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तीन कथाकारों को याद करते हुए

यह वर्ष पुरस्कार-सम्मान वापसी का है और इन तीन बड़े कथाकारों की जन्मशती का भी. इन लेखकों ने अपनी रचनाओं से समाज को दिशा दी, हमें सावधान किया. जागरूक बनाया. हम खामोश रह कर क्या कर रहे हैं? हिंदी-उर्दू के तीन बड़े अफसाना निगारों- भीष्म साहनी (1915-2003), इस्मत चुगताई (1915-1991) और राजेंदर सिंह बेदी (1915-1984) […]

यह वर्ष पुरस्कार-सम्मान वापसी का है और इन तीन बड़े कथाकारों की जन्मशती का भी. इन लेखकों ने अपनी रचनाओं से समाज को दिशा दी, हमें सावधान किया. जागरूक बनाया. हम खामोश रह कर क्या कर रहे हैं?
हिंदी-उर्दू के तीन बड़े अफसाना निगारों- भीष्म साहनी (1915-2003), इस्मत चुगताई (1915-1991) और राजेंदर सिंह बेदी (1915-1984) के जन्मशती वर्ष में हिंदी-उर्दू के प्रोफेसरों के यहां इस कदर सन्नाटा क्यों छाया हुआ है? क्यों कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के हिंदी-उर्दू विभाग गहरी नींद में डूबे हुए हैं, जबकि इन तीनों कथाकारों ने समाज की नींद तोड़ कर उसे जगाने की लगातार कोशिशें की. इन तीनों में भीष्म सबसे बड़े थे. इस्मत उनसे सात दिन छोटी थीं और बेदी 23-24 दिन छोटे. सबसे लंबी उम्र भीष्म जी ने पायी. वे 86 वर्ष जिये. इस्मत आपा 76 वर्ष जी पायीं और बेदी 69 की उम्र में चल बसे. इन तीनों पर, जो कि हिंदू, सिख, मुसलमान होते हुए भी मजहब के संकीर्ण दायरे पर लगातार प्रहार करते रहे, आज सबसे अधिक एक साथ जलसे, मीटिंग और सेमिनार करने की जरूरत है. इन फनकारों की जन्मशती चंद अपवादों को छोड़ कर खाली चली गयी. हिंदी-उर्दू अदब में इन तीनों को जो इज्जत-शोहरत मिली, उसकी मुख्य वजह यह थी कि ये सब प्रगतिशील सोच के थे. चालीस के दशक में हिंदी-उर्दू के अफसानों ने जो करवटें ली हैं, उन्हें आज अधिक देखने-समझने की जरूरत है. इन तीनों ने हिंदी-उर्दू कहानी पर जो अमिट छाप छोड़ी है, उसे ‘लुकंदरे प्रोफेसर और चेयरमैन’ नहीं समझ सकते. काजी अब्दुल सत्तार ने अभी एक इंटरव्यू में पहले और आज के उर्दू विभागों की बात कही है. अब ऐसे लुकंदरे प्रोफेसर और चेयरमैन हो गये हैं कि उन्होंने इस्मत चुगताई के अफसाने पढ़े ही नहीं होंगे. वरना हर यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में इस्मत के लिए सेमिनार होते. अब प्रोफेसर तो आंधी के आम हैं. न पढ़ने की जरूरत, न लिखने की. तो फिर ऐसे प्रोफेसर से आप क्या तवक्को करते हैं? बाद में उन्होंने ‘लुकंदरे’ का अर्थ बताया- ‘जाहिल, उल्लू का पट्ठा, हर बात में दखल देनेवाला.’
इस्मत चुगताई ने उर्दू अफसाने में एक बड़ी लकीर खींच दी. वे ‘उर्दू अफसाने की फर्स्ट लेडी’ हैं. उनके पहले औरतों के लिखे अफसानों की दुनिया सिमटी हुई थी. उनकी शोहरत उत्कट स्त्रीवादी विचारधारा के कारण है. 1942 में जब ‘लिहाफ’, ‘अदब-ए-लतीफ’ में प्रकाशित हुई, बावेला मच गया. समलैंगिकता के कारण इस कहानी पर अश्लीलता का आरोप लगा था. लाहौर कोर्ट में मुकदमा चला था.

इस्मत ने माफी न मांग कर कोर्ट में लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की. उनके भाई मिर्जा अजीम बेग चुगताई प्रतिष्ठित लेखक थे- इस्मत के पहले शिक्षक और ‘मेंटर’ भी. 1936 में जब इस्मत बीए में थीं, लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन में शरीक हुई थीं. बीए और बीएड करनेवाली वे पहली भारतीय मुसलिम महिला थीं. अपने रिश्तेदारों द्वारा शिक्षा के विरोध किये जाने से उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत की. कुरआन के साथ गीता और बाइबिल भी पढ़ी. महिला लेखकों में उनकी जगह पूरे उप-महाद्वीप में बहुत ऊंची है. इस्मत के लेखन के आरंभ में नजरे सज्जाद हैदर ने अपने को एक स्वतंत्र स्त्री-स्वर के रूप में स्थापित किया था.


