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जातिवाद का जहर

जातिगत भेदभाव भारतीय समाज और राजनीति का एक यक्ष-प्रश्न रहा है, क्योंकि इसे भारत की पहचान से जोड़ा गया, तो दूसरी तरफ एक लोकतांत्रिक समाज बनने में बड़ी बाधा भी माना गया. बुनियादी पहचान बनाये रखते हुए भारत एक लोकतांत्रिक समाज बन सकता है या नहीं- यह स्वाधीनता संग्राम का सबसे कठिन प्रश्न रहा और […]

जातिगत भेदभाव भारतीय समाज और राजनीति का एक यक्ष-प्रश्न रहा है, क्योंकि इसे भारत की पहचान से जोड़ा गया, तो दूसरी तरफ एक लोकतांत्रिक समाज बनने में बड़ी बाधा भी माना गया.
बुनियादी पहचान बनाये रखते हुए भारत एक लोकतांत्रिक समाज बन सकता है या नहीं- यह स्वाधीनता संग्राम का सबसे कठिन प्रश्न रहा और इस मसले पर महात्मा गांधी, डाॅ आंबेडकर तथा समाजवादी , साम्यवादी और हिंदुत्वादी धारा के प्रमुख नेताओं की राय में फर्क रहा है. फर्क के बावजूद वक्त बीतने के साथ जातिगत भेदभाव दूर करने की जरूरत ने देश की बहुसंख्यक आबादी को आंदोलित और गोलबंद किया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि सरकारें सामाजिक न्याय पर जोर देने लगी हैं. सबको साथ लेकर विकास करने की मंशा पर जोर देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर से जातिवाद के जहर की तरफ देश का ध्यान खींचने की कोशिश की है.
प्रतिष्ठित समाजसेवी नानाजी देशमुख की जन्म शताब्दी और भारतीय तर्ज की समाजवादी राजनीति की बुनियाद रखनेवाले अग्रणी नेताओं में शुमार जयप्रकाश नारायण की जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री ने कहा कि गांवों को जातिवाद का जहर बर्बाद कर रहा है और जरूरत जातिवाद की भावना से उबरकर गांवों को एक समावेशी इकाई बनाने की है.
गांवों की रुचि, प्रकृति और प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर नतीजे देनेवाली विकास-योजनाएं बनाने और लागू करने की प्रधानमंत्री की बात को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. गांवों के देश भारत के विकास को एेतिहासिक रूप से रोक रखने का जिम्मेदार माननेवाले दो बड़े नेता डॉ आंबेडकर और डॉ राममनोहर लोहिया विचारों के अलगाव के बावजूद जातिगत भेदभाव के बारे में बुनियादी बातों पर सहमत थे. उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री ने गांवों को जातिवाद से उबरने की जो बात कही है, वह आंबेडकर और लोहिया की सोच की लकीर पर ही होगी. वर्ग की तरह गैरबराबरी की एक बुनियादी इकाई जाति भी है. इसने भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को अवरुद्ध किया है.
जाति-व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता है, बल्कि जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए उसका समूल नाश करना होगा. इन बातों पर लोहिया और आंबेडकर में सहमति थी. दोनों मानते थे कि जातिवाद के खात्मे के लिए सिर्फ कानून, विकास योजना, आरक्षण के बदलाव काफी नहीं हैं, बल्कि जातिगत बराबरी के संघर्ष का वैचारिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है. आशा है, जातिगत बराबरी की इस लकीर पर सरकार और समाज विचार कर अग्रसर होंगे.
Prabhat Khabar Digital Desk
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