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ऊंच की नीच

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार जिंदगी में नीच को बड़ा ऊंचा स्थान प्राप्त है. इतना ऊंचा स्थान तो खुद ऊंच और उसे पानेवाले ऊंचे को भी प्राप्त नहीं. कोई ऊंच-नीच होने पर नीच ही अपनी नीचता के बल पर उसे ऊंच में बदलता है. नीच की यह ऊंचाई देख ऊंचा भी नीच होने के लिए तरसता […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
जिंदगी में नीच को बड़ा ऊंचा स्थान प्राप्त है. इतना ऊंचा स्थान तो खुद ऊंच और उसे पानेवाले ऊंचे को भी प्राप्त नहीं. कोई ऊंच-नीच होने पर नीच ही अपनी नीचता के बल पर उसे ऊंच में बदलता है.
नीच की यह ऊंचाई देख ऊंचा भी नीच होने के लिए तरसता है. और क्यों न हो, ऊंचा जब अपनी ऊंचाई प्राप्त ही नीचों की वजह से करता हो. यही वजह है कि सभी क्षेत्रों में ऊंचों ने कुछ नीच रखे हुए हैं, जो न केवल उनकी ऊंचाई बनाये रखने में योगदान करते हैं, बल्कि दूसरों को उस ऊंचाई पर जाने से रोकते भी हैं. क्योंकि ऊंचों की ऊंचाई खुद के ऊंचा होने पर उतनी निर्भर नहीं करती, जितना दूसरों को ऊंचा होने से रोकने पर निर्भर करती है. नीचों को इसमें महारत हासिल होती है. इसलिए ऊंचा जिस किसी को भी ऊंचाई पर चढ़ अपने निकट पहुंचते देखता है, अपने नीचों को उसकी टांग खींचकर नीचे गिराने में लगा देता है.
साहित्य में अपने-अपने नीचों के बल पर ऊंचाई पर पहुंचे ऐसे ही दो ऊंचों ने अपनी नीचता को खासी कलात्मक ऊंचाई प्रदान की है. एक ने अपने एक नीच की मार्फत दूसरे को गरियाया, तो दूसरे ने अपने नीच से उस पर थुकवा दिया. जब दोनों ने अपनी पूरी छीछालेदर करवा ली, तो दोनों सामने आकर ‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा था’ का मंत्रोच्चारण करते हुए और मन ही मन यह समझते हुए कि कहा तो हमने बिलकुल ऐसा ही था, गले मिले और एक संयुक्त घोषणा-पत्र जारी कर कहा कि उन्होंने जो एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला था, वह एक-दूसरे पर न उछालकर किसी तीसरे पर उछाला था, जो उनकी ऊंचाई तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था.
राजनीति में तो बिना नीचों के काम ही नहीं चलता. वहां हर दल के पास उच्च कोटि के नीच होते हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है. यों तो उनके हाव-भाव से ही पता लग जाता है कि हो न हो, ये अपने दल के नीच हैं, लेकिन फिर भी उनमें से कुछ तो इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं कि उनके आते ही अंदाजा लग जाता है कि अब कोई नीचतापूर्ण बात होगी, जो उनके मुंह खोलते ही साबित भी हो जाता है.
साहित्य और राजनीति, दोनों स्थानों पर नीचों को अपनी बात कहने से मुकरने के लिए तैयार रहना होता है. इसके लिए वे चाहें, तो मीडिया पर दोषारोपण कर सकते हैं कि उसने उनकी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया, या चाहें तो उसका ठीकरा अपने अल्प भाषा-ज्ञान पर भी फोड़ सकते हैं.
लेकिन राजनीति में कभी-कभी इसके लिए उन्हें बलि का बकरा बनकर तात्कालिक नफे-नुकसान को देखते हुए दल की सदस्यता से निलंबन या बर्खास्तगी भी झेलनी पड़ सकती है, जबकि साहित्य में ऐसा नहीं होता. साहित्य में तो उलटे ऐसे नीच को पुरस्कृत कर काफी ऊंचा स्थान प्रदान करने की कोशिश की जाती है, जिसके बाद वह अपने स्वयं के कुछ नीच नियुक्त कर उनसे वैसी ही हरकतें शुरू करवा सकता है, जैसी वह खुद नीच रहते हुए करता रहा था.

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