इस्मत पर हिजाब इम्तियाज अली और डॉ रशीद जहां का प्रारंभिक दौर में प्रभाव देखा जा सकता है. इस्मत सदैव सामंती और कठोर-अत्याचारी आवाजों के विरुद्ध रहीं हैं. उनके पात्रों की तुलना मंटो से की जाती है. उर्दू में मंटो और इस्मत का कोई जवाब नहीं है. समाज के ठेकेदारों की इन दोनों ने ऐसी-तैसी की. इस्मत प्रबुद्ध, निर्भीक, रुढ़िभंजक, मूर्तिभंजक, प्रगतिशील कथाकार हैं. उर्दू के आलोचक उनकी जिन कहानियों को ‘सेक्सी’ कहते हैं, वे सही अर्थ में ‘समाजी लड़खड़ाहटों की कहानियां’ हैं. उनके ऊपर डीएच लारेंस, फ्रायड और बर्नार्ड शॉ का भी प्रभाव है. चोटें, कलियां, छुई-मुई उनके अफसानों के संग्रह हैं. वे उपन्यासों से कहीं अधिक कहानियों में प्रभावशाली हैं. स्त्रीवादी विचार उनके यहां तब देखने को मिला, जब इस उपमहाद्वीप में उसका आगमन नहीं हुआ था. ‘टेढ़ी लकीर’ को उर्दू नॉवेल में अच्छा दर्जा मिला. ‘कागजी है पैरहन’ संस्मरण है और ‘दोजख’ नाटकों का संकलन. उन्होंने अपनी और मुसलमान, दोनों की छवि तोड़ी. उपन्यास ऐतिहासिक ‘एक कतरा खून’ में हुसैन के नेतृत्व में कर्बला के मैदान में हक के लिए लड़ी गयी लड़ाई है. उनकी आवाज इंसानियत की आवाज है, जो आज कम सुनाई देती है.
इन तीन कथाकारों के यहां एक समानता यह है कि ये तीनों मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग के कथाकार हैं. अधिक किरदार मिडिल क्लास के हैं. बेदी और भीष्म साहनी के यहां विभाजन की गहरी पीड़ा है. बेदी एक साथ कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और संवाद लेखक हैं. अविभाजित पंजाब में भीष्म और बेदी जन्मे- रावलपिंडी और सियालकोट में. बेदी ने कुल 72 कहानियां लिखी हैं. उर्दू उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था. पंजाब बेदी के यहां मौजूद है. उनकी ख्वाहिश बस इतनी थी कि फिल्म से एक लाख रुपये जमा कर पंजाब के किसी गांव में डेरा जमा कर केवल लिखें और पढ़ें, पर यह ख्वाहिश पूरी नहीं हुई. बेदी का फिल्मी सफर बड़ा है. उनकी कहानियों के क्राफ्ट का कोई जवाब नहीं है. 50 वर्ष का उनका साहित्यिक जीवन रहा है. विभाजन को लेकर लिखी गयी बेमिसाल कहानी ‘लाजवंती’ में दिलों की पुन: प्रतिष्ठा बढ़ी है.
भीष्म साहनी नयी कहानी के अप्रतिम कथाकार हैं. इन तीन कथाकारों में उनकी कहानियां सर्वाधिक हैं- लगभग 125. ‘भाग्यरेखा’ से ‘डायन तथा अन्य कहानियों’ तक. ‘चीफ की दावत’, वांगचू, अमृतसर आ गया है, जैसी कहानियां अविस्मरणीय हैं. भीष्म नयी कहानी की ‘जेन्युइन नयी’ (अमरकांत और शेखर जोशी के साथ) में हैं. ‘तमस’ उपन्यास में जिस सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक राजनीति का चित्रण है, वह आज कहीं अधिक है. वर्तमान समय संदर्भ में भीष्म जी का अधिक महत्व है. उनके नाटक ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ आज भी प्रासंगिक हैं. नाटक, कहानी, उपन्यास, प्रगतिशील आंदोलन, फिल्म से जुड़ाव के जो अभिन्न अर्थ हैं, उन्हें समझ कर, उन पर चल कर ही समाज को दिशा दी जा सकती है. यह वर्ष पुरस्कार-सम्मान वापसी का है और इन तीन बड़े कथाकारों की जन्मशती का भी. इन लेखकों ने अपनी रचनाओं से समाज को दिशा दी, हमें सावधान किया. जागरूक बनाया. हम खामोश रह कर क्या कर रहे हैं? समाज को कहां ले जा रहे हैं? शिक्षण संस्थाएं क्या कर रही हैं? कॉलेज और विश्वविद्यालय के हिंदी-उर्दू विभाग लकवाग्रस्त क्यों हैं?
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार

Prabhat Khabar Digital Desk
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