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मेला : तहजीबों का संगम

ऐश्वर्या ठाकुर आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर इकबाल सुहैल अपनी गजल में फरमाते हैं- मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं / जौहरदरियाओं के संगम से बढ़ कर तहजीबों का संगम होता है.’ मेल-जोल का बहाना बनकर मेलों ने सदियों से तहजीबों को जोड़कर रखने का काम किया है. चाहे कुंभ मेला हो या दशहरा मेला, गोवा […]

ऐश्वर्या ठाकुर

आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर

इकबाल सुहैल अपनी गजल में फरमाते हैं- मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं / जौहरदरियाओं के संगम से बढ़ कर तहजीबों का संगम होता है.’ मेल-जोल का बहाना बनकर मेलों ने सदियों से तहजीबों को जोड़कर रखने का काम किया है. चाहे कुंभ मेला हो या दशहरा मेला, गोवा का कार्निवल हो या बिहार का सोनपुर मेला, लोक संस्कृति और सामूहिक उत्तेजना के प्रतीक के रूप में मेलों का महत्व अद्वितीय रहा है.

नदियों किनारे लगनेवाले मेलों में सबसे प्रख्यात है अर्ध कुंभ और महाकुंभ मेला, जो हर छह और बारह सालों के अंतराल में गंगा, यमुना, शिप्रा और गोदावरी के किनारे लगता है.

कुंभ मेला सनातन धर्म की एक विशाल झांकी के समान होता है, जिसमें प्रचंड जनसमूह, बतौर दर्शनार्थी और श्रद्धालु हिस्सा लेता है. कुंभ मेले की भीड़ को लेकर मिलने-बिछड़ने की लोकोक्तियां भी मशहूर हैं. मान्यता है कि सिमरिया (बिहार) में आयोजित होनेवाले मेले का इतिहास वैदिक काल से जुड़ा है और जिन 12 स्थानों पर कुंभ लगता था, उनमें से सिमरिया एक स्थान था. मिथिलावासी इस मेले को मोक्ष धाम के रूप में देखते हैं. प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में मेले का जिक्र याद दिलाता है कानपुर में ईद पर लगनेवाले अर्र, टर्र और पर्र के मेलों की.

पुष्कर झील (राजस्थान) के किनारे लगनेवाले सालाना मेले में जब घुमंतुओं का जमावड़ा लगता है और ऊँट, गधे, घोड़ों की बोलियां लगायी जाती हैं, तो बंजर रेगिस्तान भी गुलजार हो उठता है. बहुरूपिये और नट दिखाते है खेल-तमाशे, वहीं बंजारनें बनाती मिलती हैं कबीलाई गोदने. ऐसे ही मेलों में शुमार होता है लाहौर का ‘मेला चिरागां’ का, जहां लोग दीयों से सूफी शायर ‘शाह हुसैन’ को याद किया जाता है.

याद आता है 1919 का बैसाखी मेला, जब अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेजी हुकूमत ने नृशंस हत्याकांड कराया था. पंजाब का शहीदी जोड़ मेला गुरु गोबिंद सिंह के दो साहिबजादों की शहादत को समर्पित है. हिमाचल प्रदेश में बिलासपुर का नलवाड़ी पशु मेला, रामपुर बुशहर का लवी मेला, कुल्लू का दशहरा मेला या चम्बा का मिंजर मेला आदि सुस्ताती अल्साती पहाड़ियों में रौनक का सबब बनते हैं. देवी-देवताओं की पालकी कांधों पर उठाये लोग ढोल-नगाड़े की धुन पर झूमते हैं. आज पुस्तक मेला, आर्ट फेयर और साहित्यिक मेलों का भी बड़ा चलन है. मेले तोड़ते हैं दस्तूरी जिंदगी की एकरसता को और जोड़ते हैं मानवीय संबंधों को. मेले होते हैं बंजर जीवन में उगती हुई इंतजार की दूब जैसे.

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