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हानिकारक गैसों से मिलेगी मुक्ति! ईंधन बनाने की तैयारी

दुनियाभर में अनेक स्रोतों से पैदा होनेवाले कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरण पर घातक असर पड़ रहा है. दूसरी ओर धरती पर जीवाश्म ईंधनों का भंडार सीमित है और इससे जुड़े अनेक पर्यावरणीय खतरे भी हैं. ऐसे में यदि औद्योगिक उत्सर्जन से द्रव ईंधन को हासिल करने में कामयाबी मिले जाये, तो समझिये ‘सोने में सुहागा’. […]

दुनियाभर में अनेक स्रोतों से पैदा होनेवाले कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरण पर घातक असर पड़ रहा है. दूसरी ओर धरती पर जीवाश्म ईंधनों का भंडार सीमित है और इससे जुड़े अनेक पर्यावरणीय खतरे भी हैं. ऐसे में यदि औद्योगिक उत्सर्जन से द्रव ईंधन को हासिल करने में कामयाबी मिले जाये, तो समझिये ‘सोने में सुहागा’. वैज्ञानिकाें ने इस दिशा में आरंभिक सफलता हासिल कर ली है और अब चीन में इसका डिमॉन्सट्रेशन प्लांट लगाया जा रहा है. क्या है यह कामयाबी और कैसे हासिल किया गया है
इसे समेत इससे संबंधित अनेक अन्य पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का साइंस टेक्नोलॉजी पेजचीन में किये गये एक हालिया परीक्षण के दौरान औद्योगिक उत्सर्जन को द्रव ईंधन में तब्दील करने में कामयाबी हासिल हुई है. इससे इस बात की उम्मीद जगी है कि पावर स्टेशनों, स्टील प्लांटों और कूड़े-कचरे के ढेरों से निकलने वाली लाखों टन घातक गैसों के उत्सर्जन को ऐसी चीज में बदलने में कामयाबी मिलेगी, जिसके लिए पिछले कई दशकों से निरंतर प्रयास किया जा रहा है.
मेसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी के ग्रेगोरी स्टीफेनोपोलस के हवाले से ‘द गार्डियन’ में बताया गया है कि इसमें एक इंटेग्रेटेड सिस्टम को विकसित किया गया है. इस सिस्टम के तहत एक सिरे पर उपरोक्त उत्सर्जित गैस को डाला जाता है और दूसरे सिरे से द्रव ईंधन हासिल होता है. शंघाई के निकट सितंबर, 2015 में इस काम के लिए एक पायलट प्लांट लगाया गया था, जिसने अब तक सफलतापूर्वक काम किया है.
इस काम को आगे बढ़ाने के लिए सेमी-कॉमर्शियल डिमॉन्सट्रेशन प्लांट लगाया जा रहा है, जो पायलट प्लांट से करीब 20 गुना ज्यादा बड़ा है. पायलट प्लांट को और ज्यादा विकसित करने में जुटी टीम को ही इस ‘डिमॉन्सट्रेशन प्लांट’ में लगाया जा रहा है, ताकि सिस्टम को प्रभावी तरीके से लागू किया जा सके. स्टीफेनोपोलस कहते हैं, ‘किसी लैबोरेटरी में इसे एक-दो लीटर बना लेना अलग बात है, लेकिन ‘डिमॉन्सट्रेशन प्लांट’ में 10,000 से लेकर 20,000 लीटर तक इसका उत्पादन होना एक अलग कहानी है़
कैसे काम करता है सिस्टम
इस सिस्टम में बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया गया है़, जो हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों (इसे साइनगैस कहा जाता है) के मिश्रण को एसीटिक एसिड (कॉन्सेंट्रेटेड विनेगर) में तब्दील कर देता है़ अब इसे तेल (जिसका इस्तेमाल बतौर ईंधन किया जाता है) में बदलने के लिए ‘जेनेटिकली इंजीनियर्ड यीस्ट’ का इस्तेमाल किया जाता है.
