप-प्रत्यारोप, अप्रासंगिक चर्चाएं.

गुजरात चुनाव ने कई बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं, जिनकी अनदेखी करना भारतीय लोकतंत्र को पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करना है. राजनीति में गंभीरता, नैतिकता, सदाशयता सबकी विदाई हो चुकी है. किसी भी प्रकार सत्ता पानी है. जीतने के लिए कुछ भी किया जा सकता है.

न कोई मर्यादा है, न आचार-संहिता. भारतीय लोकतंत्र की इस दशा से उसकी दिशा का कोई भी अनुमान लगा सकता है. अस्वस्थ-रुग्ण राजनीति के लगभग सभी तरीके गुजरात चुनाव में अपनाये गये. गुजरात प्रधानमंत्री मोदी का गृह राज्य है. यहां भाजपा की जीत-हार उनकी जीत-हार है, उनके गुजरात मॉडल की जीत-हार है. इसलिए इस चुनाव को हर हाल में भाजपा को जीतना है. फिलहाल भाजपा और मोदी एक हैं. लगभग पर्याय. जिसे ‘मोदी मैजिक’ कहा जाता है, वह क्या है? वे विपक्ष पर किस तरह हमले करेंगे, कोई नहीं जानता. सब कुछ अप्रत्याशित होता है. दिल-दिमाग को अपने पक्ष में करना सदैव आसान नहीं होता. मोदी यह कार्य कर रहे हैं, और यह जादू नहीं तो और क्या है? लेकिन, बड़ा से बड़ा जादू लोकतंत्र को समृद्ध नहीं करता.

मतदाताओं को चुनावी राजनीति ने अपने लाभार्थ विभाजित कर दिया है. इस बार गुजरात में जातिगत राजनीति प्रमुख रही. अस्सी के दशक के बाद पहली बार इस चुनाव में उसकी केंद्रीय उपस्थिति बनी. इसके पहले वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण था, हिंदुत्व की राजनीति थी. 2007 और 2012 की तरह इस बार 2017 में भी भाजपा ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को खड़ा नहीं किया. कांग्रेस ने 182 सीटों में से मात्र छह मुसलमानों काे टिकट दिया और 2012 की तुलना में उसने ओबीसी को सबसे अधिक टिकट दिया- लगभग दोगुना. भाजपा का भी ओबीसी पर विशेष प्रेम उमड़ा. स्त्री प्रत्याशी कांग्रेस और भाजपा दोनों के यहां कम रहे. चुनाव जीतना एकमात्र लक्ष्य है. गुजरात चुनाव भाजपा के लिए जीवन-मरण के प्रश्न की तरह था.

भाजपा की हार ‘वाटरलू’ हो सकती थी. ‘मोदी मैजिक’ की तुलना में ‘मोदी माइंड’ की कम बात की जाती है. इस ‘माइंड’ को समझना कठिन है. आज के चुनाव नतीजे के बाद कई महीनों तक इस चुनाव परिणाम का विश्लेषण होता रहेगा, पर चुनाव-प्रचार के दौरान जो कुछ हुआ, वह राजनीतिक दलों के लिए भी विचारणीय है.

मणिशंकर अय्यर का एक ‘नीच’ शब्द चुनाव-प्रचार के अंत तक ऊंचा बना रहा. विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, नोटबंदी, जीएसटी, भ्रष्टाचार बड़े मुद्दे नहीं बन सके. बड़े मुद्दों को गौण बनाने और जो मुद्दा नहीं है, उसे मुद्दा बनाने का कार्य सामान्य नहीं है. यह एक कला है. यह राजनीतिक कला, कौशल, पतनशील राजनीति का उदाहरण है. अब ‘ज्योतिषाचार्य’ चुनावी परिणाम की भविष्यवाणियां करते हैं, सट्टेबाज सट्टे लगाते हैं. जब ज्योतिषशास्त्र, धर्मशास्त्र प्रमुख होने लगे, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र विकृत हो उठते हैं. एक-साथ गुजरात के चुनाव-प्रचार में राममंदिर, मंदिरों में राहुल गांधी के जाने को और भाषा को जब प्रचार में प्रमुखता दी जाये और मणिशंकर के यहां पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व उपराष्ट्रपति, पूर्व सेना जनरल, पत्रकार आदि की उपस्थिति को जब षड्यंत्र के रूप में देखा जाये, तब हमें अवश्य सोचना चाहिए कि राजनीति किस दिशा में जा रही है या अब उसका कार्य किसी भी प्रकार से चुनाव जीतकर सत्ता पाना है. भाजपा-मोदी का ‘इस्लामोफोबिया’ सर्वविदित है. गुजरात चुनाव में ‘गुजरात अस्मिता’ भी प्रमुख रही.

मुस्लिम वोटरों को भाजपा-कांग्रेस दोनों ने किनारे किया. अब वोट प्रतिशत ही सब कुछ है. जिसका वोट ज्यादा, उसे लुभाने के पचास तरीके. जनेऊधारी राहुल चर्चा में रहे. जो जनेऊ धारण नहीं करते, क्या कांग्रेस उसकी पार्टी नहीं है? दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक से तब कांग्रेस कैसे जुड़ेगी? भाजपा की चाल में कांग्रेस फंस जाती है. प्रश्न भाजपा और मोदी की जीत का नहीं है. सामने कई बड़े मुद्दे हैं, जिन पर इस चुनाव नतीजे के बाद हमें ध्यान देना होगा. राजनीतिक दलों के लिए चुनाव जीतना ही सब कुछ है.

नरेंद्र मोदी को जिस प्रकार मनमोहन सिंह ने पत्र लिखा है, उस पर विचार करना जरूरी है. ‘पाकिस्तान कार्ड’ सदैव नहीं खेला जा सकता. क्या मणिशंकर अय्यर के यहां कसूरी के साथ सभी व्यक्ति राष्ट्रद्रोही थे?

भाजपा और कांग्रेस दोनों क्या आज के चुनाव नतीजे के बाद राजनीति के इस गिरते स्तर पर आत्ममंथन करेगी? जीत का जश्न सही है, पर लोकतंत्र और राजनीति की गरिमा की रक्षा ही अधिक महत्वपूर्ण है, जो गुजरात चुनाव में नष्ट हुई है.

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