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सुरक्षा बलों का तालमेल
अशोक मेहता पूर्व मेजर जनरल ज म्मू-कश्मीर में दो रोज पहले दो घटनाएं हुईं. एक, शोपियां में सेना के काफिले पर दहशतगर्दों का हमला और दूसरा, कुलगाम के गोपालपुरा में सेना और दहशतगर्दों के बीच मुठभेड़. पहली घटना में भारतीय सेना के एक मेजर और एक जवान शहीद हो गये, तो दूसरी घटना में सेना […]
अशोक मेहता
पूर्व मेजर जनरल
ज म्मू-कश्मीर में दो रोज पहले दो घटनाएं हुईं. एक, शोपियां में सेना के काफिले पर दहशतगर्दों का हमला और दूसरा, कुलगाम के गोपालपुरा में सेना और दहशतगर्दों के बीच मुठभेड़. पहली घटना में भारतीय सेना के एक मेजर और एक जवान शहीद हो गये, तो दूसरी घटना में सेना ने दो दहशतगर्दों को मार गिराया.
खबरें आ रही हैं कि बीते दिनों में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. हालांकि, सीमा क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं, जिनमें कुछ दुश्मन मारे जाते हैं, तो हमारे कुछ जवान शहीद होते हैं. यह स्थिति बदलनी चाहिए, क्योंकि दो हम मारें, दो वो मारें, यह सेना के मनोबल के नजरिये से ठीक नहीं है. दो और दो की यह दर हमारे लिए और खासकर भारतीय सेना के लिए ठीक नहीं माना जा सकता.
क्योंकि, सेना और आतंकियों के मुठभेड़ में या किसी आतंकी हमले में, अगर सेना 10 आतंकियों को मार गिराती है, तो इसमें उसका अपना नुकसान 1.5 जवानों के शहीद के रूप में हो सकता है. यानी करीब 7-8 आतंकियों को मार गिराने के बाद हमारे एक जवान को शहीद होना पड़ता है! हालांकि, बेहतर और चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था के नजरिये से इतना नुकसान भी नहीं होना चाहिए. इसलिए अगर बीते दिनों हमारे दो लोग शहीद हुए हैं, तो यह चिंता की बात है.
खबरों की मानें, तो जिस तरह इस घटना की जिम्मेवारी आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन ने ली है, इससे साफ है कि वह अरसे से खामोश नहीं था, बल्कि वह लगातार एेसे हमलों को अंजाम देने की रणनीति बनाता रहा है.
दरअसल, ऐसे संगठन हर वक्त मौका खोजते रहते हैं और जब जरा सी भी चूक पाते हैं, तो हमला कर देते हैं. काउंटर सरजेंसी में यही होता है कि दोनों तरफ के लोग चौकन्ने होते हैं. हमला करनेवाला हमले के लिए मौके की ताक में रहता है और उसे रोकनेवाला अपनी रणनीति पर मुस्तैद रहता है. अब इसमें जरा सी भी चूक नुकसान का सबब तो बन ही सकती है. हर रणनीति में पहले अपनी सुरक्षा अहम होती है, इसको ध्यान में रख कर अगर किसी ऑपरेशन को अंजाम दिया जाये, या किसी हमले का मुकाबला किया जाये, तो इससे नुकसान बहुत ही कम होने की गुंजाईश रहती है.
हम अपने जवान तभी खोते हैं, जब या तो सुरक्षा-व्यवस्था में कोई चूक हो, या सीमा पोस्टों पर आमने-सामने से गोलीबारी हो रही हो, या स्नैपर फायर हो रहा हो. बीते एक साल में घाटी में करीब 118 आतंकवादी मारे गये हैं, जिसके मुकाबले सुरक्षा बलों का कितना नुकसान हुआ है, इसका आंकड़ा तो नहीं मालूम, लेकिन यह सच है कि औसतन 7-8 आतंकियों को मार कर हमारा एक जवान शहीद हुआ है.