यदि यह टीम इस सिस्टम को बड़े कॉमर्शियल स्तर पर पूरी क्षमता के साथ निरंतर इस कार्य को दर्शाने में सक्षम रहेगी, तो टनों घातक गैसों को न केवल रिसाइकिल किया जा सकेगा, बल्कि इससे एक बड़ी वैश्विक समस्या का भी समाधान हो जायेगा. कूड़ा-कचरा डंप करनेवाली जगहों को ज्यादा स्वच्छ बनाने में यह सिस्टम प्रभावी हो सकता है. साथ ही जीवाश्म ईंधन को कम से कम खर्चें में बायोफ्यूल से रिप्लेस किया जा सकेगा.
इस प्रोजेक्ट से जुड़े एक अन्य विशेषज्ञ डेमियन कैरिंगटन का कहना है, ‘एनर्जी-डेन्स लिक्विड की यातायात में अहम भूमिका है, लेकिन मौजूदा समय में इसे ज्यादातर तेल या जीवाश्म ईंधनों से हासिल किया जाता है. दुनियाभर में बढ़ते यातायात से कार्बन उत्सर्जन के कारण क्लाइमेट चेंज का खतरा बढ़ रहा है, जिसमें एक-चौथाई योगदान परिवहन व्यवस्था से जुड़े कारणों का है.’ उनका कहना है कि बायोफ्यूल के तौर पर विशेषज्ञों ने इसका निदान जरूर तलाशा, लेकिन अनाज के उत्पादन पर इसका व्यापक असर पड़ा और दुनियाभर में इस कदम की आलोचना की गयी.
हालांकि, दुनिया के अनेक देशों में अब तक इस तरह के कई सिस्टम विकसित किये गये हैं, लेकिन इनकी लागत इतनी ज्यादा आती है कि इन्हें ज्यादा दिनों तक चला पाना मुश्किल हो जाता है. डेमियन कैरिंगटन का कहना है, ‘चीन में नया डेमॉन्सट्रेशन प्लांट इस लिहाज से कितना सक्षम होगा, इसे जानने में अभी वक्त लगेगा.’ लेकिन इस बात से वे आश्वस्त हैं कि कारोबारी स्तर पर इस सिस्टम को प्रोमोट किया जा सकता है.
चार साल से चल रहा काम
स्टीफेनोपोलस का कहना है कि अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने इस प्रोजेक्ट के लिए रकम मुहैया करायी थी और चार साल पहले उन्होंने बतौर पोस्ट-डॉक्टरल प्रोजेक्ट इसकी शुरुआत की थी.
नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया गया है. चीन के अलावा बेल्जियम की एक स्टील प्लांट में भी इस सिस्टम पर काम चल रहा है और विविध माइक्रोब्स के इस्तेमाल से वहां भी ईंधन निर्माण की योजना को अमलीजामा पहनाया जा रहा है. उम्मीद जतायी गयी है कि वर्ष 2017 तक इस प्लांट को शुरू कर दिया जायेगा.
सैन फ्रैंसिस्को बनेगी जीरो-वेस्ट सिटी
आमतौर पर शहरों का कचरा शहर के बाहर लैंडफिल साइट में फेंका जाता है़ इसका निस्तारण करना एक समस्या बनती जा रही है़ यहां फेंकी जानेवाली तकरीबन सभी चीजों को कम्पोस्टिंग और रिसाइकिलिंग करते हुए अमेरिकी शहर सैन फ्रैंसिस्को ने वर्ष 2020 तक जीरो वेस्ट का लक्ष्य रखा है. साथ ही यहां जलाये जानेवाले सभी प्रकार के कचरों से बिजली बनायी जायेगी.
माइक्रोब्स से अपराध पर लगाम मुमकिन!
प्रत्येक इनसान के आसपास कुछ खास किस्म के माइक्रोब्स का आवरण रहता है. लेकिन, ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता.
