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यूपी सही में क्या बोली?
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में ‘विपक्ष का सफाया करनेवाली विजय’ का सिंहनाद करने के लिए भाजपा एक विजेता टीम के रूप में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में गुजरात पहुंच रही है. वहां संदेश देना है कि भाजपा सरकारों को जनता कितना पसंद कर रही है और जो कांग्रेस गुजरात-विजय […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में ‘विपक्ष का सफाया करनेवाली विजय’ का सिंहनाद करने के लिए भाजपा एक विजेता टीम के रूप में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में गुजरात पहुंच रही है. वहां संदेश देना है कि भाजपा सरकारों को जनता कितना पसंद कर रही है और जो कांग्रेस गुजरात-विजय का स्वप्न देख रही है, वह राहुल गांधी की अमेठी में नगर निकायों की एक सीट नहीं जीत सकी.
क्या वास्तव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश के नगर निकायों में विपक्ष का सफाया कर दिया है, जैसा कि उसके नेताओं के अलावा मीडिया का बड़ा तबका भी बता रहा है? क्या खुद विपक्ष ने, विशेष रूप से बसपा और सपा ने, इन चुनाव नतीजों को गौर से देखा और विश्लेषित किया है? आखिर वे क्यों इवीएम में गड़बड़ी करने का आरोप लगाकर ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं? विपक्ष को खिसियाने की कतई जरूरत नहीं है.
उसे तो भाजपा से सवाल करना चाहिए कि आखिर वह सिर्फ 16 नगर निगमों के चुनाव नतीजों का प्रचार कर क्यों फूली नहीं समा रही? नगरपालिका परिषदों और नगर पंचायतों के परिणामों की बात क्यों नहीं कर रही है? बल्कि, विपक्ष चाहे तो नतीजों से संदेश ग्रहण कर 2019 के लिए भाजपा के मुकाबले साझा मंच बनाने की पहल कर सकता है. हैरत है कि न मायावती और न ही अखिलेश ने इस तरह देखा और सोचा. लगता है वे भाजपाई प्रचार के सामने असहाय हो गये हैं.
क्या कहते हैं नतीजे
सोलह नगर निगमों में मेयर के 14 पद भाजपा ने जीते हैं. पार्षदों के करीब 46 फीसदी पद भी उसे हासिल हुए हैं. यह निश्चय ही बड़ी जीत है, लेकिन यह कोई नयी बात नहीं. नगर निगमों में भाजपा का पहले से ही कब्जा रहा है.
वर्ष 2012 में जब न मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में थे, न योगी और उत्तर प्रदेश में शासन समाजवादी पार्टी का था, तब के 12 नगर निगमों में मेयर के 10 पद भाजपा ने जीते थे. पार्षदों में भी उसी का बहुमत था. इसलिए इस बार की विजय विशेष नहीं है, जबकि मुख्यमंत्री योगी समेत पूरा मंत्रिपरिषद प्रचार में जुटा था. अकेले योगी ने ही 26 चुनाव सभाएं की थीं. अखिलेश और मायावती दोनों ही प्रचार करने नहीं निकले थे.
बड़े शहरी क्षेत्र से बाहर निकल कर नगरपालिका परिषदों और नगर पंचायतों के नतीजों पर निगाह डालते ही भाजपा की प्रचंड विजय का दावा फीका पड़ने लगता है. नगरपालिका परिषदों के 198 अध्यक्ष पदों में सिर्फ 70 भाजपा जीत सकी है. परिषद सदस्यों के 5,261 पदों में मात्र 922 (17.53 प्रतिशत) भाजपा जीती.
यहां निर्दलीयों ने 3380 (64.25 प्रतिशत) पद जीते. सपा, बसपा ने बहुत खराब प्रदर्शन नहीं किया. नगर पंचायत अध्यक्ष के 438 पदों में भाजपा को सिर्फ 100 (22.53 प्रतिशत) पर जीत मिली. सपा ने 83, बसपा ने 45 और निर्दलीयों ने 182 (41.55 प्रतिशत) पद हासिल किये. पंचायत सदस्यों के 5,434 पदों में केवल 664 (12.22 प्रतिशत) भाजपा ने जीते. निर्दलीयों ने 3875 (71.31 प्रतिशत), सपा ने 453 और बसपा ने 218 पद जीते.