यह रेशियो अगर बिगड़ता है, तो इसका अर्थ यही होगा कि सैन्य ऑपरेशनों के क्रियान्वयन में कोई खामी है या समस्या है. या फिर सेना और स्थानीय पुलिस प्रशासन में तालमेल में कुछ कमी है. इस ऐतबार से देखें, तो अभी तक कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों का काम बहुत ही अच्छा रहा है और उनसे चूक कम हुई है. बीते एक अगस्त को लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर अबू दुजाना को सेना द्वारा मार गिराया जाना, इसका सबूत है कि हमारे सुरक्षा बल मुस्तैदी और अपनी पूरी जिम्मेवारी के साथ काम कर रहे हैं.
लश्कर कमांडर अबू जुदाना के मारे जाने के बाद घटी इन दो घटनाओं को उससे जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि घाटी में ऐसी घटनाएं कब घट जायें, कोई नहीं जानता. खबर आयी थी कि जुदाना के बारे में किसी लड़की ने जानकारी दी थी, उसके बाद ही सुरक्षा बलों ने मिल कर ऑपरेशन को अंजाम दिया और जुदाना को मार गिराया. जुदाना वहां अरसे से आतंकी योजनाएं बना रहा था. हमारी सेना हर हाल में सक्षम है और समृद्ध है, लेकिन उन सीमा क्षेत्रों में, जहां ढेर सारे गांव बसते हैं, सेना को पुलिस-प्रशासन और सीआरपीएफ के साथ मिल कर काम किये बिना सफलता मिलने की संभावना कुछ कम हो जाती है.
क्योंकि, अगर किसी घटना के होने से पहले उसके बारे में थोड़ी सी भी कोई जानकारी हाथ लग जाये, तो उसके लिए ऑपरेशन करना न सिर्फ आसान हो जाता है, बल्कि उसकी कामयाबी भी निश्चित हो जाती है. और ऐसी जानकारियां स्थानीय प्रशासन के जरिये ही जुटायी जा सकती हैं, जिसका स्थानीय लोगों से तालमेल बना रहता है.
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का एक अादेश है कि जब भी सेना कोई अॉपरेशन को अंजाम देने जायेगी, तो उसमें पुलिस-प्रशासन का शामिल होना जरूरी है. स्थानीय पुलिस प्रशासन को ‘स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप’ कहते हैं, यह एक खास पुलिस दस्ता होता है, जो सेना के साथ मिल कर अपने आस-पास के क्षेत्रों की आतंकी गतिविधियों पर नजर बनाये रखता है. ये दोनों मिल कर ही किसी ऑपरेशन को अंजाम देते हैं.
यह बहुत ही अच्छी बात है कि बीते कई महीनों से हमारी सेना इसी रणनीति पर चल रही है और उसने कई आतंकी वारदातों को अपने अंजाम तक पहुंचने नहीं दिया है और विफल कर दिया है. आगे चल कर इस सुरक्षा-व्यवस्था में सीआरपीएफ को भी शामिल कर लिया गया, क्योंकि घाटी में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जहां स्थानीय लोग अपनी कई मजबूरियों के चलते छिपे तौर पर आतंकियों की मदद करते हैं और सेना से भिड़ जाते हैं. औरतों और बच्चों पर सेना गोलियां नहीं चला सकती, इसलिए उनको नियंत्रण में लेने के लिए सीआरपीएफ का इस्तेमाल जरूरी हो जाता है.
अक्सर आतंकी हमलों में आतंकवादी स्थानीय घरों में छुप जाते हैं, वह भागने न पाये, इसलिए सीआरपीएफ वहां अपना काम करती है. कश्मीर में पत्थरबाज नौजवानों की फौज इसी तरह से खड़ी हो गयी थी.
इसलिए पिछले छह-आठ महीने से यह तय किया गया है कि सीमा क्षेत्रों में स्थित गांवों में जब भी कोई ऑपरेशन होगा, उसमें सेना के साथ पुलिस का दस्ता और सीआरपीएफ की टुकड़ी भी रहेगी, ताकि जीरो कैजुअलटी को बनाये रखते हुए ऑपरेशन को अंजाम दिया जाये और सारे आतंकियों को मार गिराया जाये. इस रणनीति के तहत ही हम दस आतंकी मार सकते हैं, बिना कोई जवान खोये.
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