किसी निर्धारित स्थान जब कोई आदमी एक बार हट जाता है, तो उसके चले जाने के कई घंटे बाद तक भी इनमें से कुछ माइक्रोब्स वहां बने रहते हैं. यदि ऐसी तकनीक विकसित कर ली जाये, जिससे इन माइक्रोब्स को सटीक रूप से पहचाना जा सके, तो अपराधियों को पकड़ा जासकता है.
‘साइंस’ जर्नल के मुताबिक, फोरेंसिक वैज्ञानिकों को भरोसा है कि किसी अपराध की जांच के दौरान इन माइक्रोब्स के जरिये अपराधी तक पहुंचा जा सकता है. उन्होंने उम्मीद जतायी है कि इस कार्य में माइक्रोब्स से मदद मिल सकती है. अमेरिका के कोलेरेडो बाउल्डर यूनिवर्सिटी की अानुवांशिक वैज्ञानिक जेसिका मैटकॉफ का कहना है कि इस तरह के माइक्रोब्सके आधार पर किसी की मृत्यु का सटीक समय भी पता लगाया जासकता है.
दुनिया का सबसे बड़ा वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट
चीन के शहर शेनजेन में दुनिया का सबसे बड़ा ‘वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट’ यानी कूड़ा-कचरा से ऊर्जा पैदा करनेवाला प्लांट लगाया जायेगा. इस प्लांट में रोजाना करीब 5,000 टन कूड़ा-कचरा का निस्तारण किया जायेगा. इस वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट में कम से कम एक-तिहाई कचरे को बिजली में तब्दील किया जा सकेगा.
दरअसल, इस शहर में कूड़े का निस्तारण करना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है. वर्ष 2020 तक इस प्लांट के चालू होने की उम्मीद जतायी गयी है. इस परियोजना का निर्माण करनेवाली डेनमार्क की कंपनी ‘स्मिट हैमर लेसन आर्किटेक्ट्स’ के संबंधित अधिकारी क्रिस हार्डी का कहना है कि यह परियोजना ऊर्जा समाधान का हिस्सा नहीं है.
इसका मकसद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से होने वाली वैश्विक हानि को कम करना है. इसलिए चीन की सरकार ने अगले तीन सालों के दौरान ऐसे करीब 300 प्लांट लगाने की योजना बनायी है. इस सिस्टम के तहत पैदा होनेवाली ऊर्जा इस प्लांट का बाइ-प्रोडक्ट होगी. इस प्रोजेक्ट का दायरा कितना व्यापक होगा, इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि इसकी छत 1.6 किलोमीटर लंबी होगी. इतने बड़े इलाके में 44,000 वर्गमीटर का सोलर पैनल लगाया जासकता है.
माइक्रोब्स के प्रोत्साहन के लिए पुरस्कार
औद्योगिक माइक्रोब्स के उत्पादन और विविध तरीकों से उसे इस्तेमाल में लाने के लिए अमेरिका की एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (इपीए) ने पुरस्कारों की घोषणा की है. पर्यावरण के लिहाज से सुरक्षित और सतत विकास के लिए सटीक तकनीकों का इस्तेमाल करनेवाली ऐसी 19 छोटी कंपनियों को विगत वर्ष 2015 में अमेरिका की एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी ने 1.9 मिलियन डॉलर का पुरस्कार दिया है. इनमें से ज्यादातर ऐसी कंपनियां हैं, जो पेट्रोकेमिकल के कारोबार से जुड़ी हैं और कार्बन का उत्सर्जन करती हैं.