निश्चित ही भाजपा ने पिछली बार की तुलना में बेहतर नतीजे हासिल किये. पूरा जोर लगाने के बाद यह जीत ‘विपक्ष का सफाया करनेवाली’ तो नहीं ही है, बल्कि 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तुलना में भाजपा का यह प्रदर्शन फीका ही कहा जायेगा.
मुस्लिमों का रुझान
लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भारी पराजय झेल चुकी बसपा की निकाय चुनावों से वापसी हुई है. दो नगर निगमों के मेयर पद उसने भाजपा से छीन कर जीते और दो में दूसरे स्थान पर रही. इससे साबित होता है कि शहरी इलाकों में भी उसका प्रभाव बढ़ा है. एक और संकेत यह है कि भाजपा को हराने के लिए कुछ जिलों में मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर बसपा को वोट दिये.
दलित-मुस्लिम एका से ही बसपा को बढ़त मिली. विधानसभा चुनाव में मायावती ने इसके लिए पूरा जोर लगाया था. सपा के लिए यह चिंता की बात होगी. मुलायम सिंह यादव ने आगाह भी किया था कि पार्टी नेतृत्व मुसलमानों को अपने साथ बनाये रखने के प्रयास नहीं कर रहा है.
असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने भी पहली बार प्रदेश में अपना खाता खोला है. निकाय चुनावों में कई स्थानीय कारक महत्वपूर्ण होने के बावजूद मुस्लिम मतदाताओं के रुझान में परिवर्तन के संकेत मिलते हैं. सपा का प्रदर्शन नगर निगमों में खराब रहा, लेकिन नगरपालिका परिषद और नगर पंचायतों में ठीक-ठाक प्रदर्शन किया. पार्टी नेतृत्व ने पता नहीं क्यों, इन चुनावों को गंभीरता से नहीं लिया. अखिलेश यादव और दूसरे प्रमुख नेता चुनाव प्रचार के लिए निकले ही नहीं. मायावती ने भी न तो प्रचार किया और न ही मतदान. नतीजों के आधार पर भाजपा के दावों की पोल खोलने से भी उन्हें परहेज-सा है.
विपक्षी एकता के सूत्र
भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की वकालत करने वालों के लिए ये नतीजे उत्साहवर्धक हैं. ये नतीजे संकेत देते हैं कि यदि भाजपा के मुकाबले विरोधी दलों का महागठबंधन बने, तो वह 2019 में उसे कड़ी टक्कर दे सकता है.
सपा-बसपा भी मिलकर लड़ें, तो भाजपा की राह मुश्किल हो सकती है,परंतु इन दलों के साथ आने में रोड़े-ही-रोड़े हैं. राज्य में पहली बार निकाय चुनाव पार्टी और चुनाव चिह्न के आधार पर लड़े गये हैं. पहले राजनीतिक दल निर्दलीयों को अपना बताने के दावे किया करते थे. इस बार उनकी जमीनी ताकत की तस्वीर खुली है. नगरपालिकाओं और नगर पंचायतों में 65-70 प्रतिशत निर्दलीय उम्मीदवार जीते हैं.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत सुधरने के संकेत अब भी नहीं हैं. निकाय चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत दयनीय रहा. सोनिया गांधी की रायबरेली ने लाज रखी, लेकिन राहुल गांधी की अमेठी में कहीं उसके प्रत्याशी ही नहीं थे और जहां थे, वहां हार गये. वाम दलों ने भी कई प्रत्याशी उतारे थे. साबित यही हुआ कि उत्तर प्रदेश में उनका जनाधार समाप्त प्राय है. आम आदमी पार्टी को भी कोई खास सफलता नहीं मिली.
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