इन कंपनियों के संचालन का नियंत्रण एक ही व्यक्ति के हाथों होता है, जो नयी तकनीकों को बढ़ावा देते हैं और नये-नये इनोवेटिव आइडियाज से पर्यावरण की समस्या का समाधान करते हुए अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में योगदान देते हैं. लेकिन इस नयी प्रक्रिया के इस्तेमाल से अब कार्बन उत्सर्जन में कमी आयी है. इपीए के साउथवेस्ट के रीजनल एडमिनिस्ट्रेटर जेयर्ड ब्लूमेनफेल्ड ने इन हरीत कदमों की प्रशंसा की है और उम्मीद जतायी है कि ऐसा होने से आनेवाली पीढ़ियों को हम एक स्वच्छ और सुरक्षित धरती सौंप सकते हैं.
क्या है माइक्रोब्स
मा इक्रोब्स सिंगल-कोशिका वाले ऑर्गेनिज्म्स हैं. ये इतने छोटे होते हैं कि सूई की नोक पर लाखों की संख्या में समा सकते हैं. ‘माइक्रोब वर्ल्ड डॉट ओआरजी’ की रिपोर्ट के मुताबिक, धरती पर जीवन का सबसे प्राचीन प्रारूप माइक्रोब्स को ही माना जाता है. धरती पर करीब 3.5 अरब वर्षों पहले माइक्रोब जीवाश्म पाये जाने के लक्षण मिले हैं, जब पूरी धरती पर समुद्र का प्रवाह था. यह कहानी धरती पर डायनोसोर के अस्तित्व से भी पहले की बतायी गयी है.
बिना माइक्रोब्स के हम न तो सांस ले सकते हैं और न ही कुछ खा सकते हैं. लेकिन, हमारे बिना उनके जीवन के अस्तित्व को संभवतया कोई खतरा नहीं होगा. माइक्रोब्स को ठीक तरह से समझने पर न केवल हम धरती के अतीत के बारे में सटीक तौर पर जान सकते हैं, बल्कि इससे धरती के भविष्य का भी अंदाजा लगाया जा सकता है.
पूरी धरती पर ये सभी जगह पाये जाते हैं. यहां तक कि हमारे हाथ में भी ये मौजूद हैं. हम जिस हवा को सांस के रूप में ग्रहण करते हैं, उसमें भी ये पाये जाते हैं. हमारे खाने-पीने की चीजों में भी ये पाये जाते हैं. इनके बिना इनसान या कोई भी अन्य जानवर अपना भोजन नहीं पचा सकते. इनके बिना न तो पौधे उग सकते हैं और न ही कूड़े का निस्तारण हो सकता है. हमें ऑक्सीजन मुहैया कराने में इनका व्यापक योगदान है.
माइक्रोबायोलॉजी
माइक्रोबायोलॉजी में माइक्रोब्स का अध्ययन किया जाता है, जिसमें इनसानों समेत अन्य जीवों, पेड़-पौधों और पर्यावरण के साथ उनके विविध संबंधों को समझा जाता है. सभी प्रकार की रासायनिक और भौतिक प्रक्रियाओं में माइक्रोब्स का योगदान होता है. इनसानों और पशुओं में होनेवाली बीमारियों और इनके इलाज में माइक्रोब्स की भूमिका अहम है. सूक्ष्म जीवों की मदद से ही दवाओं का निर्माण किया जाता है.
सूक्ष्म जीव कई प्रकार के हो सकते हैं, जैसे कृषि के सूक्ष्मजीव, भोजन में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव आदि.यह सूक्ष्मजीव लाभदायक और हानिकारक दोनों हो सकते हैं. इसके तहत फिजियोलॉजी ऑफ माइक्रोब्स, माइक्रोब्स की जैविक संरचना, एग्रीकल्चर माइक्रोबायोलॉजी, फूड माइक्रोबायोलॉजी, बायोफर्टिलाइजर में माइक्रोब्स, कीटनाशक, पर्यावरण, मानवीय बीमारियों आदि में सूक्ष्म जीवों का अध्ययन किया जाता है. कीटनाशकों से पैदा होनेवाले प्रदूषण को भी ये सूक्ष्मजीव ही नियंत्रित करते हैं. इसके अलावा अन्य चीजों में इनके सार्थक इस्तेमाल पर शोध किया जाता है.

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